Tuesday, December 1, 2009

टेलीविजन पत्रकारिता

ज़ाहिद खान

हमारे मुल्क में टेलिविजन पत्रकारिता का इतिहास कोई ज्यादा पुराना नहीं है. दूरदर्शन पर बीस मिनट के न्यूज बुलेटिन से शुरु हुई पत्रकारिता की यात्रा आज 24 घण्टे की हो गई है. टेलिविजन पर चैनलों की भीड़ में कोई एक सैंकड़ा से अधिक समाचार चैनल हैं. अलग भाषा, क्षेत्र, तेवर और नये रंगो-अंदाज वाले चैनल. सभी अपने मियां मिट्ठू सबसे अलग, ताजा और तेज. एक्सक्लूसिव और लाईव समाचार प्रसारित करने वाले. कहने को ये समाचार चैनल हैं और गोया कि इनको समाचार प्रसारित करने के लिये ही सरकार से लायसेंस हासिल हुआ है फिर भी अगर इनके किरदार पर मुलाहिजा फरमायें तो इन चैनलों में समाचार कहीं खो से गये हैं. यदि समाचार हैं भी तो उसमें वास्तविक अवाम से जुड़े हुये जरूरी मुद्दे कहीं खो गये हैं. अवाम के हक, हुकूक और इंसाफ की कभी लड़ाई लड़ने वाले ये समाचार चैनल आज सियासी पार्टियों, सरमायेदारों के महज नुमांइदे बनकर रह गये हैं. अपने आका के हित साधाना ही इनका अहम मकसद रह गया है. ये अनायास ही नहीं है कि तीसरी दुनिया में टेलिविजन, एकलवादी व वर्चस्ववादी संस्कृति व मूल्यों का वाहक माना जा रहा है वहीं टी.वी. पत्रकारिता को यूरो-अमेरिकी महत्वकांक्षाओं की पूर्ति के माध्यम के रूप में देखा जा रहा है.
वास्तविक मुद्दों से दूर टेलिविजन पत्रकारिता एक आभासी दुनिया रच रही है. एक काल्पनिक दुनिया. जिसका कि वास्तविकता से दूर-दूर तलक वास्ता नहीं है. फैक्ट और फिक्सन का फर्क मिटा दिया गया है. टेलिविजन की ओडियंस आभासी दुनिया में पहुंचा दी गई है. गरीब, गलीज, गम, वंचनाओं से भरी दुनिया से दूर एक मायावी संसार जहां क्रिकेट हर कला से ऊपर है और फिल्मी कलाकार कलमकार से ऊपर. खेती में कर्ज से डूबते-दम तोड़ते किसान जहां कोई खबर नहीं बनते लेकिन राखी-मीका, शिल्पा- रिचर्ड गेरे प्रकरण पल भर में राष्ट्रीय मुद्दा होता है. जूली-मटुकनाथ की अजब प्रेम कहानी करोड़ों भारत वासियों की राम कहानी से ज्यादा बड़ी बना दी जाती है और ये सब कुछ होता है योजनाबध्द तरीके से. बाजार की नियामक ताकतें पहले तो अपने हिसाब से समाचार को क्रियेट करती हैं फिर उसको चैनल पर बेचना शुरू कर देतीं हैं और समाचार का दोहन उस वक्त तक जारी रहता है जब तक कि उस पर विज्ञापन मिलता है. जैसे ही विज्ञापन मिलना बंद होता है. बाजार फिर एक ऐसे ही समाचार की तलाश शुरू करता है जो उसकी नजर में सेलेबल है और जो चैनल की टी.आर.पी. रेटिंग पल भर में बढ़ा दे. समाचार चैनलों की इस टीआरपी रेटिंग यानी चूहा दौड़ में अवाम के हकीकी मुद्दे बहुत पीछे छूट गये हैं. असल बात, अहमियत वाली हार्ड न्यूज कम होती जा रही है. समाचार चैनल के एजेण्डे में समाचार मूल्य, लोकहित, संतुलन और वस्तुनिष्ठता जैसे मूल्य या पैमाने नहीं हैं बल्कि टीआरपी रेटिंग है. सभी चैनल अव्वल नंबर पर आना चाहते हैं. अव्वल नंबर पर रहने की इस दौड़ में गलाकाट प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है जो आखिरकार दर्शकों के लिये ही नुकसानदेह साबित हो रही है.
