Tuesday, December 7, 2010

इक़बाल का रूहानी सफ़र
राजकिशोर



यह इक़बाल की नहीं, हमारी बदकिस्मती है कि उनके जैसे महान और विचारक कवि को स्वतंत्र भारत में वह जगह नहीं मिल पाई जिसके वे लायक थे। अनेक जानकार लोगों ने कहा है कि ऊँचाई और व्यापकता के लिहाज से इक़बाल रवींद्रनाथ ठाकुर की टक्कर के कवि हैं। इसकी गवाही के रूप में बाज दफा यह दुहाराया जाता है कि ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा साहित्य के क्षेत्र में रवींद्र के अलावा इक़बाल को ही ‘सर’ की उपाधि प्रदान की गई। इस तरह की समानताओं को साहित्यिक मूल्यांकन की कसौटी नहीं बनाया जा सकता। साहित्य को अपनी कसौटी खुद होना चाहिए। इस कसौटी पर इक़बाल को बीसवीं शताब्दी में भारत उपमहादेश का एकमात्र दार्शनिक कवि कहा जा सकता है। वे दर्शन की भाषा में ही सोचते थे और दर्शन की भाषा में ही अपने को व्यक्त करते थे। लेकिन उनका दर्शन समाज से कटा हुआ नहीं था। व्यक्ति और कौम, दोनों के सरोकार उनके हृदय को लगातार बींधते रहे। बेशक उन्होंने राजनीति में भी हिस्सा लिया, परंतु यह उसी व्यापक संवेदना का एक आयाम था जो उनकी आत्मा को हमेशा बेचैन रखती थी। इक़बाल ने इश्क करने वालों के लिए इन दो शब्दों का साथ-साथ और बराबर प्रयोग किया है – परिताप और उत्कंठा। इक़बाल के अपने व्यक्तित्व में परिताप कौम के पतन का था और उत्कंठा सर्जनात्मक उन्नयन की। खूबी यह थी कि इनमें कोई द्वंद्व या टकराव नहीं था, क्योंकि सर्जनात्मक उन्नयन के बिना कोई भी कौम न तो अपनी खुदी के साथ जीवित रह सकती है और न अपना चौतरफा विकास कर सकती है। जो बात कौम पर लागू होती है, वही व्यक्ति के लिए भी मौजू है।

इक़बाल की ‘तराना-ए-हिन्दी’ शीर्षक वाली गजल हमारे देश में लगभग राष्ट्रगीत का दर्जा रखती है। एक शेर ( ऐ आबे-रोदे-गंगा! वो दिन है याद तुझको, उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा) को छोड़ कर, क्योंकि यह तथ्य विवादास्पद है, इस अद्भुत गजल को राष्ट्रगीत के रूप में अंगीकार कर लिया गया होता, तो कई दृष्टियों से बहुत बेहतर होता। जनमनगण और वंदे मातरम् की तुलना में यह गजल लोगों की समझ में ज्यादा आती है और इसमें प्रेरणा का तत्व भी काफी है। मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा – यह शेर सांप्रदायिकता के प्रतिरोध के दौरान पिछले बीस सालों में पता नहीं कितनी बार दुहराया गया है। लेकिन सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा तो अपने लिखे जाने के समय से ही हम सब की जबान पर चढ़ा हुआ है। महात्मा गांधी ने लिखा है कि यर्वदा जेल में उन्होंने इस गीत को दर्जनों बार गया था।


1984 में जब भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूछा कि अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखाई दे रहा है, तो राकेश की जबान पर ‘तराना-ए-हिंद’ का यही मिसरा आया था – सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा। यह बात सच्ची नहीं लगती कि अंतरिक्ष से भारत ही धरती का सबसे सुंदर हिस्सा दिखाई पड़ता होगा। किसी भी अन्य देश का अंतरिक्ष यात्री अपने मुल्क के बारे में यही कहता। लेकिन तथ्य यह भी है कि हम जहां भी जाते हैं, अपनी राष्ट्रीयता अपने साथ ले जाते हैं, क्योंकि इससे बृहत कोई सक्रिय राजनीतिक इकाई हमने बनाई नहीं है। इक़बाल इसी राष्ट्रीयता या कौमियत के सबसे बड़े दार्शनिक कवि थे।



कौमियत में एक बीमारी का तत्व भी होता है। यह बीमारी है अत्यधिक आत्मप्रशंसा की। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान भारत के लोग अपने देश की महिमा से मत्त थे। जिन मुट्ठी भर भारतीयों ने भारत के गौरव गान के साथ-साथ उसकी कमजोरियों और विकृतियों पर अपनी दर्दमंदी प्रगट की, उनमें तीन नाम तुरंत याद आते हैं – महात्मा गांधी, इक़बाल और रवींद्रनाथ ठाकुर। सारे जहाँ से अच्छा गा कर या सुन कर जो आह्लाद से भर उठते हैं, उन्हें इक़बाल की इन पंक्तियों पर गौर करना चाहिए –


वतन की फ़िक्र कर नादाँ, मुसीबत आने वाली है
तेरी बरबादियों के मश्वरे हैं आसमानों में
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में

इक़बाल के देशप्रेम में सिर्फ राजनीतिक स्वाधीनता की ख्वाहिश नहीं थी। वे हिंदुस्तान को एक महान देश के रूप में उभरते हुए देखना चाहते थे। इसी से उनमें यह कहने की हिम्मत आई –
सच कह दूँ ऐ बिरहमन, गर तू बुरा न माने
तेरे सनमकदों के बुत हो गए पुराने
एक पूर्ण देशभक्त ही किसानों की दुर्दशा देख कर गुस्से में यह कह सकता था –
जिस खेत में दहकाँ को मयस्सर नहीं रोटी
उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो
इसी तरह, इक़बाल मजदूरों का आह्वान करते हैं –
उठ कि अब बज्मे-जहाँ का और ही अंदाज़ है
मशरिक़ो-मग़रिब में तेरे दौर का आग़ज है

हमारे राष्ट्रीय चेतन और अवचेतन में इक़बाल का नाम एक ऐसी कमजोरी के साथ जुड़ा हुआ है जिसने इस महादेश के दो टुकड़े कर दिए। इक़बाल को पाकिस्तान आंदोलन के जनक के रूप में जाना जाता है। लेकिन इक़बाल का पाकिस्तान क्या वही पाकिस्तान था जिसकी वकालत मुहम्मद अली जिन्ना कर रहे थे? जिन्ना के लिए पाकिस्तान महज एक राजनीतिक इकाई था। इसीलिए वे पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में 11 अगस्त 1947 को संविधान सभा में यह घोषणा कर सके कि नए राष्ट्र पाकिस्तान में न कोई हिन्दू होगा और न मुसलमान। सभी पाकिस्तानी होंगे और राज्य सभी धर्मावलम्बियों से समान व्यवहार करेगा। यह एक सुघड़, लेकिन राजनीतिक वक्तव्य था। इसके विपरीत, इक़बाल को पाकिस्तान इसलिए चाहिए था कि वहां इस्लाम के धार्मिक सिंद्धांतों की नींव पर एक आध्यात्मिक देश बनाने का प्रयोग किया जाए। लगभग वैसे ही, जैसे गांधी जी अपने सपनों के भारत को राम राज्य कहते थे। यही वजह है कि जहां जिन्ना को आकार में बड़ा से बड़ा पाकिस्तान चाहिए था और जब अंग्रेजी हुकूमत ने भारत और पाकिस्तान की सीमाएं तय कर दीं, तो जिन्ना ने बड़ी पीड़ा के साथ कहा कि हमें एक कटा-कुतरा पाकिस्तान मिला है, वहीं इक़बाल के लिए पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सरहदी सूबा, सिंध और बलूचिस्तान का एकीकरण कर ‘पश्चिमोत्तर इंडियन मुस्लिम राज्य का निर्माण’ ही काफी था। यहां ‘इंडियन’ शब्द को रेखांकित करना जरूरी है। इसमें यह संकेत निहित है कि इक़बाल के सपनों का पाकिस्तान बृहत्तर भारत में भी अस्तित्वमान हो सकता था। इसमें तो कोई शक ही नहीं कि इक़बाल और जिन्ना आज के पाकिस्तान को देख पाते, तो दोनों ही अपना-अपना सिर पीट लेते।

