Tuesday, December 7, 2010

इक़बाल का रूहानी सफ़र
राजकिशोर



यह इक़बाल की नहीं, हमारी बदकिस्मती है कि उनके जैसे महान और विचारक कवि को स्वतंत्र भारत में वह जगह नहीं मिल पाई जिसके वे लायक थे। अनेक जानकार लोगों ने कहा है कि ऊँचाई और व्यापकता के लिहाज से इक़बाल रवींद्रनाथ ठाकुर की टक्कर के कवि हैं। इसकी गवाही के रूप में बाज दफा यह दुहाराया जाता है कि ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा साहित्य के क्षेत्र में रवींद्र के अलावा इक़बाल को ही ‘सर’ की उपाधि प्रदान की गई। इस तरह की समानताओं को साहित्यिक मूल्यांकन की कसौटी नहीं बनाया जा सकता। साहित्य को अपनी कसौटी खुद होना चाहिए। इस कसौटी पर इक़बाल को बीसवीं शताब्दी में भारत उपमहादेश का एकमात्र दार्शनिक कवि कहा जा सकता है। वे दर्शन की भाषा में ही सोचते थे और दर्शन की भाषा में ही अपने को व्यक्त करते थे। लेकिन उनका दर्शन समाज से कटा हुआ नहीं था। व्यक्ति और कौम, दोनों के सरोकार उनके हृदय को लगातार बींधते रहे। बेशक उन्होंने राजनीति में भी हिस्सा लिया, परंतु यह उसी व्यापक संवेदना का एक आयाम था जो उनकी आत्मा को हमेशा बेचैन रखती थी। इक़बाल ने इश्क करने वालों के लिए इन दो शब्दों का साथ-साथ और बराबर प्रयोग किया है – परिताप और उत्कंठा। इक़बाल के अपने व्यक्तित्व में परिताप कौम के पतन का था और उत्कंठा सर्जनात्मक उन्नयन की। खूबी यह थी कि इनमें कोई द्वंद्व या टकराव नहीं था, क्योंकि सर्जनात्मक उन्नयन के बिना कोई भी कौम न तो अपनी खुदी के साथ जीवित रह सकती है और न अपना चौतरफा विकास कर सकती है। जो बात कौम पर लागू होती है, वही व्यक्ति के लिए भी मौजू है।

इक़बाल की ‘तराना-ए-हिन्दी’ शीर्षक वाली गजल हमारे देश में लगभग राष्ट्रगीत का दर्जा रखती है। एक शेर ( ऐ आबे-रोदे-गंगा! वो दिन है याद तुझको, उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा) को छोड़ कर, क्योंकि यह तथ्य विवादास्पद है, इस अद्भुत गजल को राष्ट्रगीत के रूप में अंगीकार कर लिया गया होता, तो कई दृष्टियों से बहुत बेहतर होता। जनमनगण और वंदे मातरम् की तुलना में यह गजल लोगों की समझ में ज्यादा आती है और इसमें प्रेरणा का तत्व भी काफी है। मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा – यह शेर सांप्रदायिकता के प्रतिरोध के दौरान पिछले बीस सालों में पता नहीं कितनी बार दुहराया गया है। लेकिन सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा तो अपने लिखे जाने के समय से ही हम सब की जबान पर चढ़ा हुआ है। महात्मा गांधी ने लिखा है कि यर्वदा जेल में उन्होंने इस गीत को दर्जनों बार गया था।


1984 में जब भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूछा कि अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखाई दे रहा है, तो राकेश की जबान पर ‘तराना-ए-हिंद’ का यही मिसरा आया था – सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा। यह बात सच्ची नहीं लगती कि अंतरिक्ष से भारत ही धरती का सबसे सुंदर हिस्सा दिखाई पड़ता होगा। किसी भी अन्य देश का अंतरिक्ष यात्री अपने मुल्क के बारे में यही कहता। लेकिन तथ्य यह भी है कि हम जहां भी जाते हैं, अपनी राष्ट्रीयता अपने साथ ले जाते हैं, क्योंकि इससे बृहत कोई सक्रिय राजनीतिक इकाई हमने बनाई नहीं है। इक़बाल इसी राष्ट्रीयता या कौमियत के सबसे बड़े दार्शनिक कवि थे।