घटनाओं की प्रस्तुति में प्रतियोगिता का नतीजा एक दूसरे से ज्यादा सनसनीखेज, उत्तेजक, हल्केपन और ऑडियंस के लोएस्ट कॉमन डिनोमिनेटर को सहलाने के रूप में सामने आ रहा है. समाचार चैनलों में घटनाओं को सनसनीखेज और उत्तेजक बनाने के लिये उन्हें जरूरत से कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है. यही नहीं अब घटनाओं के प्रस्तुतिकरण में अति नाटकीयता का सहारा लिया जा रहा है. समाचार चैनल सार्वजनिक मसलों, बुनियादी सवालों से हटकर पेज थ्री के बेढंगे बेशउर नमूने बनकर रह गये हैं. जहां हाई प्रोफाईल हस्तियों के नितांत व्यक्तिगत जीवन, उनके निजी संबंधों और असुविधाजनक पहलुओं को निहायत ही असंवेदनशील, भौंडे और बेश्तर बार अश्लीलता की हद तक जाकर पेश किया जाता है. आर्थिक खबरों का मतलब जहां सेंसेक्स की उछल-कूद भर है. वहीं गरीब की खाली थाली उनके लिये कोई मायने नहीं रखती. घटनाओं के कवरेज में मेलो ड्रामा का असर है कि समाचार मीडिया के एजेण्डे पर अपराधा, सेलिब्रिटी, व्यक्तिगत अफेयर, नाईट पार्टीज, फैशन, लाईफ-स्टाईल, क्रिकेट और तथाकथित 'हयूमन इंटरेस्ट' स्टोरी अव्व्ल नंबर पर हैं. गुजिश्ता कुछ सालों से इंसानी जौक को गंभीर सियासी, आर्थिक, समाजी समस्याओं, सवालों और मुद्दों से उलट हल्की-फुल्की अराजनैतिक खबरों का पर्याय बनाने की साजिश मुसलसल जारी है.
दरअसल, अवाम से जुड़े हुये बुनियादी सवाल और समाचार फिजा में एक सियासी सिफर पैदा करते हैं. लिहाजा, अवाम का ध्यान ऐसे मुद्दों से हटाने के लिये उन्हें गैर जरूरी मुद्दों में जान-बूझकर, सोचे समझे तरीके से उल्झा दिया जाता है. इन गैर जरूरी मुद्दों को समाचार चैनल द्वारा इस तरह से पेश किया जाता है. मानो यही वास्तविक यथार्थ हो. समाचार चैनलों की यदि पड़ताल करें तो यह अहसास साफ-साफ हो जाता है कि वे किसी लोक हित से प्रेरित होकर इस क्षेत्र में नहीं आये हैं बल्कि अपने आका और देश-विलायती निवेशकों के हित और उन्हें ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाके देना ही उनका असल मकसद है. पूंजीवाद मे मीडिया ये काम शुरू से ही करता रहा है. जाहिर है, समाचार चैनल अपने दर्शकों को नागरिक नहीं बल्कि उपभोक्ता मानकर बर्ताव करते हैं. जबकि नागरिक और उपभोक्ता में बड़ा फर्क होता है और उनकी सूचना जरूरतें भी अलहदा होती हैं. असल में चैनलों को नागरिक नहीं कंज्यूमर चाहिये जिन्हें ज्यादा से ज्यादा बटोरकर अपने विज्ञापन दाताओं को बेच सकें. यही वजह है कि आज समाचार चैनलों के बीच मुकाबला कार्यक्रमों की गुणवत्ता और उनके स्तर को लेकर नहीं है बल्कि अधिक से अधिक दर्शक बटोरने का है. असल में बाजार ही वह अहम वजह है जिसके चलते चैनलों में पत्रकारीय उसूलों और स्थापित मान्यताओं के बरखिलाफ समाचार गढ़ने में भी हिचक नहीं रह गई है. समाचार चैनलों के कार्पोरेटीकरण की प्रक्रिया ने उस संपादकीय दिमाग और हिम्मत को घुटने टेकने के लिये मजबूर कर दिया है जो सत्ता के आगे कभी खंब ठोके खड़ी रहती थी.
