Saturday, November 28, 2009

इस टेलीविजन पत्रकार से सीखिए भाषा

यूँ तो कल से ही सभी चैनलों पर 26/11 के एक बरस पूरे होने पर खास शो चल रहे थे. लेकिन आजतक के शम्स ताहिर खान की स्टोरी अपने आप में सबसे जुदा थी. ऐसे मौके पर अपनी बातों को किस तरह से कोई एंकर रखे उसका एक शानदार नमूना था.

वैसे शम्स का अपना एक अलग अंदाज़ हमेशा से रहा है जो उन्हें दूसरों से अलग करता है. खोजी पत्रकारिता और अपराध से जुड़े मानवीय पहलू के विशेषज्ञ शम्स ताहिर खान अपराध की खबरों को आजतक के क्राइम शो 'जुर्म' और 'वारदात' के जरिए बड़े ही रोचक अंदाज में पेश करते रहे हैं.

'जुर्म' और 'वारदात' जैसे क्राईम शो करने के बाद भी उनकी छवि अपराध पत्रकारिता करने वाले दूसरे पत्रकारों से अलग हैं और दर्शकों में उनकी स्वीकार्यता व्यापक तौर पर है. इसकी सबसे बड़ी वजह उनकी प्रस्तुतीकरण की शैली और स्टोरी में मानवीयता के पुट का होना है.

यही सबकुछ २६/११ पर उनके द्वारा एंकर किये गए शो "मेरे मातम का कोई नाम नहीं" में भी देखने को मिला. कल के विशेष में ९.३० से १०.०० बजे के बीच प्रसारित हुआ. अपने शायराना अंदाज़ में वे सारी बातों को जैसे रख रहे थे वह दर्शकों को उनके शो पर ठहरें रहने पर मजबूर कर देता है.

२६/११ पर आधारित दूसरे चैनलों का शो जहाँ बम के धमाके के विजुअल और उसके शोर में दबती नज़र आ रही थी वहीँ शम्स का शांत और शायरना अंदाज़ बेहद प्रभावशाली लग रहा था. कल डिस्कवरी पर भी २६/११ पर एक डाक्यूमेंट्री प्रसारित हुई. डाक्यूमेंट्री अच्छी थी. लेकिन दिल को छूती नहीं. शम्स का शो दिल को छूने वाला रहा.

शम्स ताहिर खान के इस शो के बारे में चर्चित मीडिया विशेषज्ञ विनीत कुमार कहते है - मेरे मातम का कोई नाम नहीं में शम्स ताहिर को जिन शब्दों का प्रयोग करते देखा तो मेरे दिमाग में अचानक से एक लाइन आयी- टेलीविजन में अब भी ज़िंदा है शायर.

26/11 पर दुनिया भर की स्टोरी और स्पेशल पैकेज से ये कार्यक्रम अलग रहा। ये कहीं भी हायपरबॉलिक नहीं होता। किसी भी तरह का मैलोड्रामा पैदा नहीं करता. बल्कि एक मातमी सच को संवेदना के स्तर पर ताजा करता है और बहुत ही तल्खी से बताता जाता है कि क्यों इसे हमेशा के लिए ताजा बने रहना जरुरी है.

स्टोरी की लाइनें कुछ इस तरह से है- मेरे पूछने पर उसने कहा कि हां मैं मुंबई हूं..उदास मुंबई.....काली रात के बाद मुंबई को जो मिला वो था सुबह का सूरज। कोई किसी के रिश्ते को उसकी अंगूठी से पहचान रहा है,कोई किसी को उसके ऐनक से। मरनेवाले तो बेबस हैं लेकिन जीनेवाले कमाल करते हैं.
न्यूज चैनलों पर इस तरह की लाइनें मय्यसर नहीं होती. इस तरह की स्क्रिप्ट टेलीविजन की भाषा को समृद्ध करती है,खोयी हुई संभावना को फिर से वापस लाती है. टेलीविजन को एक संवेदनशील माध्यम बनाती है। विजुअल के स्तर पर सरोकार झलकता है,न्यूज चैनलों से अलग की मैच्योरिटी दिखती है.

निदा फाजली औऱ शहरयार की बातों और शायरी बीच ये शब्द और एक्सप्रेशन ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि लगता ही नहीं कि एक टीवी पत्रकार की सोच और बयान करने का अंदाज इन शायरों से अलग है. हमें और टेलीविजन के बाकी लोगों को ऐसी भाषा सीखने और बरतने की जरुरत है.

सच कहूं कल शम्स जितने अपने चैनल आजतक के लिए अपने नहीं लगे होंगे उससे कहीं ज्यादा हमारे अपने लगे. ऑडिएंस और टीवी पत्रकार के बीच के बेगानेपन को कम करने के लिए इस तरह के कार्यक्रमों का लगातार प्रसारित होते रहना अनिवार्य है

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