कौमियत में एक बीमारी का तत्व भी होता है। यह बीमारी है अत्यधिक आत्मप्रशंसा की। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान भारत के लोग अपने देश की महिमा से मत्त थे। जिन मुट्ठी भर भारतीयों ने भारत के गौरव गान के साथ-साथ उसकी कमजोरियों और विकृतियों पर अपनी दर्दमंदी प्रगट की, उनमें तीन नाम तुरंत याद आते हैं – महात्मा गांधी, इक़बाल और रवींद्रनाथ ठाकुर। सारे जहाँ से अच्छा गा कर या सुन कर जो आह्लाद से भर उठते हैं, उन्हें इक़बाल की इन पंक्तियों पर गौर करना चाहिए –


वतन की फ़िक्र कर नादाँ, मुसीबत आने वाली है
तेरी बरबादियों के मश्वरे हैं आसमानों में
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में

इक़बाल के देशप्रेम में सिर्फ राजनीतिक स्वाधीनता की ख्वाहिश नहीं थी। वे हिंदुस्तान को एक महान देश के रूप में उभरते हुए देखना चाहते थे। इसी से उनमें यह कहने की हिम्मत आई –
सच कह दूँ ऐ बिरहमन, गर तू बुरा न माने
तेरे सनमकदों के बुत हो गए पुराने
एक पूर्ण देशभक्त ही किसानों की दुर्दशा देख कर गुस्से में यह कह सकता था –
जिस खेत में दहकाँ को मयस्सर नहीं रोटी
उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो
इसी तरह, इक़बाल मजदूरों का आह्वान करते हैं –
उठ कि अब बज्मे-जहाँ का और ही अंदाज़ है
मशरिक़ो-मग़रिब में तेरे दौर का आग़ज है

हमारे राष्ट्रीय चेतन और अवचेतन में इक़बाल का नाम एक ऐसी कमजोरी के साथ जुड़ा हुआ है जिसने इस महादेश के दो टुकड़े कर दिए। इक़बाल को पाकिस्तान आंदोलन के जनक के रूप में जाना जाता है। लेकिन इक़बाल का पाकिस्तान क्या वही पाकिस्तान था जिसकी वकालत मुहम्मद अली जिन्ना कर रहे थे? जिन्ना के लिए पाकिस्तान महज एक राजनीतिक इकाई था। इसीलिए वे पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में 11 अगस्त 1947 को संविधान सभा में यह घोषणा कर सके कि नए राष्ट्र पाकिस्तान में न कोई हिन्दू होगा और न मुसलमान। सभी पाकिस्तानी होंगे और राज्य सभी धर्मावलम्बियों से समान व्यवहार करेगा। यह एक सुघड़, लेकिन राजनीतिक वक्तव्य था। इसके विपरीत, इक़बाल को पाकिस्तान इसलिए चाहिए था कि वहां इस्लाम के धार्मिक सिंद्धांतों की नींव पर एक आध्यात्मिक देश बनाने का प्रयोग किया जाए। लगभग वैसे ही, जैसे गांधी जी अपने सपनों के भारत को राम राज्य कहते थे। यही वजह है कि जहां जिन्ना को आकार में बड़ा से बड़ा पाकिस्तान चाहिए था और जब अंग्रेजी हुकूमत ने भारत और पाकिस्तान की सीमाएं तय कर दीं, तो जिन्ना ने बड़ी पीड़ा के साथ कहा कि हमें एक कटा-कुतरा पाकिस्तान मिला है, वहीं इक़बाल के लिए पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सरहदी सूबा, सिंध और बलूचिस्तान का एकीकरण कर ‘पश्चिमोत्तर इंडियन मुस्लिम राज्य का निर्माण’ ही काफी था। यहां ‘इंडियन’ शब्द को रेखांकित करना जरूरी है। इसमें यह संकेत निहित है कि इक़बाल के सपनों का पाकिस्तान बृहत्तर भारत में भी अस्तित्वमान हो सकता था। इसमें तो कोई शक ही नहीं कि इक़बाल और जिन्ना आज के पाकिस्तान को देख पाते, तो दोनों ही अपना-अपना सिर पीट लेते।