इक़बाल जिस पाए के दार्शनिक, विचारक और कवि थे, उसके मद्दे-नजर कितना अच्छा होता कि वे अखंड भारत के लिए काम करते और उसके मूलभूत वैचारिक आधार की रूपरेखा तैयार करते। उन्होंने उस समय के किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में संसार के सभी धर्मों और दार्शनिक धाराओं का सबसे ज्यादा अध्ययन किया था। जैसे महात्मा गांधी ने एक ऐसा दर्शन दिया जो दुनिया के हर हिस्से के लिए समान रूप से ग्रहणीय है, वैसे ही इक़बाल भी एक नए विश्व धर्म की नींव रख सकते थे। भारत और दुनिया को यह उनका बहुत बड़ा अवदान होता। लेकिन इक़बाल इस्लाम से इतने सम्मोहित थे कि उसके बाहर किसी आदर्श जीवन व्यवस्था के बारे में वे कल्पना तक नहीं कर सके। लेकिन यह कोई ऐसी बात नहीं है जिससे उन्हें कोसा जाए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इक़बाल बुनियादी रूप से आध्यात्मिक व्यक्ति थे और अगर इस्लाम में ही उन्हें दुनिया की मुक्ति दिखाई दी, तो यह उनके रूहानी विकास का एक स्वाभाविक नतीजा था। लेकिन इस्लाम की उनकी अवधारणा में किसी तरह की कट्टरता नहीं थी। वे दुनिया के सभी अच्छे विचारों का स्वागत और सम्मान करते थे। इक़बाल अपनी शायरी में बार-बार हजरत मुहम्मद का नाम लेते हैं और कुरआन को एकमात्र मार्गदर्शक पुस्तक मानते हैं, पर उनके प्रतिपादनों पर बारीकी से गौर किया जाए, तो उनका खुदा उनकी अपनी सृजनात्मकता का उत्कर्ष है और उनकी खुदी में इतनी जबरदस्त संभावना है कि खुदा भी उसके सामने मजबूर हो जाए –
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
दरअसल, इक़बाल का अपना दर्शन इस खुदी का ही दर्शन है, जिसका विस्तृत प्रतिपादन उनकी प्रसिद्ध कविता पुस्तक ‘अस्रारे-ख़ुदी’ में मिलता है।
इस्लाम के प्रति प्रतिबद्धता, किन्तु सभी विचारों और मतों के प्रति संवेदनशीलता तथा जागरूकता – इक़बाल के इस उदार और ग्रणहशील व्यक्तित्व की सबसे विस्तृत और सुंदर झांकी मिलती है उनके फारसी महाकाव्य ‘जावेदनामा’ में। यह एक अद्भुत पुस्तक है। इसके जोड़ की कोई भी अन्य रचना भारतीय भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। यह एक तरह से दांते की प्रसिद्ध कृति ‘डिवाइन कॉमेडी’ का पूरब की ओर से रचनात्मक जवाब है। ‘डिवाइन कॉमेडी’ में कवि की आत्मा नरक, शुद्धिस्थान और स्वर्ग की अवस्थाओं से गुजरती है। इस प्रक्रिया में दांते ने अन्य धर्मावलंबियों की तीखी आलोचना की है और ईसाइयत को मुक्ति का मार्ग बतलाया है। इस आलोचना में कई प्रकार के पूर्वाग्रह दिखाई पड़ते हैं। जैसे हजरत मुहम्मद और इस्लाम के कई अन्य नायकों को, यहां तक कि कुछ प्रोटेस्टेन्ट धर्मावलंबियों को भी, नरक भोगते हुए दिखाया गया है। कहा जा सकता है कि यह चौदहवीं सदी के कैथोलिक दिमाग की सीमा थी। ‘जावेदनामा’ में भी इक़बाल की आत्मा तीनों लोकों की यात्रा करती है, पर इसमें किसी किस्म की पक्षधरता नहीं है। छन्द-दर-छंद एक दार्शनिक की विशदता और कवि की उदारता के दर्शन होते हैं। इस्लाम की रूढ़ मान्यता के अनुसार, भर्तृहरि स्वर्ग के अधिकारी नहीं हो सकते, पर इक़बाल से उनकी मुलाकात स्वर्ग में ही होती है। साथ ही, विश्वामित्र, जरतुश्त, गौतम बुद्ध, टॉलस्टॉय, ग़ालिब आदि को भी सम्मानपूर्ण स्थान दिया गया है। यदि किसी ईसाई संत को भी इसी पांत में बैठाया गया होता, तो ‘जावेदनामा’ कुछ और पूर्ण हो जाता, हालांकि टॉल्सटॉय को शामिल करना इस कमी की थोड़ा भरपाई कर देता है।
गौर करने की बात यह है कि अपनी इस ऊर्ध्व यात्रा के दौरान इक़बाल देखते क्या हैं, पूछते क्या हैं और उन्हें किस तरह के उत्तर मिलते हैं, क्योंकि इन्हीं में उच्चतर जीवन दर्शन की उनकी खोज के सूत्र निहित हैं। यह सफर इक़बाल अकेले नहीं करते, उनके मार्गदर्शक के रूप में तेरहवीं सदी के महान संत और फारसी कवि मौलाना जलालुद्दीन रूमी उनके साथ हैं। रूमी ही इक़बाल को ज़िदारूद नाम देते हैं, जिसका मतलब है जीवंत धारा या प्रवाह। जाहिर है, इक़बाल की आत्मा सतत सृजनशीलता का प्रतिबिंब है, जो उनकी नजर में मानव जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। इसलिए इक़बाल के लिए इससे अधिक उपयुक्त नाम कुछ और नहीं हो सकता था। संत रूमी ज़िदारूद को चंद्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, शनि आदि के आसमान में ले जाते हैं और नरक तथा स्वर्ग की यात्रा भी कराते हैं। इस यात्रा के दौरान ज़िदारूद की भेंट अनेक महापुरुषों और कुछ अत्याचारियों से होती है। अंत में वह अपने को ईश्वर के सामने पाता है और स्वर्गीय वाणी के प्रसाद से कृतकार्य होता है। लेकिन यह सिर्फ आध्यात्मिक सफर नहीं है। कवि को धरती के सवाल, खासकर हिंदुस्तान और पूरब की दुरवस्था के सवाल, पश्चिम की भौतिकवादिता और धर्मविमुखता के सवाल भी समान उत्कटता से परेशान करते हैं। इस तरह, ‘जावेदनामा’ पृथ्वी और आसमान, जीवन और जगत, शरीर और आत्मा, दोनों की मुकम्मिल किताब बन जाती है।
यहां कुछ शब्द इस फारसी महाकाव्य के हिन्दी अनुवाद के बारे में। यह अनुवाद मुहम्मद शीस ख़ान ने किया है और पूरी तल्लीनता के साथ किया है। खान ने अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध इलाहाबाद डिग्री कॉलेज में दो साल तक अध्यापन किया और सिविल सर्विसेज परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर इंडियन रेलवे अकाउंट्स सर्विसेज के लिए चुन लिए गए। वर्धा के अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का वित्त अधिकारी बनने के पहले वे रेलवे बोर्ड में अपर सदस्य, बजट थे। लेकिन यह सब उनका बाह्य परिचय है। असल में तो उनका मन दर्शन, कविता, इतिहास और, सबसे ज्यादा, इक़बाल में रमता है। इक़बाल उनकी चेतना में महानायक की तरह समाए हुए हैं । ज्ञान, प्रतिभा और श्रम की त्रिवेणी ने ‘जावेदनामा’ के इस अनुवाद को अपने आपमें एक श्रेष्ठ रचनात्मक उद्यम बना दिया है, जिसे सिर्फ भाषा और शैली का आनंद लेने के लिए भी पढ़ा जा सकता है। ‘जावेदनामा’ की हर पंक्ति गवाह है कि हिन्दी और संस्कृत पर खान की जबरदस्त रचनात्मक पकड़ है। तभी वे ऐसे अनेक नए शब्द गढ़ पाए हैं, जिसके बिना इक़बाल के आशय तक पहुंचना मुश्किल हो जाता।
जावेदनामा के इस अनुवाद की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह छंद में न होते हुए भी छंद की लयबद्धता का सुख देता है। हिन्दी में इस तरह के काव्यानुवाद का कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। हिन्दी को मात्रिक छंद और अंत्यानुप्रास पसंद हैं। संस्कृत के वार्णिक छंदों का उपयोग आधुनिक काल में हरिऔध, दिनकर और शायद त्रिलोचन ने भी किया है। अनुप्रास के बिना और मात्राओं या वर्णों की संख्या पर नजर रखे बगैर इस लय को कायम रखना एक दुर्लभ उपलब्धि है। एलिएट की मान्यता है कि कविता को गद्य की तरह साफ होना चाहिए। ‘जावेदनामा’ की काव्य भाषा में गद्य का यही चमत्कार दिखाई देता है। संस्कृत शब्दों की बहुलता है, पर बीच-बीच में उर्दू के या तद्भव शब्द आ कर एक नया जादू पैदा कर देते हैं। इस अनुवाद की एक खूबी फुटनोटों की बहुलता भी है। अनुवादक ने शोध और श्रम से लगभग हर अपरिचित शब्द का अर्थ और प्रत्येक नाम का परिचय दिया है। इससे न केवल ‘जावेदनामा’ के विविध संदर्भों को समझने में मदद मिलती है, बल्कि इस्लाम की अपनी शब्दावली का ज्ञान भी होता है।


