Wednesday, July 28, 2010

भारत इकतीस राज्यों का नहीं, बल्कि छह हजार जातियों का संघ है

कली बेच देंगे चमन बेच देंगे , धरा बेच देंगे गगन बेच देंगे, कलम के पुजारी अगर सो गये तो , ये धन के पुजारी वतन बेच देंगे

जाति जनगणना के बगैर लेखक :- शिवदयाल

कई बार ऐसा लगता है जैसे भारत इकतीस राज्यों का नहीं, बल्कि छह हजार जातियों का संघ है। जाति को भारतीय समाज का एकमात्र और अंतिम सत्य मानने वालों की अगर चले, तो एक दिन शायद ऐसा होकर रहे। भारत को आधिकारिक रूप् से छह हजार चार सौ या फिर उतनी जातियों का जितनी कि नई जनगणना में गिनती आएं, संघ घोषित कर दिया जाए। तब क्या होगा? तब ये सारे मसले हल हो जाएंगे जो जाति से जुड़े है।

जातियों के संघ वाले भारत में प्रत्येक जाति को वे सब अधिकार दे दिए जाएं जो अभी राज्यों को है। इससे हर जाति को विकास करने का बराबर अवसर मिलेगा औरयह शिकायत नहीं रह जाएगी कि कोई दूसरा उनकी राह का रोड़ा बन रहा हैं। जाति को सर्वेसर्वा मानने वालों के लिए यह एक महान मूल्य होना चाहिए, ऐसे समाज और ऐसे राष्ट्र की स्थापना ही उनका अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। ऐसे समाज में क्रांति या बदलाव की जरूरत अगर होगी तो सिर्फ इसलिए कि किस प्रकार भारतीय समाज को स्वतंत्रता आंदोलन-पूर्व, बल्कि औद्योगीकरण-पूर्व की स्थिति में कितनी जल्दी पहुंचा दिया जाए जहां जातीय टोले हों, जातीय पंचायतें हो, जातीय बाजार-हाट हों और जातीय उत्पादन केंद्र हो। अंतरजातीयता की जहां कोई स्थिति या अवसर ही न हो।

यह भावी भारत के निर्माण के लिए विचार-बिंदु या परिकल्पना है। जातीय जनगणना के द्वारा इस लक्ष्य की स्थिति की दिशा में बढ़ा जा सकता है। जातीय शोषण और भेदभाव रोकने का यह एक महत्वपूर्ण हथियार साबित हो सकता है। कम से कम जातीय जनगणना के पक्षधर ऐसा ही मान कर चल रहे है।

उन्नीसवी सदी के मध्य से लेकर स्वतंत्रता-प्राप्ति तक निम्नजातीय समूहों या कहें दलित और गैर-ब्राह्मण जातियों के अधिकार और अस्मिता के लिए संघर्ष और जातिगत अन्याय के प्रतिरोध की एक लंबी और अटूट श्रृंखला दिखाई देती है। इसमें अलग-अलग कोणों से जाति के प्रभावों का मूल्यांकन किया गया और इस व्यवस्था से मुक्ति के उपाय तलाशे गए। संघर्ष और प्रतिरोध की यह अखिल भारतीय परिघटना थी जिसने अपने समय के महान दलित या गैर-ब्राह्मण नेतृत्व को खड़ा किया, जैसे महात्मा ज्योतिबा फुले, ईवी रामास्वामी नायकर ‘पेरियर’ एमसी राजा, केशवराम जेढ़े और डा भीमराव अंबेडकर।

इसके पीछे अछूत जातियों के बीच उभरे भक्ति आंदोलनों की शक्ति भी थी जिन्होंने भक्ति और सामाजिक समता का संदेश दिया, जैसे- श्रीनारयण धर्म परिपाल योगम, मातुआ पंथ, सतनाम पंथ, बलहारी पंथ आदि। इस दौर में न सिर्फ अस्पृश्यों या दलितों ने अपना संगठित प्रतिरोध दर्ज किया, बल्कि गैर ब्राह्मण और गैर-दलित जातियों के संगठन भी बने जिनका उद्देश्य राजनीति, शिक्षा और रोजगार में अपने लिए अधिक से अधिक संभावनाएं तलाश करना था।