इक़बाल जिस पाए के दार्शनिक, विचारक और कवि थे, उसके मद्दे-नजर कितना अच्छा होता कि वे अखंड भारत के लिए काम करते और उसके मूलभूत वैचारिक आधार की रूपरेखा तैयार करते। उन्होंने उस समय के किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में संसार के सभी धर्मों और दार्शनिक धाराओं का सबसे ज्यादा अध्ययन किया था। जैसे महात्मा गांधी ने एक ऐसा दर्शन दिया जो दुनिया के हर हिस्से के लिए समान रूप से ग्रहणीय है, वैसे ही इक़बाल भी एक नए विश्व धर्म की नींव रख सकते थे। भारत और दुनिया को यह उनका बहुत बड़ा अवदान होता। लेकिन इक़बाल इस्लाम से इतने सम्मोहित थे कि उसके बाहर किसी आदर्श जीवन व्यवस्था के बारे में वे कल्पना तक नहीं कर सके। लेकिन यह कोई ऐसी बात नहीं है जिससे उन्हें कोसा जाए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इक़बाल बुनियादी रूप से आध्यात्मिक व्यक्ति थे और अगर इस्लाम में ही उन्हें दुनिया की मुक्ति दिखाई दी, तो यह उनके रूहानी विकास का एक स्वाभाविक नतीजा था। लेकिन इस्लाम की उनकी अवधारणा में किसी तरह की कट्टरता नहीं थी। वे दुनिया के सभी अच्छे विचारों का स्वागत और सम्मान करते थे। इक़बाल अपनी शायरी में बार-बार हजरत मुहम्मद का नाम लेते हैं और कुरआन को एकमात्र मार्गदर्शक पुस्तक मानते हैं, पर उनके प्रतिपादनों पर बारीकी से गौर किया जाए, तो उनका खुदा उनकी अपनी सृजनात्मकता का उत्कर्ष है और उनकी खुदी में इतनी जबरदस्त संभावना है कि खुदा भी उसके सामने मजबूर हो जाए –
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
दरअसल, इक़बाल का अपना दर्शन इस खुदी का ही दर्शन है, जिसका विस्तृत प्रतिपादन उनकी प्रसिद्ध कविता पुस्तक ‘अस्रारे-ख़ुदी’ में मिलता है।
इस्लाम के प्रति प्रतिबद्धता, किन्तु सभी विचारों और मतों के प्रति संवेदनशीलता तथा जागरूकता – इक़बाल के इस उदार और ग्रणहशील व्यक्तित्व की सबसे विस्तृत और सुंदर झांकी मिलती है उनके फारसी महाकाव्य ‘जावेदनामा’ में। यह एक अद्भुत पुस्तक है। इसके जोड़ की कोई भी अन्य रचना भारतीय भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। यह एक तरह से दांते की प्रसिद्ध कृति ‘डिवाइन कॉमेडी’ का पूरब की ओर से रचनात्मक जवाब है। ‘डिवाइन कॉमेडी’ में कवि की आत्मा नरक, शुद्धिस्थान और स्वर्ग की अवस्थाओं से गुजरती है। इस प्रक्रिया में दांते ने अन्य धर्मावलंबियों की तीखी आलोचना की है और ईसाइयत को मुक्ति का मार्ग बतलाया है। इस आलोचना में कई प्रकार के पूर्वाग्रह दिखाई पड़ते हैं। जैसे हजरत मुहम्मद और इस्लाम के कई अन्य नायकों को, यहां तक कि कुछ प्रोटेस्टेन्ट धर्मावलंबियों को भी, नरक भोगते हुए दिखाया गया है। कहा जा सकता है कि यह चौदहवीं सदी के कैथोलिक दिमाग की सीमा थी। ‘जावेदनामा’ में भी इक़बाल की आत्मा तीनों लोकों की यात्रा करती है, पर इसमें किसी किस्म की पक्षधरता नहीं है। छन्द-दर-छंद एक दार्शनिक की विशदता और कवि की उदारता के दर्शन होते हैं। इस्लाम की रूढ़ मान्यता के अनुसार, भर्तृहरि स्वर्ग के अधिकारी नहीं हो सकते, पर इक़बाल से उनकी मुलाकात स्वर्ग में ही होती है। साथ ही, विश्वामित्र, जरतुश्त, गौतम बुद्ध, टॉलस्टॉय, ग़ालिब आदि को भी सम्मानपूर्ण स्थान दिया गया है। यदि किसी ईसाई संत को भी इसी पांत में बैठाया गया होता, तो ‘जावेदनामा’ कुछ और पूर्ण हो जाता, हालांकि टॉल्सटॉय को शामिल करना इस कमी की थोड़ा भरपाई कर देता है।