जावेदनामा की शुरुआत होती है ईश्वर से ज़िदारूद के इस सवाल से कि –

आदमी इस सतरंगी दुनिया में हर पल
वीणा की तरह करता रहता है आर्तनाद
जलाती रहती है उसे सहचर की कामना
सिखाती रहती है ढाढ़स के लिए उसे विलापगान
लेकिन यह दुनिया कि है नीर-मिट्टी से
कैसे कहें कि रखती है यह भी एक दिल
सागर, वन, पर्वत, तृण सब मूक बधिर
नभ, चंद्र और सूर्य सब मूक और बधिर
है आसमान पर तारों का एक हुजूम
पर है एक से अधिक तनहा दूसरा तारा
हर एक है हमारी तरह निरुपाय, बेचारा
और परिसर में है नीले नभ के आवारा
कारवाँ ने सफ़र का कोई सामाँ किया नहीं
यह दुनिया क्या शिकार और हम शिकारी हैं ?
भुला दिया है जिन्हें क्या हम ऐसे क़ैदी हैं ?
रो-रो कर याचना की पर आया नहीं जवाब
बेटे का आदम के है कहाँ हमराज़ ?
उत्तर में आकाशीय प्रस्तावना सुनाई देती है, जिसमें आकाश सृष्टि के पहले दिन धरती की भर्त्सना करता है तो फरिश्ते गीत गाते हैं कि एक दिन मुट्ठी भर मिट्टी की चमक फरिश्तों से भी ज्यादा बढ़ जाएगी और धरती आकाश बन जाएगी। तभी रूमी की आत्मा प्रगट होती है, जिसके संसर्ग से ज़िदारूद एक हसीन गजल गाने लगता है –

होंठ खोल कि मिसरी की बहुत है मुझे इच्छा
चेहरा दिखा कि उद्यान व उपवन की है मुझे इच्छा
एक हाथ में मधु का प्याला एक हाथ में प्रिया की वेणी
सरे-मैदान नृत्य करने की है मेरी इच्छा
रूमी और ज़िदारूद के बीच लंबी बातचीत होती है, जिसके बाद ज़र्वान यानी काल का फरिश्ता ऊर्ध्वलोक की यात्रा के लिए उन्हें ले जाता है। सबसे पहले वे चंद्रमा के आकाश में पहुंचते हैं, जिसकी एक गुफा में एकांतवासी हिंदुस्तानी ऋषि से उनकी मुलाकात होती है। यह वही ऋषि है, जिसे लोग जहान दोस्त यानी विश्वामित्र कहते हैं। हिन्दू ऋषि गुर की नौ बातें बताता है। इनमें एक बात यह है कि जीवंत है आस्तिक पुरुष और स्वयं से युद्धरत; झपटता है स्वयं पर वह जैसे चीता हिरन पर। अपने पर झपटने का यह जौहर पूरी पुस्तक में बार-बार प्रस्तावित है, जिसका अर्थ यह है कि आत्मा के इर्द-गिर्द जमी धूल को साफ करने के बाद ही हम ईश्वर तुल्य बन सकते हैं यानी अस्तित्व के सार में समाहित हो सकते हैं। गुर की दूसरी बात यह है कि मूर्ति के समक्ष बैठा हुआ जाग्रत-हृदय नास्तिक का’बा के अंदर सोए पड़े नास्तिक से बेहतर है। विश्वामित्र ज़िदारूद को तसल्ली देते हुए यह भी बताते हैं कि यह प्राची के उदय की घड़ी है और उसके पहलू में एक अभिनव सूर्य है। यहीं गौतम बुद्ध की शिक्षाएं एक शिला पर उत्कीर्ण हैं। एक अंश देखिए –
पुरानी मदिरा और युवा प्रियतम कोई चीज़ नहीं
ज्ञानियों के समक्ष स्वर्ग की अप्सरा कोई चीज़ नहीं
समझता है जिसे दृढ़ व चिरस्थायी चीज़ सब जाती है गुज़र
पर्वत, वन, धरती, सागर और तट कोई चीज़ नहीं
प्रतीचियों का विज्ञान और दर्शन प्राचियों का
सब हैं मूर्ति-गृह और मूर्तियों की परिक्रमा कोई चीज़ नहीं
कर विचार स्वयं पर न गुज़र इस कानन से डरता हुआ
तू है विद्यमान दोनों लोकों का अस्तित्व कोई तीज़ नहीं

एक दूसरी शिला पर ज़रतुश्त के वचन उत्कीर्ण हैं, जो निजी जीवन के रू-ब-रू सामुदायिक जीवन के महत्व पर जोर देते हैं –
नहीं चाहती मेरी आँख अकेले दीदार ईश्वर का
महफ़िल के बिना देखना सौंदर्य है ख़ता
एकांत है क्या? वेदना, प रिताप और उत्कंठा
समुदाय है ईश्वर दर्शन और एकांत है गवेषणा
एकांत में प्रेम है ईश्वर से वार्तालाप
जब वह आता है समुदाय में वह होता है सम्राट
बुध ग्रह के आकाश में ज़िदारूद की भेंट जमालुद्दीन अफ़ग़नी (अफ़गानिस्तान के संत चिंतक) और सईद सलीम पाशा (तुर्की के राजनेता) से होती है। अफ़गानी अन्य विषयों के अलावा साम्यवाद और साम्राज्यवाद पर विचार करते हुए कई दिलचस्प बातें कहते हैं। साम्राज्यवाद उनकी नजर में शरीर का मोटापन है, जिसका ज्योतिहीन वक्ष हृदय से खाली है। वे ‘पूंजी’ के लेखक कार्ल मार्क्स को एक ऐसा पैगंबर बताते हैं जिसके पास खुदा का कोई संदेश नहीं था। मार्क्स का दिल आस्तिक था, पर उसका दिमाग नास्तिक था। साम्यवाद की आधारशिला उदर की समानता है, जबकि भ्रातृभाव का निवास दिल में है। सईद हलीम पाशा पूर्व और पश्चिम की तुलना करते हुए पूर्व को प्रेम का प्रसारक और पश्चिम को बुद्धि का उपासक बताते हैं। अकेले-अकेले दोनों किसी बड़े नतीजे तक नहीं पहुंच सकते। बुद्धि से प्रेम-कर्म का आधार दृढ़ होता है, जबकि प्रेम बुद्धि का सहचर होने पर एक नए जगत का अभिकल्पक हो जाता है। उल्लेखनीय है कि उस दौर में भारत के सभी बड़े चिंतक हृदयहीन और लालची पश्चिम से मुठभेड़ कर रहे थे। यह जरूर आश्चर्यजनक है कि सोवियत क्रांति के बाद जब दुनिया भर में इस प्रयोग को सराहना की नजर से देखा जा रहा था, तब अफ़ग़ानी ने रूसियों को यह संदेश दिया –
ऐ कि तू चाहता है एक नवीन व्यवस्था संसार में
क्या ढूँढ़ा है कोई सुदृढ़ आधार उसके लिए तूने?
इसके बाद अफ़ग़ानी क़ुरआनी जगत के मूलाधारों को स्पष्ट करते हैं और मुसलमानों को झकझोरते हैं कि उनके दिल में अब पैगंबर का वास नहीं है – मुसलमान ने क़ुरआन का खाया नहीं है फल, प्याले में उसके देखी मैंने मदिरा न तलछट। इस्लाम में राजतंत्र के लिए कोई गुंजायश नहीं है, पर हजरत साहब के गुजरते ही मुसलमानों ने राजतंत्र कायम करना शुरू कर दिया। इस हिस्से में इक़बाल इस्लाम की ऐसी व्याख्या करते हैं जिसकी नींव पर प्रेम, समानता और न्याय पर आधारित दुनिया का निर्माण किया जा सकता है। क़ुरआन पर आधारित दुनिया हुकूमते-इलाही यानी ईश्वरीय शासन है, जहां न कोई शासक है न कोई शासित। जमीन किसी एक की नहीं, बल्कि ईश्वर की है यानी इस पर सभी का साझा हक है। यह बात मंगल ग्रह के मर्गदीन शहर की व्यवस्था के वर्णन से और अधिक साफ होती है। अपनी विस्तृत और शोधपूर्ण भूमिका में मुहम्मद शीस खान बताते हैं, ‘मर्ग़दीन शहर वास्तव में इक़बाल के आदर्श इस्लामी राज्य एवं इस्लामी समाज का प्रतीक है। दूसरे शब्दों में यह उनका आदर्श कल्पना लोक या यूटोपिया है।’ इस कल्पना लोक का खाका यों खींचा गया है –
मशीनों का भूत उनकी प्रकृति पर हावी नहीं है
उसके धुओं से तिमिरमय आकाश नहीं है
किसान है मेहनती, दीपक उसका है प्रज्वलित
ज़मीनदारों की लूटमार से वह है सुरक्षित
उसकी काश्तकारी में नहीं हैं झगड़े नहरों के
कोई और नहीं है साझीदार उसकी फ़सलों में
न लश्कर है न फ़ौज है उस जगत में
कोई रोजी नहीं कमाता है रक्तपात से
लेखनी नहीं पाती है ख्याति मर्ग़दीन में
अपलेख एवं शिल्प से मिथ्या प्रचार के
न बेरोज़गारों का शोर है बाज़ारों में वहाँ
न कानों को कष्ट देती हैं भिक्षुओं की चीखें वहाँ