हरबर्ट रिजले प्रख्यात नृशास्त्री थे जिन्होंने जाति की नृतात्त्विक आधार पर विवेचना की। 1901 में उन्हें जनगणना कमिश्नर बनाया गया और उन्होंने पहली बार जातियों की गिनती, उनका वर्गीकरण और सोपानक्रम में उनकी स्थिति-निर्धारण कर सभी जरूरी सूचनाएं दर्ज करने का प्रस्ताव किया। ब्रिटिश राज के इस प्रस्ताव को संदेह की दृष्टि से देखा गया और पहले की तुलना में ढीले पड़ते जा रहे जातीय सोपानक्रम को रूढ़ और अपरिवर्तनीय बनाने का ‘सरकारी प्रयास’ कहा गया। इसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया यह हुई कि विभिन्न जातियों और जातीय समूहों ने जातीय श्रेणीक्रम में अपने लिए उच्चतर श्रेणी की मांग की और दावें पेश किए।

इस समय अनेक जातीय संगठन अस्तित्व में आए। उस समय इन संगठनों ने विभिन्न जातियों की एक राजनीतिक भूमिका निश्चित की और शिक्षा और रोजगार के अवसरों पर उच्च जातियों के एकाधिकार को तोड़ने के लिए सक्रिय हुए। इस प्रकार उपरी तौर पर आत्मकेंद्रित और प्रतिगामी दिखाते हुए भी ये जातीय संगठन उस समय अपनी-अपनी जातियों के लिए आधुनिकीकरण का संवाहक भी बने और अपनी गतिविधियों का एक औचित्य भी प्रस्तुत किया।

बाद में 1931 की जनगणना में अंतिम बार जातियों का संदर्भ आया। स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना (1951) में जातीय गणना को निषिद्ध किया गया। कारण यह रहा कि नवस्वतंत्र देश में राष्ट्र-निर्माताओं और नीति-निर्धारकों ने नागरिकता के प्रश्न को अधिक महत्वपूर्ण माना। वह समय देश के हर वर्ग, जाति, धर्म और क्षेत्र के नागरिकों को राष्ट्र-निर्माण के लिए एकबद्ध और एकनिष्ठ बनाने का था। देश अभी-अभी विभाजन की विभीषिका से उबरा था और धर्म इसका कारण बना था। सामाजिक विभेद को सिकी भी कीमत पर एक और विभाजन का कारण नहीं बनने देना था। देश की अखंडता को कई ओर से चुनौतियां मिल रही थी।

हर प्रांत, शहर, कस्बे, गांव, मुहल्ले में सदियों से साथ-साथ रहते आए हिंदू-मुसलमान जब अलग-अलग देशों के नागरिक बन सकते थे, तब जाति को विभाजन का उतना पूख्ता आधार न मानना उस समय एक खुशफहमी पालने जैसा ही था। आज भले ही गांधीजी के पूना-उपवास को प्रपंच बताने की कोशिश हो, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए िकवे वास्तव में अपने स्तर से एक राजनीतिक विभाजन को रोकने की कोशिश कर रहे थे। वे अगर विफल होते तो कहना मुश्किल है कि आज भारत का मानचित्र कैसा होता। इसलिए 1951 की जनगणना में जाति को शामिल न करने के पीछे आज कोई षड्यंत्र न देखकर उस समय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखने की जरूरत हैं।

भारत में आज दलित और पिछड़ी जातियों की स्थिति वैसी ही नहीं है जैसी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय थी। देश की राजनीति की वास्तविक नियंता आज यही है। लोकतंत्र संख्याबल से चलता है जो इन्ही के पास है। संसद से लेकर विधानमंडलों में इनकी मजबूत उपस्थिति हैं। पिछड़ी जातियां न सिर्फ राजनीतिक वर्चस्व, बल्कि भूमि-अधिकार के मामले में भी आज आगें है। सवर्णों की जोतें पिछड़ी, विशेषकर मध्य जातियों को हस्तांतरित हुई है। आज गांवों की शक्ति-संरचना बदल चुकी हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में औद्योगीकरण, शहरीकरण और विकास की परिघटना में जातीय बंधनों को बहुत हद तक शिथिल कर दिया है और जातीय पहचाने धूमिल हुई है। दूसरी ओर एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भारत की उपलब्धियां भी कम नहीं है। और यह सब अब तक जातीय गणना के बिना हुआ। वह भी तब, जबकि देश के पिछड़े-दलित नेतृत्व ने सार्वजनिक जीवन में सवर्णवादी मूल्यों से जरा भी अलग दिखने की जरूरत नहीं समझी।