गौर करने की बात यह है कि अपनी इस ऊर्ध्व यात्रा के दौरान इक़बाल देखते क्या हैं, पूछते क्या हैं और उन्हें किस तरह के उत्तर मिलते हैं, क्योंकि इन्हीं में उच्चतर जीवन दर्शन की उनकी खोज के सूत्र निहित हैं। यह सफर इक़बाल अकेले नहीं करते, उनके मार्गदर्शक के रूप में तेरहवीं सदी के महान संत और फारसी कवि मौलाना जलालुद्दीन रूमी उनके साथ हैं। रूमी ही इक़बाल को ज़िदारूद नाम देते हैं, जिसका मतलब है जीवंत धारा या प्रवाह। जाहिर है, इक़बाल की आत्मा सतत सृजनशीलता का प्रतिबिंब है, जो उनकी नजर में मानव जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। इसलिए इक़बाल के लिए इससे अधिक उपयुक्त नाम कुछ और नहीं हो सकता था। संत रूमी ज़िदारूद को चंद्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, शनि आदि के आसमान में ले जाते हैं और नरक तथा स्वर्ग की यात्रा भी कराते हैं। इस यात्रा के दौरान ज़िदारूद की भेंट अनेक महापुरुषों और कुछ अत्याचारियों से होती है। अंत में वह अपने को ईश्वर के सामने पाता है और स्वर्गीय वाणी के प्रसाद से कृतकार्य होता है। लेकिन यह सिर्फ आध्यात्मिक सफर नहीं है। कवि को धरती के सवाल, खासकर हिंदुस्तान और पूरब की दुरवस्था के सवाल, पश्चिम की भौतिकवादिता और धर्मविमुखता के सवाल भी समान उत्कटता से परेशान करते हैं। इस तरह, ‘जावेदनामा’ पृथ्वी और आसमान, जीवन और जगत, शरीर और आत्मा, दोनों की मुकम्मिल किताब बन जाती है।
यहां कुछ शब्द इस फारसी महाकाव्य के हिन्दी अनुवाद के बारे में। यह अनुवाद मुहम्मद शीस ख़ान ने किया है और पूरी तल्लीनता के साथ किया है। खान ने अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध इलाहाबाद डिग्री कॉलेज में दो साल तक अध्यापन किया और सिविल सर्विसेज परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर इंडियन रेलवे अकाउंट्स सर्विसेज के लिए चुन लिए गए। वर्धा के अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का वित्त अधिकारी बनने के पहले वे रेलवे बोर्ड में अपर सदस्य, बजट थे। लेकिन यह सब उनका बाह्य परिचय है। असल में तो उनका मन दर्शन, कविता, इतिहास और, सबसे ज्यादा, इक़बाल में रमता है। इक़बाल उनकी चेतना में महानायक की तरह समाए हुए हैं । ज्ञान, प्रतिभा और श्रम की त्रिवेणी ने ‘जावेदनामा’ के इस अनुवाद को अपने आपमें एक श्रेष्ठ रचनात्मक उद्यम बना दिया है, जिसे सिर्फ भाषा और शैली का आनंद लेने के लिए भी पढ़ा जा सकता है। ‘जावेदनामा’ की हर पंक्ति गवाह है कि हिन्दी और संस्कृत पर खान की जबरदस्त रचनात्मक पकड़ है। तभी वे ऐसे अनेक नए शब्द गढ़ पाए हैं, जिसके बिना इक़बाल के आशय तक पहुंचना मुश्किल हो जाता।
जावेदनामा के इस अनुवाद की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह छंद में न होते हुए भी छंद की लयबद्धता का सुख देता है। हिन्दी में इस तरह के काव्यानुवाद का कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। हिन्दी को मात्रिक छंद और अंत्यानुप्रास पसंद हैं। संस्कृत के वार्णिक छंदों का उपयोग आधुनिक काल में हरिऔध, दिनकर और शायद त्रिलोचन ने भी किया है। अनुप्रास के बिना और मात्राओं या वर्णों की संख्या पर नजर रखे बगैर इस लय को कायम रखना एक दुर्लभ उपलब्धि है। एलिएट की मान्यता है कि कविता को गद्य की तरह साफ होना चाहिए। ‘जावेदनामा’ की काव्य भाषा में गद्य का यही चमत्कार दिखाई देता है। संस्कृत शब्दों की बहुलता है, पर बीच-बीच में उर्दू के या तद्भव शब्द आ कर एक नया जादू पैदा कर देते हैं। इस अनुवाद की एक खूबी फुटनोटों की बहुलता भी है। अनुवादक ने शोध और श्रम से लगभग हर अपरिचित शब्द का अर्थ और प्रत्येक नाम का परिचय दिया है। इससे न केवल ‘जावेदनामा’ के विविध संदर्भों को समझने में मदद मिलती है, बल्कि इस्लाम की अपनी शब्दावली का ज्ञान भी होता है।