शनि ग्रह के आकाश में अपने देश और धार्मिक समुदाय से विश्वासघात करने वाली उन अधम आत्माओं का निवास है, जिन्हें नरक ने भी स्वीकार नहीं किया। इन्हीं में बंगाल के मीर जाफ़र और दकन के मीर सादिक की आत्माएं हैं। इन्होंने अपने देश और अपने धर्म, दोनों से विश्वासघात कर फिरंगी हमलावरों की मदद की थी। इनकी नौकाएं रुधिर के सागर में डूब-उतरा रही हैं। अब रूमी और ज़िदारूद आकाशों से परे जा रहे हैं। स्वर्ग में दाखिल होने से पहले रूमी जर्मन दार्शनिक नीत्से की खूबियों पर गौर फरमाते हैं और उसे ब्रह्मलीन बताते हैं, जिसे यूरोप समझ नहीं पाया। स्वर्ग में कई अन्य महापुरुषों के अलावा भर्तृहरि और टीपू सुलतान की आत्माओं से साक्षात्कार होता है। टीपू का देशभक्तिपूर्ण आह्वान पढ़ते ही बनता है। यह देख कर जरूर कष्ट होता है कि नृशंसता की पराकाष्ठा के प्रतीक नादिरशाह और मुहम्मद शाह अब्दाली भी यहीं विराजमान हैं। शायद इसलिए कि इन दोनों ने इस्लामी दुनिया की कुछ सेवा की थी। लेकिन खून से रंगे हुए उनके हाथ उनके सारे पुण्यों पर भारी पड़ते हैं, इस सीधी-सी बात की उपेक्षा इक़बाल जैसे दार्शनिक और कवि कैसे कर पाए?
यह कम दिलचस्प नहीं है कि उर्दू-फारसी के महाकवि ग़ालिब, ईरानी कवयित्री क़ुर्रतुलऐन ताहिरा और सूफी मंसूर हल्लाज की आत्माओं ने स्वर्ग में रहने की अपेक्षा सतत भ्रमण करना पसंद किया। कवि के यह पूछने पर कि आप लोगों ने जन्नत से दूर रहना क्यों पसंद किया, मंसूर ने जवाब दिया कि स्वतंत्र व्यक्ति जन्नत की सीमाओं में कैद नहीं रह सकता। इस सिलसिले में मिर्जा ग़ालिब की यह पंक्ति उद्धृत नहीं की गई है कि हमको मालूम है जन्नत की हकीक़त लेकिन, दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है, नहीं तो बड़ा मजा आता। पर इससे उस विचार प्रवाह में बाधा आ जाती जिसे इक़बाल ने बहुत मेहनत से रवां किया है। आगे का मुख्तसर किस्सा यह है कि ज़िंदारूद को ईश्वर के दीदार होते हैं और उसकी सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है। महाकाव्य की अंतिम पंक्तियां दुनिया नामक सराय में आने वाले सभी मुसाफिरों के लिए एक सयाना संदेश हैं –
ओछेपन से तेरे बदनाम हो गई मधुशाला
प्याला उठा, होशियारी से पी और चला जा

बेशक ‘जावेदनामा’ का दायरा बहुत विस्तृत है। इसमें ईश्वर की महिमा है, इश्क हकीकी के जलवे हैं, पश्चिम की समीक्षा है, हिंदुस्तान के लिए संदेश है, धर्मराज्य का आख्यान है, बादशाहत की भर्त्सना है, राष्ट्रीयता का गुणगान और विश्वदृष्टि का प्रतिपादन है, जीवन का लक्ष्य है, दौलत की हविस की आलोचना है, व्यक्तिवाद की निंदा है, मिल्लत पर जोर है, नारीवाद की मौलिक परिभाषा है, विज्ञान की महत्ता और उसकी सीमा है तथा और भी बहुत कुछ है। लेकिन नीरसता कहीं भी नहीं है। रामचरितमानस की तरह ‘जावेदनामा’ की सरिता भी पहाड़ों और घाटियों से गुजरते हुए कल-कल बहती जाती है। इक़बाल ने अपने इस अनोखे महाकाव्य का नाम अपने बेटे जावेद के नाम पर रखा है। दूसरे शब्दों में, यह जावेद के लिए इक़बाल की विरासत है। लेकिन इक़बाल की नजर इतनी तंग नहीं हो सकती। असल में तो यह जावेद के बहाने हम सब की विरासत है।

Wednesday, August 4, 2010

BBC DOC

जाति, गोत्र, इज़्ज़त के लिए....

खाप के कोप का शिकार परिवार

खाप के कोप का शिकार परिवार

श्याम सुंदर
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

रविंद्र और शिल्पा को शादी के समय पता नहीं था कि उनके गोत्र एक हैं.

खाप पंचायतों में लड़के लड़कियों के ख़िलाफ़ फ़ैसले तो होते रहे हैं लेकिन रिसाल सिंह उन लोगों में से हैं जिनके फ़ैसले का ख़ामियाजा अब उनके परिवार को ही भुगतना पड़ रहा है.

सात साल पहले जौणदी गांव में रिसाल सिंह ने उस खाप पंचायत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिसने गोत्र विवाद को लेकर सात परिवारों को गांव से निकलने का हुक्म सुनाया था.

समय का पहिया घूमा और आज रिसाल के पोते रविंद्र सिंह और उनकी पत्नी शिल्पा की शादी को लेकर उनके पूरे परिवार को गाँव छोड़ने का दबाव झेलना पड़ रहा है.

असल मे रविंद्र जब पांच साल का था जब उसकी बुआ उसको लेकर दिल्ली के सुल्तानपुर डबास गांव ले आई थी.

अप्रैल महीने में रविंद्र की शादी हुई. शादी के कुछ महीने बाद रविंद्र अपनी पत्नी शिल्पा को लेकर अपने पुश्तैनी गांव ढराणा गए. वहां महिलाओं ने बातों बातों में शिल्पा से उसका गांव और गोत्र पूछ लिया और जैसे ही ये बात आम हुई कि शिल्पा कादियान गोत्र की है झंझट शुरु हो गया.

जब रिसाल सिंह ने साल साल पहले सात परिवारों को गांव से निकालने का फ़रमान दिया था तो आज वो अपने पोते को कैसे एक ही गोत्र में शादी की अनुमति दे सकता है
राज सिंह कादयान, खाप पंचायत सदस्य
रविन्द्र-शिल्पा और उनके परिवार की मुसीबत शुरु हो गई. ढराणा गांव मे कादियान गोत्र के लोग बहुमत में है और खाप पंचायत के नियम के हिसाब से शिल्पा इस गांव की बहू नही बन सकती थी. कादियान खाप ने पंचायत बुलाई औऱ फ़ैसला सुनाया कि अब इस परिवार के सामने दो विकल्प हैं पहला कि रविंद्र और शिल्पा की शादी तोड़ दी जाए और दूसरा ये ख़ानदान गांव छोड़ दे.