पसमंजर यह है कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर पूंजीवाद का प्रभाव साफ देखा जा रहा है. हमारे समय में पूंजीवाद ने मनुष्य की संवेदनाओं व सूचनाओं को कमोडिटी में रूपांतरित कर दिया है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिये समाचार और सूचनायें सिर्फ कमोडिटी हैं जिसे बेचकर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है. अब मीडिया समाज की नियति तय नहीं कर रहा है बल्कि इसे बाजार तय करता है. और ये बाजार ही है जो सारी गड़बड़ियां पैदा कर रहा है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पहले वाले लोककल्याणकारी चेहरे की चमक धूमिल होती जा रही है. जिस मीडिया की तामीर अवाम को शिक्षित करना. उसमें समाजी, सियासी, बेदारी पैदा करने के लिये हुई थी. वह अवाम को सही रास्ते से भटकाकर उसे गुमराह करने में लगा हुआ है. टी.वी और अवाम के बीच पहले वाला संप्रेषणीय व स्पर्शणीय संबंधा न के बराबर रह गया है. मीडिया का दायित्व लोगों को मनोरंजन व खबर पहुंचाना ही नहीं होता बल्कि उन्हें विवेधात्मक, विवेकात्मक व विवेचनात्मक चेतना से भी समृध्द करना होता है. यही नहीं मीडिया का उत्तरदायित्व महज कार्यक्रमों का प्रसारण करना भी नहीं है बल्कि इससे कहीं अधिाक उसकी समाज के जानिब जबावदेही है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया को जनता के हितों और अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से समझना चाहिये. वह कंटेट के सिलेक्शन से पहले यह देखे कि वह समय सापेक्ष है या नहीं. जिस कंटेट को चैनल पर अहमियत से पेश किया जा रहा है उससे बेश्तर अवाम के हित जुड़ते हैं या नहीं.
बहरहाल, इलेक्ट्रोनिक मीडिया को ऐसी सूचनाओं को तरजीह देना चाहिये जो विकास का पैगाम तथा विकास पध्दतियों की जानकारी समाज के हर तबके तक, खासकर वंचित, कमजोर और हाशिये से नीचे के वर्ग तक पहुंचाये. टेलिविजन पत्रकारिता का मकसद टीआरपी रेटिंग और कमाई में अव्वल रहने के अलावा सामाजिक भेदभाव और सामाजिक तनाव कम कर आम जन को विकास की प्रक्रिया में स्वयं भाग लेने के लिये प्रेरित करना भी होना चाहिये. यही नहीं मीडिया द्वारा लक्षित समाज को सार्थक रूप से सूचना संपन्न बनाने के लिये गंभीर विचार-विमर्श करना चाहिये. जो अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय तथा स्थानीय स्तर पर आम जनों की जिंदगी को प्रभावित करे. टेलिविजन पत्रकारिता साम्राज्यवादी पूंजी का खिलौना न बनकर समाज और मुल्क के सामने एक बड़ी मिसाल सामने रख सकती है. जनसंख्या नियंत्रण, निरक्षरता उन्मूलन, महिला सशक्तीकरण, पोषाहार कार्यक्रम और सभी तरह के भेदभाव, वैचारिक पिछड़ेपन तथा अंधाविश्वासों कर्मकाण्डों, सामंती प्रथाओं, धार्मिक संकीर्णताओं, जातिगत संस्कारों के खिलाफ मुहिम छेड़कर मीडिया अपनी भूमिका बेहतर से निभा सकता है. कुल मिलाकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया उपभोक्तावादी बाजार का औजार भी बन सकता है और सामाजिक विकास का भी. मीडिया का सामाजिक विकास के सशक्त औजार के रूप में इस्तेमाल तभी हो सकता है जब कैमरे को एक्टीविस्ट वैपन (कर्मठ हथियार) के रूप में इस्तेमाल किया जाये और वह हजारों लोगों की आवाज और चेहरा बने.

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