जावेदनामा की शुरुआत होती है ईश्वर से ज़िदारूद के इस सवाल से कि –

आदमी इस सतरंगी दुनिया में हर पल
वीणा की तरह करता रहता है आर्तनाद
जलाती रहती है उसे सहचर की कामना
सिखाती रहती है ढाढ़स के लिए उसे विलापगान
लेकिन यह दुनिया कि है नीर-मिट्टी से
कैसे कहें कि रखती है यह भी एक दिल
सागर, वन, पर्वत, तृण सब मूक बधिर
नभ, चंद्र और सूर्य सब मूक और बधिर
है आसमान पर तारों का एक हुजूम
पर है एक से अधिक तनहा दूसरा तारा
हर एक है हमारी तरह निरुपाय, बेचारा
और परिसर में है नीले नभ के आवारा
कारवाँ ने सफ़र का कोई सामाँ किया नहीं
यह दुनिया क्या शिकार और हम शिकारी हैं ?
भुला दिया है जिन्हें क्या हम ऐसे क़ैदी हैं ?
रो-रो कर याचना की पर आया नहीं जवाब
बेटे का आदम के है कहाँ हमराज़ ?
उत्तर में आकाशीय प्रस्तावना सुनाई देती है, जिसमें आकाश सृष्टि के पहले दिन धरती की भर्त्सना करता है तो फरिश्ते गीत गाते हैं कि एक दिन मुट्ठी भर मिट्टी की चमक फरिश्तों से भी ज्यादा बढ़ जाएगी और धरती आकाश बन जाएगी। तभी रूमी की आत्मा प्रगट होती है, जिसके संसर्ग से ज़िदारूद एक हसीन गजल गाने लगता है –