इस फ़रमान ने इस परिवार का जीना मुहाल कर दिया है. रविंद्र किसी कीमत पर शिल्पा को नही छोड़ना चाहता है. जब दोनों पर दबाव बढ़ा तो रविंद्र ने ज़हर खाकर जान देने की कोशिश की.

इस परिवार की हालत पर किसी को भी तरस आ सकता है .

इन बीते सालों के बाद आज रिसाल सिंह का परिवार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है.

खाप पंचायत के राज सिंह कादयान कहते हैं कि जब रिसाल सिंह ने सात साल पहले सात परिवारों को गांव से निकालने का फ़रमान दिया था तो आज वो अपने पोते को कैसे एक ही गोत्र में शादी की अनुमति दे सकते हैं.

रविंद्र ने पंचायत को वचन दिया है कि वो अपने पुश्तैनी गांव ढराणा में कभी क़दम नहीं रखेगा पर पंचायत अब भी अड़ी है कि रिसाल सिंह के परिवार को गांव छोड़ना ही होगा.

रिसालसिंह की तीसरी पीढ़ी यानि रविंद्र कहते हैं कि इन पंचायतों को लोगों की ज़िदंगी के फ़ैसले करने का कोई हक़ नही है. वो कहते हैं ज़माना बदल चुका है.

रविंद्र की पत्नी कहती है अगर उसे पता होता की उनकी शादी पर इतना बवाल होगा तो वो कभी ये शादी ना करती.

Wednesday, July 28, 2010

सर्व -खाप पंचायतों से निवेदन

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इतिहास के झरोंखे से देखें ,विदित होगा सर्व -खाप पंचायतों ने ना सिर्फ अपने अपने इलाकों की आतताइयों से हिफाज़त की है ,अपने सामाजिक सरोकारों को भी तरजीह दी है ।
आज के सन्दर्भ में जो सर्व खाप पंचायतें खेती किसानी की ताकत बन किसानों के हितों की हिफाज़त कर सकतीं है .किसी बेसहारा विधवा को भू -माफिया से बचा सकतीं हैं .पद दलित को सरे आम बेईज्ज़त होने से बचा सकतीं हैं गाहे बगाहे इस या उस प्रांत में कितनी ही औरतों को (ज्यादातर बेसहारा विधवाओं को ,वह किसी ज़ाबाज़ फौजी की माँ भी हो सकती है जो देश की सीमाओं पर तैनात है ) डायन घोषित कर दिया जाता है .एच आई वी एड्स ग्रस्त औरत को तिरिश्क्रित होने से बचा सकतीं है जिसे यह सौगात अमूमन अपने पति परमेश्वर से ही मिलती है ।
लेकिन राजनीति पोषित आज की जातीय पंचायते अंतर जातीय ,सजातीय ,सगोत्रीय ,सग्रामीडएक ही गाँव में विवाह जो अक्सर प्रेम विवाह होतें हैं जैसे मुद्दे पर जडवतहोकर रह गईं हैं ।
यह उनकी समाज प्रदत्त ऊर्जा का अपक्षय नहीं तो और क्या है ।
ताज़ा प्रकरण करनाल की अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश वाणी गोपाल शर्मा द्वारा सुनाये गए बहु चर्चित दोहरे ह्त्या -काण्ड (बबली -मनोज दम्पति )से तालुक रखता है ।
सगोत्रीय विवाह एक सामाजिक दायरे में अमान्य हो सकता है लेकिन किसी भी कंगारू कोर्ट को सगोत्रीय दम्पतियों की सरे आम निर्मम हत्या करने की छूट नहीं दी जा सकती .विरोध के मान्य तरीके हुक्का पानी बंद करना रहे आये हैं .फिर ह्त्या जैसा खुद -मुख्त्यारी का फैसला क्यों ?
सगोत्रीय विवाह आधुनिक भारत की एक हकीकत है इससे कोई इनकार नहीं कर सकेगा भले ऐसे विवाह उत्तम संततियों के उपयुक्त विज्ञान की निगाह में ना हों .लेकिन प्रेम आदमी तौल कर नहीं करता ।"प्रेम ना बाड़ी उपजे ,प्रेम ना हाट बिकाय ....".
सच यह भी है :जान देना किसी पे लाजिम था ,ज़िन्दगी यूँ बसरनहीं होती ।
और जान लेना सरा - सर जुर्म है .अपने खुद के जायों की आदमी जान ले कैसे लेता है ?
मनो विज्ञानी इसके लिए उस प्रवृत्ति को कुसूरवार ठहरातें हैं जिसका बचपन से ही पोषण -पल्लवन किया जाता है सती मंदिरों को इसी केटेगरी में रखा जाए गा ।
विपथगामी वोट केन्द्रित राजनीति सब कुछ लील गई है .पथ-च्युत जातीय पंचायतें उसी सर्वभक्षी राजनीति की उप -शाखा हैं ।
फिलवक्त मनोज -बबली दम्पति की जांबाज़ माँ को सुरक्षा मुहैया करवाने का आदेश कोर्ट को पारित करना चाहिए माननीय मुख्य मंत्री हरियाणा सरकार न्यायाधीशा वाणी गोपाल शर्मा को भी एन एस जी सुरक्षा मुहैया करवाएं
विपथगामी सर्व -खापी पंचायतें कुछ भी करवा सकतीं हैं .यदि चन्द्र -पति की इस दौर में ह्त्या कर दी गई तो सभी औरतों का आइन्दा के लिए हौसला टूट जाएगा .बेहतर हो :दुश्मनी लाख सही ख़त्म ना कीजे रिश्ते ,दिल मिले या ना मिले हाथ मिलाते रहिये .खाप पंचायतें इस मर्म को समझें .अपने सामाजिक सरोकारों की जानिब लोटें ।
खुदा हाफ़िज़ ।
वीरुभाई .
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पंचायतों के अमानुषिक निर्णय: एक विचार

डॉ. महेश परिमल
पूरा हरियाणा दहल रहा है। हिसार के कैथल जिले के गाँव कराड़ा की एक घटना के फैसले से सभी स्तब्ध हैं। मीडिया भले ही इसे ‘ऑनर कीलिंग’ की संज्ञा दे, पर सच तो यह है कि हम कहीं न कहीं आज भी आदिम युग में जी रहे हैं। जहाँ जंगल का कानून चलता है। तीन साल बाद जब अदालत ने दोषियों को सजा सुनाई, तब लोगों ने न्याय के महत्व को समझा। न्याय पर आस्था बढ़ी। इसके बाद भी हम गर्व से नहीं कह सकते हैं कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं। दरअसल कानून के हाथ मजबूत करने वाले पाये ही खोखले होने लगे हैं। इस मुकदमे में उन पुलिस वालों पर भी कार्रवाई हुई है, जिन्होंने अपराधियों का साथ दिया या कानून की राह में बाधाएँ पैदा कीं।
प्यार हर कोई करता है। किसी का प्यार जग-जाहिर होता है, किसी का प्यार पंख लगाकर उड़ता है। प्यार के फूलों की सुगंध को फैलने से कोई रोक नहीं सकता। पर खामोश प्यार की अपनी अहमियत होती है। यह बरसों तक सुरक्षित रहता है। किसी एक के दिल में, एक उम्मीद की रोशनी की तरह। मनोज-बबली ने भी प्यार किया। अपने प्यार को एक नाम देने के लिए उन्होंने कानून का सहारा लेकर शादी भी की। उन्हें पता था कि इस शादी का परिणाम बहुत ही बुरा भी हो सकता है, इसलिए उन्होंने पुलिस सुरक्षा की माँग की। उन्हें सुरक्षा मिली, पर उस पर हावी हो गया, बाहुबलियों का बल। शादी के मात्र 23 दिन बाद ही दोनों को मौत के घाट उतार दिया गया। वजह साफ थी कि पंचायत नहीं चाहती थी कि एक गोत्र में शादी हो। यही गोत्र ही उन दोनों प्रेमियों के लिए काल बना।
पंचायतीराज का सपना क्या ऐसे ही पूरा हो सकता है। इसके पहले भी हमारे देश की पंचायतों ने कई ऐसे फैसले किए हैं, जिसे सुनकर नहीं लगता कि हमें आजाद हुए 62 वर्ष से अधिक हो चुके हैं। पंचायतों को मिले अधिकारों के ऐसे दुरुपयोग की कल्पना भला किसने की थी? सवाल यह उठता है कि क्या 62 साल बाद भी हम ऐसा कानून नहीं बना पाए, जिससे खाप पंचायत जैसे अमानुषिक निर्णय पर रोक लगाई जा सके? आज जहाँ दो बालिगों के बिना शादी के साथ-साथ रहने को कानूनी मान्यता मिल गई है और दो सजातीयों के साथ-साथ रहने की माँग की जा रही है, उस जमाने में खाप पंचायत ने जिस तरह से निर्णय दिया, उससे आदिम युग की ही याद आती है। मेरे विचार से आदिम युग में भी ऐसे निर्णय नहीं होते होंगे। फिर भला यह कौन-सा युग है?
इसके पूर्व भी इसी तरह के निर्णय ने पूरे देश को शर्मसार किया है। पंचायतें जब चाहे, बाहुबलियों के वश में होकर कठोर यातनाएँ देने वाली सजा मुकर्रर करती हैं। पंचायतों में भले ही बड़े पदों पर साधारण लोग होते हों, पर फैसले की घड़ी में आज भी वहाँ बाहुबलियों का हुक्म चलता है। अपने विवेक से निर्णय देने की प्रथा अभी नहीं रही। हमें भूलना होगा अलगू चौधरी और जुम्मन शेख को। हमें यह भी भूलना होगा कि पंचों के मुख से ईश्वर बोलता है। अब ऐसी खाला भी नहीं रही, जो अलगू चौधरी से यह कह सके, बेटा क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? उस समय ईमानदार पंचों का सबसे बड़ा गहना थी। अब ईमानदारी की बात करने का मतलब ही होता है, पुराने जमाने में जीना।