आज भारतीय नागरिकता के उपर जाति की सदस्यता को हावी होने देने का क्या कारण हो सकता है? होना तो यह चाहिए कि हम अब आगे जातीय पहचानों के विलोपीकरण की ओर बढ़े, लेकिन स्थिति यह है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर उन आग्रहों का भारी दबाव है जो लोकतंत्र-पूर्व के हमारे सामाजिक-राजनीतिक व्यवहार के नियामक रहे है। जातीय पहचानों को किसी न किसी बहाने कायम रखने का आग्रह इसी से जुड़ा है और इसके लिए सभी दोषी हैं। वास्तविकता यह है कि जातियों की गणना किए बिना भी हम इस व्यवस्था में असमानता, अन्याय और शोषण की पड़ताल करते रहे हैं और इसका समाधान भी ढूंढते रहे है।

पिछले छह दशकों में पूरे देश में समय-समय पर हुए आंदोलनों और संघर्ष इसका प्रमाण हैं, जिनका आधार अंतरजातीयता रहा है। भारत की जनता ने चुपचाप कभी कुछ भी नहीं स्वीकार किया। अब यह समय बताएगा कि भविष्य में निर्माण और प्रतिकार की शक्ति हमें भारतीय जन से जुटानी है या जाति-जन से।

हमारे अंदर बुराइयां हर समय रहती है, लेकिन हम उन्हें ढ़कते है और अच्छाइयों को बाहर लाते है। जाति-धर्म आधारित भेदभाव हमारे सामाजिक जीवन की बुराइयां अच्छाइयों में नहीं बदल जाएंगी। भारत की श्रेणीबद्ध समाज-व्यवस्था को चुनौती देने के लिए श्रेणियों की नए सिरे से पहचान और उनके प्रति स्वीकार से कितनी सहायता मिल सकती है?

जातीय पहचानों को अटूट रख कर अन्य पहचानों- भाषाई, धार्मिक, क्षेत्रीय, नृतात्विक आदि- को किस प्रकार संयमित रखा जा सकता है? इन्हें तो उलटे इससे उकसावा मिलेगा। दूसरी ओर, अगर ध्यान से देखे तो भारत में जातीय संघर्ष सवर्ण बनाम अवर्ण के आधार पर ही नहीं हुए। पिछड़ी जातियों दलित जातियों और जनजातियों के बीच भी आपसी प्रतिद्वंद्विता रही है। जातीय गणना से, संभव है, कमजोरों को अपनी बिरादरी की नई शक्ति (संख्याबल) का अहसास हो, लेकिन वही ंपहले से ताकतवर जातियों के उन्मत्त होने का भी खतरा है। जातिवाद के ज्वार को स्वयं पिछड़ों और दलितों का नेतृत्व नहीं रोक सकेगा।

यह केवल सवर्णों की चिंता नहीं होनी चाहिए। वास्तव में जाति का जनसंख्यात्मक पक्ष ऐसा संकट पैदा कर सकता है जिसके परिणामों का आकलन हम अभी से नहीं कर सकते। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग जाति-समूह प्रभावी है। उनकी प्रभुता के खिलाफ भी कोई एक जाति नहीं, बल्कि जाति-समूह सक्रिय है। भूमंडलीकरण में कमजोर होते जा रहे भारतीय गावों में एक नए प्रकार के संघर्ष की जमीन तैयार होगी, एक ऐसा संघर्ष की जमीन तैयार होगी, एक ऐसा संघर्ष जो अंगुलियों को तो संभव है मजबूत बनाए, लेकिन जिससे मुट्ठी नहीं बन सकेगी।

इसलिए यह बात समझनी होगी कि जाति से नहीं, बल्कि अंतरजातीयता से भारतीय समाज का वर्गीय आधार विकसित होगा। जातीय गणना इस रास्ते की बाधा है, न कि सुविधा। यह आकस्मिक नहीं कि भारतीय समाज की जितनी भी क्रांतिकारी या परिवर्तनकामी धाराएं रही है उन्होंने जातीय पहचानों को हमेशा गौण स्थान दिया।

यह जाति से मुंह चुराना नहीं, बल्कि उसके प्रभाव को कम से कमतर करते जाना था जिससे कि बदलाव की चेतना क्षैतिज विभाजनों में बंट कर निष्प्रभावी न हो जाए। यह बात भूदान से लेकर तेलंगाना, नक्सलबाड़ी से लेकर संपूर्ण क्रांति, चिपको से लेकर सरदार सरोवर तक, किसी भी आंदोलन से समझी जा सकती है। स्वतंत्रता आंदोलन के बाद इन आंदोलनों ने हमारी राष्ट्रीयता और हमारे लोकतंत्र को पुष्ट किया है। अब यह हमारे नेतृत्व को तय करना है कि हमें किस ओर वे ले जाना चाहते हैं। फिलहाल तो वे उस ओर देखना भी गवारा नहीं कर रहे जहां युवा प्रेम कर रहे है और मारे जा रहे है। फिर भी प्रेम कर रहे है।

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