होंठ खोल कि मिसरी की बहुत है मुझे इच्छा
चेहरा दिखा कि उद्यान व उपवन की है मुझे इच्छा
एक हाथ में मधु का प्याला एक हाथ में प्रिया की वेणी
सरे-मैदान नृत्य करने की है मेरी इच्छा
रूमी और ज़िदारूद के बीच लंबी बातचीत होती है, जिसके बाद ज़र्वान यानी काल का फरिश्ता ऊर्ध्वलोक की यात्रा के लिए उन्हें ले जाता है। सबसे पहले वे चंद्रमा के आकाश में पहुंचते हैं, जिसकी एक गुफा में एकांतवासी हिंदुस्तानी ऋषि से उनकी मुलाकात होती है। यह वही ऋषि है, जिसे लोग जहान दोस्त यानी विश्वामित्र कहते हैं। हिन्दू ऋषि गुर की नौ बातें बताता है। इनमें एक बात यह है कि जीवंत है आस्तिक पुरुष और स्वयं से युद्धरत; झपटता है स्वयं पर वह जैसे चीता हिरन पर। अपने पर झपटने का यह जौहर पूरी पुस्तक में बार-बार प्रस्तावित है, जिसका अर्थ यह है कि आत्मा के इर्द-गिर्द जमी धूल को साफ करने के बाद ही हम ईश्वर तुल्य बन सकते हैं यानी अस्तित्व के सार में समाहित हो सकते हैं। गुर की दूसरी बात यह है कि मूर्ति के समक्ष बैठा हुआ जाग्रत-हृदय नास्तिक का’बा के अंदर सोए पड़े नास्तिक से बेहतर है। विश्वामित्र ज़िदारूद को तसल्ली देते हुए यह भी बताते हैं कि यह प्राची के उदय की घड़ी है और उसके पहलू में एक अभिनव सूर्य है। यहीं गौतम बुद्ध की शिक्षाएं एक शिला पर उत्कीर्ण हैं। एक अंश देखिए –
पुरानी मदिरा और युवा प्रियतम कोई चीज़ नहीं
ज्ञानियों के समक्ष स्वर्ग की अप्सरा कोई चीज़ नहीं
समझता है जिसे दृढ़ व चिरस्थायी चीज़ सब जाती है गुज़र
पर्वत, वन, धरती, सागर और तट कोई चीज़ नहीं
प्रतीचियों का विज्ञान और दर्शन प्राचियों का
सब हैं मूर्ति-गृह और मूर्तियों की परिक्रमा कोई चीज़ नहीं
कर विचार स्वयं पर न गुज़र इस कानन से डरता हुआ
तू है विद्यमान दोनों लोकों का अस्तित्व कोई तीज़ नहीं