खाप पंचायत ने जिस तरह से फैसला दिया, वह हमारे देश का पहला फैसला नहीं था, इसके पहले भी देश की पंचायतों ने कई ऐसे फैसले किए हैं, जिससे इंसानियत की मौत हुई है:-
अगस्त 2000 को झज्जर के जोणधी में हुई पंचायत द्वारा एक बच्चे के मां-बाप बन चुके आशीष और दर्शना को भाईबहन बनने का तुगलकी फरमान सुना दिया गया। यह फरमान काफी विवादों में रहा। 2003 में जींद के रामगढ़ में दलित मीनाक्षी द्वारा गांव के सिख युवक से प्रेम विवाह करने पर उसे मौत का फतवा सुना दिया। अदालत की मदद से प्यार तो बरकरार रहा, लेकिन उन्हें मध्यप्रदेश में छिपकर जीवन बिताना पड़ा।
मतलौडा में 11 नवंबर 2008 को मेहर व सुमन को भी मौत के रूप में समाज के ठेकेदारों का शिकार होना पड़ा। इन दोनों ने भी पग्गड़धारियों के फैसले को मानने से साफ इंकार कर दिया।
मई 2009 को मंडी अटेली के बेगपुर में गोत्र विवाद के कारण ही 21 गांवों की महापंचायत बुलाई गई, विजय की शादी राजस्थान की राणियां की ढाणी की लड़की से हुई। खोश्य गोत्र के भारी दबाव के चलते एक परिवार का हुक्का पानी बंद कर दिया गया।
1999 में भिवानी में देशराज व निर्मला का प्रेम पंचायती लोगों को पसंद नहीं आया। पंचायती फरमान के बावजूद उन्होंने अपना प्रेम जारी रखा। इसी कारण लोगों ने दोनों को पत्थर मारकर मौत की नींद सुला दिया। अदालत ने 21 अप्रैल 2003 को दोनों पक्षों के 27 लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। हालांकि दोनों पक्षों में बाद में समझौता हो गया।
जनवरी 2003 को सफीदों के गांव के लोगों ने एक प्रेमी जोड़े को पत्थरों से कुचलकर मौत के घाट उतार दिया। इस दर्दनाक मौत के बाद गांव में कई दिन तक दहशत का माहौल बना रहा और लोग सहमे रहे।
मई 2008 को करनाल के बल्ला गांव में एक ही गोत्र में विवाह करने पर जस्सा और सुनीता को मार डाला गया। हत्यारों ने इतनी बेरहमी दिखाई कि दोनों के शव काफी देर तक गली में पड़े रहे और किसी की हिम्मत न पड़ी।
20 मार्च, 1994 को झज्जर के नया गांव में मनोज और आशा के प्रेम-प्रसंगों के चलते दोनों की जघन्य हत्या कर दी गई। आवाज उठने के बावजूद कोई कार्रवाई न की गई।
12 जुलाई 2009 को सिंघवाल की सोनिया से विवाह करने वाले मटौर के वेदपाल की पीट पीट कर हत्या कर दी गई। वेदपाल के परिवार वालों के रोष जताने पर भी पुलिस खास कार्रवाई न कर पाई।
अगस्त 2009 को रोहतक के बलहम्बा गांव में अनिल और रानी की नृशंस हत्या उनके प्रेम प्रसंगों के शक के चलते कर दी गई। दोनों परिवार रोते-बिलखते रहे लेकिन हत्यारों पर कोई कार्रवाई न हो पाई।
अगस्त 2009 को झज्जर जिले के सिवाना गांव के प्रेमी युगल संदीप और मोनिया की हत्या करके शवों को खेतों में पेड़ पर लटका दिया गया। इन नृशंस हत्याओं पर गांव के लोग कई दिन सहमे रहे।
ये कुछ उदाहरण ही हैं, जिससे पूरे देश को शर्मसार होना पड़ा है। करनाल की अदालत ने जो निर्णय सुनाया है, उससे हमें यह नहीं सोचना है कि अब देश की कानून-व्यवस्था चुस्त हो जाएगी। लोग अपराध करने से पहले सौ बार सोचेंगे। इस विपरीत अब अपराधी और भी अधिक चालाक हो जाएँगे। कानून को उलझन में डालने वाले उपक्रम करेंगे। कानूनी की लोच खोजेंगे, इसके लिए मददगार साबित होंगे, कानूनी पेशे से ही जुड़े लोग। जिनका काम ही है, लोगों को कानून की आड़ में ही बचाना। बुराई की जड़ खाप पंचायतें हैं, जो सगोत्र शादियों को बहन-भाई की शादी मानती है और इसे अक्षम्य कहकर दो प्रेमियों को मौत के घाट उतारने के लिए प्रेरित करती है। वह इस सच की भी कोई परवाह नहीं करती कि भारत में कानून का राज है और सगोत्र शादी करना कोई अपराध नहीं है। प्रेम पर इज्जत को झूठी और सामंती अहमियत देने वाले पुरानी मानसिकता के चंद लोग पुराने अवैज्ञानिक मूल्यों पर चलाने की जिद करते हैं। ऐसे कानून बनाए जाने चाहिए, जिससे कोई भी खाप पंचायत आगे से ऐसा दुस्साहस न कर सके। खाप पंचायतों के समर्थकों को भी उसी तरह दंडित करने का प्रावधान होना चाहिए जैसे हिंसा भड़काने वालों के लिए है।