एक दूसरी शिला पर ज़रतुश्त के वचन उत्कीर्ण हैं, जो निजी जीवन के रू-ब-रू सामुदायिक जीवन के महत्व पर जोर देते हैं –
नहीं चाहती मेरी आँख अकेले दीदार ईश्वर का
महफ़िल के बिना देखना सौंदर्य है ख़ता
एकांत है क्या? वेदना, प रिताप और उत्कंठा
समुदाय है ईश्वर दर्शन और एकांत है गवेषणा
एकांत में प्रेम है ईश्वर से वार्तालाप
जब वह आता है समुदाय में वह होता है सम्राट
बुध ग्रह के आकाश में ज़िदारूद की भेंट जमालुद्दीन अफ़ग़नी (अफ़गानिस्तान के संत चिंतक) और सईद सलीम पाशा (तुर्की के राजनेता) से होती है। अफ़गानी अन्य विषयों के अलावा साम्यवाद और साम्राज्यवाद पर विचार करते हुए कई दिलचस्प बातें कहते हैं। साम्राज्यवाद उनकी नजर में शरीर का मोटापन है, जिसका ज्योतिहीन वक्ष हृदय से खाली है। वे ‘पूंजी’ के लेखक कार्ल मार्क्स को एक ऐसा पैगंबर बताते हैं जिसके पास खुदा का कोई संदेश नहीं था। मार्क्स का दिल आस्तिक था, पर उसका दिमाग नास्तिक था। साम्यवाद की आधारशिला उदर की समानता है, जबकि भ्रातृभाव का निवास दिल में है। सईद हलीम पाशा पूर्व और पश्चिम की तुलना करते हुए पूर्व को प्रेम का प्रसारक और पश्चिम को बुद्धि का उपासक बताते हैं। अकेले-अकेले दोनों किसी बड़े नतीजे तक नहीं पहुंच सकते। बुद्धि से प्रेम-कर्म का आधार दृढ़ होता है, जबकि प्रेम बुद्धि का सहचर होने पर एक नए जगत का अभिकल्पक हो जाता है। उल्लेखनीय है कि उस दौर में भारत के सभी बड़े चिंतक हृदयहीन और लालची पश्चिम से मुठभेड़ कर रहे थे। यह जरूर आश्चर्यजनक है कि सोवियत क्रांति के बाद जब दुनिया भर में इस प्रयोग को सराहना की नजर से देखा जा रहा था, तब अफ़ग़ानी ने रूसियों को यह संदेश दिया –
ऐ कि तू चाहता है एक नवीन व्यवस्था संसार में
क्या ढूँढ़ा है कोई सुदृढ़ आधार उसके लिए तूने?
इसके बाद अफ़ग़ानी क़ुरआनी जगत के मूलाधारों को स्पष्ट करते हैं और मुसलमानों को झकझोरते हैं कि उनके दिल में अब पैगंबर का वास नहीं है – मुसलमान ने क़ुरआन का खाया नहीं है फल, प्याले में उसके देखी मैंने मदिरा न तलछट। इस्लाम में राजतंत्र के लिए कोई गुंजायश नहीं है, पर हजरत साहब के गुजरते ही मुसलमानों ने राजतंत्र कायम करना शुरू कर दिया। इस हिस्से में इक़बाल इस्लाम की ऐसी व्याख्या करते हैं जिसकी नींव पर प्रेम, समानता और न्याय पर आधारित दुनिया का निर्माण किया जा सकता है। क़ुरआन पर आधारित दुनिया हुकूमते-इलाही यानी ईश्वरीय शासन है, जहां न कोई शासक है न कोई शासित। जमीन किसी एक की नहीं, बल्कि ईश्वर की है यानी इस पर सभी का साझा हक है। यह बात मंगल ग्रह के मर्गदीन शहर की व्यवस्था के वर्णन से और अधिक साफ होती है। अपनी विस्तृत और शोधपूर्ण भूमिका में मुहम्मद शीस खान बताते हैं, ‘मर्ग़दीन शहर वास्तव में इक़बाल के आदर्श इस्लामी राज्य एवं इस्लामी समाज का प्रतीक है। दूसरे शब्दों में यह उनका आदर्श कल्पना लोक या यूटोपिया है।’ इस कल्पना लोक का खाका यों खींचा गया है –
मशीनों का भूत उनकी प्रकृति पर हावी नहीं है
उसके धुओं से तिमिरमय आकाश नहीं है
किसान है मेहनती, दीपक उसका है प्रज्वलित
ज़मीनदारों की लूटमार से वह है सुरक्षित
उसकी काश्तकारी में नहीं हैं झगड़े नहरों के
कोई और नहीं है साझीदार उसकी फ़सलों में
न लश्कर है न फ़ौज है उस जगत में
कोई रोजी नहीं कमाता है रक्तपात से
लेखनी नहीं पाती है ख्याति मर्ग़दीन में
अपलेख एवं शिल्प से मिथ्या प्रचार के
न बेरोज़गारों का शोर है बाज़ारों में वहाँ
न कानों को कष्ट देती हैं भिक्षुओं की चीखें वहाँ

शनि ग्रह के आकाश में अपने देश और धार्मिक समुदाय से विश्वासघात करने वाली उन अधम आत्माओं का निवास है, जिन्हें नरक ने भी स्वीकार नहीं किया। इन्हीं में बंगाल के मीर जाफ़र और दकन के मीर सादिक की आत्माएं हैं। इन्होंने अपने देश और अपने धर्म, दोनों से विश्वासघात कर फिरंगी हमलावरों की मदद की थी। इनकी नौकाएं रुधिर के सागर में डूब-उतरा रही हैं। अब रूमी और ज़िदारूद आकाशों से परे जा रहे हैं। स्वर्ग में दाखिल होने से पहले रूमी जर्मन दार्शनिक नीत्से की खूबियों पर गौर फरमाते हैं और उसे ब्रह्मलीन बताते हैं, जिसे यूरोप समझ नहीं पाया। स्वर्ग में कई अन्य महापुरुषों के अलावा भर्तृहरि और टीपू सुलतान की आत्माओं से साक्षात्कार होता है। टीपू का देशभक्तिपूर्ण आह्वान पढ़ते ही बनता है। यह देख कर जरूर कष्ट होता है कि नृशंसता की पराकाष्ठा के प्रतीक नादिरशाह और मुहम्मद शाह अब्दाली भी यहीं विराजमान हैं। शायद इसलिए कि इन दोनों ने इस्लामी दुनिया की कुछ सेवा की थी। लेकिन खून से रंगे हुए उनके हाथ उनके सारे पुण्यों पर भारी पड़ते हैं, इस सीधी-सी बात की उपेक्षा इक़बाल जैसे दार्शनिक और कवि कैसे कर पाए?
यह कम दिलचस्प नहीं है कि उर्दू-फारसी के महाकवि ग़ालिब, ईरानी कवयित्री क़ुर्रतुलऐन ताहिरा और सूफी मंसूर हल्लाज की आत्माओं ने स्वर्ग में रहने की अपेक्षा सतत भ्रमण करना पसंद किया। कवि के यह पूछने पर कि आप लोगों ने जन्नत से दूर रहना क्यों पसंद किया, मंसूर ने जवाब दिया कि स्वतंत्र व्यक्ति जन्नत की सीमाओं में कैद नहीं रह सकता। इस सिलसिले में मिर्जा ग़ालिब की यह पंक्ति उद्धृत नहीं की गई है कि हमको मालूम है जन्नत की हकीक़त लेकिन, दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है, नहीं तो बड़ा मजा आता। पर इससे उस विचार प्रवाह में बाधा आ जाती जिसे इक़बाल ने बहुत मेहनत से रवां किया है। आगे का मुख्तसर किस्सा यह है कि ज़िंदारूद को ईश्वर के दीदार होते हैं और उसकी सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है। महाकाव्य की अंतिम पंक्तियां दुनिया नामक सराय में आने वाले सभी मुसाफिरों के लिए एक सयाना संदेश हैं –
ओछेपन से तेरे बदनाम हो गई मधुशाला
प्याला उठा, होशियारी से पी और चला जा

बेशक ‘जावेदनामा’ का दायरा बहुत विस्तृत है। इसमें ईश्वर की महिमा है, इश्क हकीकी के जलवे हैं, पश्चिम की समीक्षा है, हिंदुस्तान के लिए संदेश है, धर्मराज्य का आख्यान है, बादशाहत की भर्त्सना है, राष्ट्रीयता का गुणगान और विश्वदृष्टि का प्रतिपादन है, जीवन का लक्ष्य है, दौलत की हविस की आलोचना है, व्यक्तिवाद की निंदा है, मिल्लत पर जोर है, नारीवाद की मौलिक परिभाषा है, विज्ञान की महत्ता और उसकी सीमा है तथा और भी बहुत कुछ है। लेकिन नीरसता कहीं भी नहीं है। रामचरितमानस की तरह ‘जावेदनामा’ की सरिता भी पहाड़ों और घाटियों से गुजरते हुए कल-कल बहती जाती है। इक़बाल ने अपने इस अनोखे महाकाव्य का नाम अपने बेटे जावेद के नाम पर रखा है। दूसरे शब्दों में, यह जावेद के लिए इक़बाल की विरासत है। लेकिन इक़बाल की नजर इतनी तंग नहीं हो सकती। असल में तो यह जावेद के बहाने हम सब की विरासत है।

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