पंचायतों का न्याय

पंच भगवान होता था। अब जबकि भगवान की ही कोई इज्जत नहीं रही तो पंचों की क्या बिसात। बचपन में मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी पढ़ी थी ‘पंच परमेश्वर’। पंच की गद्दी पर बैठते ही किस तरह से व्यक्ति का हृदयपरिवर्तन हो जाता है, इसका बड़ा खूबसूरत चित्रण इस कहानी में किया गया था। दरअसल दो घड़ी के लिए मिलने वाली यह इज्जत लोगों के मन पर गहरी लकीरें खींचती थी। वे इस पर खरा उतरने की कोशिश भी करते थे। इसके अलावा ईश्वर का खौफ था, पाप का बोध था, नर्क का भय था। सबका सामूहिक निचोड़ यह था कि जिसे पंच कह दिया वह वास्तव में भगवान बन कर दिखाने की कोशिश करता था। अब जबकि ईश्वर, पाप और नर्क का भय पूरी तरह से समाप्त हो चुका है, पैसा और प्रभाव ताकत का पर्यायवाची बन चुके हैं, तब क्या तो पंचायत और क्या ही पुलिस। अब पंचायतें प्रताड़ित करने का, अपने मन की कुण्ठाओं और विकृतियों को मूर्तरूप देने का जरिया बन गयी हैं। जवान विधवा पर नजरें मैली कीं। मान गयी तो ठीक और फटकार दिया तो टोनही होने का लांछन लगाकर गांव से निकाल दिया। इतने पर भी नहीं मानी तो सार्वजनिक रूप से उसकी इज्जत उछाल दी या फिर पीट-पीट कर मारने का आदेश सुना दिया। महिला टोनही हो सकती है किन्तु पुरुष टोनहा नहीं हो सकता। क्यों? कभी किसी पुरुष को निर्वस्त्र कर गांव में घुमाने का आदेश किसी पंचायत ने दिया हो, ऐसा सुनने या पढ़ने में नहीं आया। अलबत्ता महिलाओं के लिए ऐसे आदेशों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त मिल जाएगी। कपड़े नोंच लेना, मलमूत्र खिलाना, सामूहिक बलात्कार करना आदि के अपने फरमानों के जरिए पंचायतें अपनी यौन कुंठाओं को जी रही हैं। पंच अब परमेश्वर नहीं रहे। वे जमीन पर उतर आए हैं। अब वे न्याय के लिए नहीं, अपने लिए, अपने परिजनों के लिए, अपनी पार्टी के लिए काम कर रहे हैं। कहने को तो 24 अप्रैल 1993 को संविधान का 73वां संशोधन कर शासन की जिम्मेदारी त्रिस्तरीय पंचायतों को सौंप दी गई। 600 जिला पंचायतों, 600 माध्यमिक पंचायतों तथा 2 लाख 30 हजार ग्राम पंचायतों के जरिये 28 लाख प्रतिनिधि हमारे लोकतंत्र का हिस्सा बन गये। 33 प्रतिशत आरक्षण से करीब 10 लाख महिलायें पंचायत प्रतिनिधि बन गई और 50 प्रतिशत आरक्षण होने पर उनकी संख्या 14 लाख तक बढ़ सकती है। किन्तु वास्तविकता के धरातल पर स्थिति विचित्र है। पंचायतों में पंच पतियों, पंच भाईयों, पंच पिताओं का बोलबाला है। देहात को छोड़ भी दें तो शहरी निकायों का यह हाल है कि पार्षद पति बैठकों में हिस्सा ले रहे हैं। गाड़ियों के नम्बर प्लेट पर शान से पार्षद पति, महापौर पति लिख रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री का यह कहना कि पंचायतों के प्रभावी होने से नक्सलवाद खत्म हो सकता है, दूर की कौड़ी लगती है। स्वप्नदृष्टा होने में और सपने देखने में फर्क होता है। एक मौजूदा हालातों के आधार पर आने वाले समय की कल्पना करता है। दूसरा हालातों को झुठला कर सुखद कल्पनाओं में खोया रहता है। क्या उन्हें नहीं पता कि पंचायतों का नया संस्करण सरकारी ढांचे का एक्सटेंशन मात्र है। वे गांव की अच्छाइयों को उभार कर शहर लाने नहीं बल्कि शहर की गन्दगी को गांव तक पहुंचाने गए हैं।
Posted by deepakdas at 2:26 PM

भारत इकतीस राज्यों का नहीं, बल्कि छह हजार जातियों का संघ है

कली बेच देंगे चमन बेच देंगे , धरा बेच देंगे गगन बेच देंगे, कलम के पुजारी अगर सो गये तो , ये धन के पुजारी वतन बेच देंगे

जाति जनगणना के बगैर लेखक :- शिवदयाल

कई बार ऐसा लगता है जैसे भारत इकतीस राज्यों का नहीं, बल्कि छह हजार जातियों का संघ है। जाति को भारतीय समाज का एकमात्र और अंतिम सत्य मानने वालों की अगर चले, तो एक दिन शायद ऐसा होकर रहे। भारत को आधिकारिक रूप् से छह हजार चार सौ या फिर उतनी जातियों का जितनी कि नई जनगणना में गिनती आएं, संघ घोषित कर दिया जाए। तब क्या होगा? तब ये सारे मसले हल हो जाएंगे जो जाति से जुड़े है।

जातियों के संघ वाले भारत में प्रत्येक जाति को वे सब अधिकार दे दिए जाएं जो अभी राज्यों को है। इससे हर जाति को विकास करने का बराबर अवसर मिलेगा औरयह शिकायत नहीं रह जाएगी कि कोई दूसरा उनकी राह का रोड़ा बन रहा हैं। जाति को सर्वेसर्वा मानने वालों के लिए यह एक महान मूल्य होना चाहिए, ऐसे समाज और ऐसे राष्ट्र की स्थापना ही उनका अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। ऐसे समाज में क्रांति या बदलाव की जरूरत अगर होगी तो सिर्फ इसलिए कि किस प्रकार भारतीय समाज को स्वतंत्रता आंदोलन-पूर्व, बल्कि औद्योगीकरण-पूर्व की स्थिति में कितनी जल्दी पहुंचा दिया जाए जहां जातीय टोले हों, जातीय पंचायतें हो, जातीय बाजार-हाट हों और जातीय उत्पादन केंद्र हो। अंतरजातीयता की जहां कोई स्थिति या अवसर ही न हो।

यह भावी भारत के निर्माण के लिए विचार-बिंदु या परिकल्पना है। जातीय जनगणना के द्वारा इस लक्ष्य की स्थिति की दिशा में बढ़ा जा सकता है। जातीय शोषण और भेदभाव रोकने का यह एक महत्वपूर्ण हथियार साबित हो सकता है। कम से कम जातीय जनगणना के पक्षधर ऐसा ही मान कर चल रहे है।

उन्नीसवी सदी के मध्य से लेकर स्वतंत्रता-प्राप्ति तक निम्नजातीय समूहों या कहें दलित और गैर-ब्राह्मण जातियों के अधिकार और अस्मिता के लिए संघर्ष और जातिगत अन्याय के प्रतिरोध की एक लंबी और अटूट श्रृंखला दिखाई देती है। इसमें अलग-अलग कोणों से जाति के प्रभावों का मूल्यांकन किया गया और इस व्यवस्था से मुक्ति के उपाय तलाशे गए। संघर्ष और प्रतिरोध की यह अखिल भारतीय परिघटना थी जिसने अपने समय के महान दलित या गैर-ब्राह्मण नेतृत्व को खड़ा किया, जैसे महात्मा ज्योतिबा फुले, ईवी रामास्वामी नायकर ‘पेरियर’ एमसी राजा, केशवराम जेढ़े और डा भीमराव अंबेडकर।

इसके पीछे अछूत जातियों के बीच उभरे भक्ति आंदोलनों की शक्ति भी थी जिन्होंने भक्ति और सामाजिक समता का संदेश दिया, जैसे- श्रीनारयण धर्म परिपाल योगम, मातुआ पंथ, सतनाम पंथ, बलहारी पंथ आदि। इस दौर में न सिर्फ अस्पृश्यों या दलितों ने अपना संगठित प्रतिरोध दर्ज किया, बल्कि गैर ब्राह्मण और गैर-दलित जातियों के संगठन भी बने जिनका उद्देश्य राजनीति, शिक्षा और रोजगार में अपने लिए अधिक से अधिक संभावनाएं तलाश करना था।

हरबर्ट रिजले प्रख्यात नृशास्त्री थे जिन्होंने जाति की नृतात्त्विक आधार पर विवेचना की। 1901 में उन्हें जनगणना कमिश्नर बनाया गया और उन्होंने पहली बार जातियों की गिनती, उनका वर्गीकरण और सोपानक्रम में उनकी स्थिति-निर्धारण कर सभी जरूरी सूचनाएं दर्ज करने का प्रस्ताव किया। ब्रिटिश राज के इस प्रस्ताव को संदेह की दृष्टि से देखा गया और पहले की तुलना में ढीले पड़ते जा रहे जातीय सोपानक्रम को रूढ़ और अपरिवर्तनीय बनाने का ‘सरकारी प्रयास’ कहा गया। इसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया यह हुई कि विभिन्न जातियों और जातीय समूहों ने जातीय श्रेणीक्रम में अपने लिए उच्चतर श्रेणी की मांग की और दावें पेश किए।

इस समय अनेक जातीय संगठन अस्तित्व में आए। उस समय इन संगठनों ने विभिन्न जातियों की एक राजनीतिक भूमिका निश्चित की और शिक्षा और रोजगार के अवसरों पर उच्च जातियों के एकाधिकार को तोड़ने के लिए सक्रिय हुए। इस प्रकार उपरी तौर पर आत्मकेंद्रित और प्रतिगामी दिखाते हुए भी ये जातीय संगठन उस समय अपनी-अपनी जातियों के लिए आधुनिकीकरण का संवाहक भी बने और अपनी गतिविधियों का एक औचित्य भी प्रस्तुत किया।

बाद में 1931 की जनगणना में अंतिम बार जातियों का संदर्भ आया। स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना (1951) में जातीय गणना को निषिद्ध किया गया। कारण यह रहा कि नवस्वतंत्र देश में राष्ट्र-निर्माताओं और नीति-निर्धारकों ने नागरिकता के प्रश्न को अधिक महत्वपूर्ण माना। वह समय देश के हर वर्ग, जाति, धर्म और क्षेत्र के नागरिकों को राष्ट्र-निर्माण के लिए एकबद्ध और एकनिष्ठ बनाने का था। देश अभी-अभी विभाजन की विभीषिका से उबरा था और धर्म इसका कारण बना था। सामाजिक विभेद को सिकी भी कीमत पर एक और विभाजन का कारण नहीं बनने देना था। देश की अखंडता को कई ओर से चुनौतियां मिल रही थी।

हर प्रांत, शहर, कस्बे, गांव, मुहल्ले में सदियों से साथ-साथ रहते आए हिंदू-मुसलमान जब अलग-अलग देशों के नागरिक बन सकते थे, तब जाति को विभाजन का उतना पूख्ता आधार न मानना उस समय एक खुशफहमी पालने जैसा ही था। आज भले ही गांधीजी के पूना-उपवास को प्रपंच बताने की कोशिश हो, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए िकवे वास्तव में अपने स्तर से एक राजनीतिक विभाजन को रोकने की कोशिश कर रहे थे। वे अगर विफल होते तो कहना मुश्किल है कि आज भारत का मानचित्र कैसा होता। इसलिए 1951 की जनगणना में जाति को शामिल न करने के पीछे आज कोई षड्यंत्र न देखकर उस समय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखने की जरूरत हैं।

भारत में आज दलित और पिछड़ी जातियों की स्थिति वैसी ही नहीं है जैसी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय थी। देश की राजनीति की वास्तविक नियंता आज यही है। लोकतंत्र संख्याबल से चलता है जो इन्ही के पास है। संसद से लेकर विधानमंडलों में इनकी मजबूत उपस्थिति हैं। पिछड़ी जातियां न सिर्फ राजनीतिक वर्चस्व, बल्कि भूमि-अधिकार के मामले में भी आज आगें है। सवर्णों की जोतें पिछड़ी, विशेषकर मध्य जातियों को हस्तांतरित हुई है। आज गांवों की शक्ति-संरचना बदल चुकी हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में औद्योगीकरण, शहरीकरण और विकास की परिघटना में जातीय बंधनों को बहुत हद तक शिथिल कर दिया है और जातीय पहचाने धूमिल हुई है। दूसरी ओर एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भारत की उपलब्धियां भी कम नहीं है। और यह सब अब तक जातीय गणना के बिना हुआ। वह भी तब, जबकि देश के पिछड़े-दलित नेतृत्व ने सार्वजनिक जीवन में सवर्णवादी मूल्यों से जरा भी अलग दिखने की जरूरत नहीं समझी।

आज भारतीय नागरिकता के उपर जाति की सदस्यता को हावी होने देने का क्या कारण हो सकता है? होना तो यह चाहिए कि हम अब आगे जातीय पहचानों के विलोपीकरण की ओर बढ़े, लेकिन स्थिति यह है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर उन आग्रहों का भारी दबाव है जो लोकतंत्र-पूर्व के हमारे सामाजिक-राजनीतिक व्यवहार के नियामक रहे है। जातीय पहचानों को किसी न किसी बहाने कायम रखने का आग्रह इसी से जुड़ा है और इसके लिए सभी दोषी हैं। वास्तविकता यह है कि जातियों की गणना किए बिना भी हम इस व्यवस्था में असमानता, अन्याय और शोषण की पड़ताल करते रहे हैं और इसका समाधान भी ढूंढते रहे है।

पिछले छह दशकों में पूरे देश में समय-समय पर हुए आंदोलनों और संघर्ष इसका प्रमाण हैं, जिनका आधार अंतरजातीयता रहा है। भारत की जनता ने चुपचाप कभी कुछ भी नहीं स्वीकार किया। अब यह समय बताएगा कि भविष्य में निर्माण और प्रतिकार की शक्ति हमें भारतीय जन से जुटानी है या जाति-जन से।

हमारे अंदर बुराइयां हर समय रहती है, लेकिन हम उन्हें ढ़कते है और अच्छाइयों को बाहर लाते है। जाति-धर्म आधारित भेदभाव हमारे सामाजिक जीवन की बुराइयां अच्छाइयों में नहीं बदल जाएंगी। भारत की श्रेणीबद्ध समाज-व्यवस्था को चुनौती देने के लिए श्रेणियों की नए सिरे से पहचान और उनके प्रति स्वीकार से कितनी सहायता मिल सकती है?

जातीय पहचानों को अटूट रख कर अन्य पहचानों- भाषाई, धार्मिक, क्षेत्रीय, नृतात्विक आदि- को किस प्रकार संयमित रखा जा सकता है? इन्हें तो उलटे इससे उकसावा मिलेगा। दूसरी ओर, अगर ध्यान से देखे तो भारत में जातीय संघर्ष सवर्ण बनाम अवर्ण के आधार पर ही नहीं हुए। पिछड़ी जातियों दलित जातियों और जनजातियों के बीच भी आपसी प्रतिद्वंद्विता रही है। जातीय गणना से, संभव है, कमजोरों को अपनी बिरादरी की नई शक्ति (संख्याबल) का अहसास हो, लेकिन वही ंपहले से ताकतवर जातियों के उन्मत्त होने का भी खतरा है। जातिवाद के ज्वार को स्वयं पिछड़ों और दलितों का नेतृत्व नहीं रोक सकेगा।

यह केवल सवर्णों की चिंता नहीं होनी चाहिए। वास्तव में जाति का जनसंख्यात्मक पक्ष ऐसा संकट पैदा कर सकता है जिसके परिणामों का आकलन हम अभी से नहीं कर सकते। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग जाति-समूह प्रभावी है। उनकी प्रभुता के खिलाफ भी कोई एक जाति नहीं, बल्कि जाति-समूह सक्रिय है। भूमंडलीकरण में कमजोर होते जा रहे भारतीय गावों में एक नए प्रकार के संघर्ष की जमीन तैयार होगी, एक ऐसा संघर्ष की जमीन तैयार होगी, एक ऐसा संघर्ष जो अंगुलियों को तो संभव है मजबूत बनाए, लेकिन जिससे मुट्ठी नहीं बन सकेगी।

इसलिए यह बात समझनी होगी कि जाति से नहीं, बल्कि अंतरजातीयता से भारतीय समाज का वर्गीय आधार विकसित होगा। जातीय गणना इस रास्ते की बाधा है, न कि सुविधा। यह आकस्मिक नहीं कि भारतीय समाज की जितनी भी क्रांतिकारी या परिवर्तनकामी धाराएं रही है उन्होंने जातीय पहचानों को हमेशा गौण स्थान दिया।

यह जाति से मुंह चुराना नहीं, बल्कि उसके प्रभाव को कम से कमतर करते जाना था जिससे कि बदलाव की चेतना क्षैतिज विभाजनों में बंट कर निष्प्रभावी न हो जाए। यह बात भूदान से लेकर तेलंगाना, नक्सलबाड़ी से लेकर संपूर्ण क्रांति, चिपको से लेकर सरदार सरोवर तक, किसी भी आंदोलन से समझी जा सकती है। स्वतंत्रता आंदोलन के बाद इन आंदोलनों ने हमारी राष्ट्रीयता और हमारे लोकतंत्र को पुष्ट किया है। अब यह हमारे नेतृत्व को तय करना है कि हमें किस ओर वे ले जाना चाहते हैं। फिलहाल तो वे उस ओर देखना भी गवारा नहीं कर रहे जहां युवा प्रेम कर रहे है और मारे जा रहे है। फिर भी प्रेम कर रहे है।