Tuesday, December 1, 2009

टीवी एंकरिंग

टीवी एंकर और रिपोर्टर

जब कोई व्यक्ति टेलीविजन के परदे पर समाचार देख रहा होता है तो उसके जेहन में दो व्यक्ति अहम हो जाते हैं- एंकर और रिपोर्टर। एंकर टेलीविजन के परदे पर पहले-पहल किसी खबर की सूचना देता है। उसके बारे में बताता है। रिपोर्टर वह होता है जो घटनास्थल से यह बता रहा होता है कि घटनाक्रम किस प्रकार हुआ। वास्तव में किसी महत्वपूर्ण खबर के दौरान दर्शकों के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि वे कौन-सा चैनल देख रहे हैं। वह महत्वपूर्ण खबर जिस भी चैनल पर आ रही होती है, दर्शकों का रिमोट उसी चैनल पर ठहर जाता है। ऐसे में किसी भी समाचार चैनल के लिए एंकर और रिपोर्टर बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि दर्शकों को चैनल से जो़ड़ने का काम वही करते हैं।

टेलीविजन पत्रकारिता में एंकरिंग की भूमिका को समझने की जरूरत है। सफल एंकर वही हो सकता है जो देश, समाज के सभी पहलुओं को न केवल जानता-समझता हो, बल्कि अवसरानुकूल उन पर टिप्पणी करने की क्षमता भी रखता हो।

आज के दौर में एंकरिंग पर तकनीक का प्रभाव बढ़ रहा है। इसका कारण है कि आज तकनीकी रूप से जानकार लोग तो खूब आ रहे हैं, लेकिन विषय को समझने, उसकी गहराई में जाने में उनकी दिलचस्पी नहीं है। आज काम के प्रति समर्पण तो बढ़ा है, लेकिन यह भी सचाई है कि एक प्रकार का पेशेवर भाव भी उनमें बढ़ा है। यानी जब तक काम करना है, तब तक चुस्त-चौकन्ने रहना है और उसके बाद तैयारी का काम डेस्क पर छो़ड़ दिया। याद रखिए एंकर में समाज अक्सर अपने प्रतिनिधि की तलाश करता रहता है। लेकिन इस तरह के पेशेवर एप्रोच से वह चैनल का प्रतिनिधि अधिक लगने लगता है। समाज की कोई छवि उसमें नहीं दिखाई देती।

तकनीकी जानकारी हर एंकर को जरूर होनी चाहिए। उसको ओबी वैन की संभावनाओं-सीमाओं की पूरी तौर पर जानकारी होनी चाहिए। उसको कैमरे से जु़ड़े़ पहलुओं की जानकारी होनी चाहिए। उसे साउंड की जानकारी होनी चाहिए। लाइट की जानकारी होनी चाहिए। लेकिन ये जानकारियां उसके लिए अतिरिक्त जानकारी भर ही हैं या हो सकती हैं। इसका कारण यह है कि इन सब पहलुओं के विशेषज्ञ आपके साथ होते हैं, जो आपसे बेहतर इन सब चीजों को जान-समझ रहे होते हैं।

जब दिल्ली के पहा़ड़गंज में विस्फोट हुए थे तो उसके तीन दिन बाद की बात है। दीपावली का दिन था। रात के 10 बजे से बुलेटिन पढ़ने के लिए मुझे बुलाया गया था। यों ही मेरे जेहन में खयाल आया कि आज पहा़ड़गंज से एंकरिंग करूंगा। कैमरामैन को बुलाया। उससे बात की। उसने कहा कि ओबी वैन तो ले चलते हैं, लेकिन वहां पतली-पतली गलियां हैं। प्रोड्यूसर ने कहा, मान लीजिए कुछ फेल हो गया तो। उस दिन संयोग से कोई वैकल्पिक एंकर नहीं था। इसलिए इस बात का भी डर था। लेकिन मैंने कहा कि ओबी वैन है तो सिस्टम फेल होने का सवाल नहीं उठता। अगर ऐसा हुआ तो 10 मिनट के लिए कुछ रिकार्डिंग चला दी जाएगी और इसी बीच मैं ऑफिस आ जाऊंगा। पहा़ड़गंज पास में ही है।

10 बजे जैसे ही मेरे कान में कैमरे के रोल-इन की आवाज आई, उसी के साथ पीछे से मेरे कान में फायर ब्रिगेड की आवाज आने लगी। अब कैमरे से उस माहौल की झूलती-भागती तस्वीरें स्क्रीन पर आ रही थीं और फायर ब्रिगेड की आवाज भी। शुरू के दो से तीन मिनट तक स्क्रीन पर कोई एंकर नहीं था। यही दृश्य चल रहा था और पीछे से मेरी कॉमेंट्री चल रही थी कि पहा़ड़गंज में आग लग गई है। इससे कुल मिलाकर एक ऐसा दृश्य बन रहा था कि जिसने भी 'आजतक' को ट्यून-इन किया, वह वहीं पर टिका रह गया। इस भौचक्केपन को समझने और उसे खबरों से जो़ड़ पाने का नतीजा यह रहा कि इससे खबरों में एक ऐसा पहलू जु़ड़ गया जिसने उस दिन के उस प्रोग्राम की टीआरपी बढ़ा दी।

इसलिए एंकर होने के लिए जो बात समझने की है, वह यही है कि खबरों और उसके पहलुओं को समझना और उसके अनुसार तत्काल कार्रवाई करना। अगर आप समाचार चैनल में एंकरिंग कर रहे हैं या करने की तैयारी कर रहे हैं तो मानकर चलिए कि आप इस तरह की स्थितियों से बच नहीं सकते। इसलिए आजकल के युवाओं को जिस तरह से तकनीकी पहलुओं की समझ होती है, उसी तरह से वे अगर समाचार और उसकी बारीकियों को भी समझ लें तो सचमुच समाचार प्रसारण में काफी बदलाव आ सकता है। उसमें काफी सुधार हो सकता है। इससे टीम वर्क को बढ़ावा मिलता है।

अब बात यह आती है कि हमारे नए लोग फील्ड में एंकरिंग करने, विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बना पाने में सक्षम हैं या नहीं। वैसे यहां सवाल सक्षम होने का नहीं है। यहां दबाव इस रूप में रहता है कि इस दिशा में जाना ही प़ड़ेगा, क्योंकि हमारे यहां का समाज बैलेंस नहीं है। हमारे राजनेता व्यवस्थित नहीं हैं।

योरोप की तरह ऐसा नहीं है कि वे एक खास जगह आकर अपना बयान देंगे। वे कहीं से कुछ भी बोल देंगे और वह देश की एक ब़ड़ी खबर बन जाएगी। हमारे नीति-निर्धारक भी जब इस रूप में आगे चलते हैं कि किसी को खबर दे देते हैं। कभी-कभी तो बोलते समय उनको भी इसका अंदाजा नहीं रहता कि खबर इतनी ब़ड़ी हो जाएगी या कि इस तरह से भी इस खबर को व्याख्यायित किया जा सकता है। ऐसे में एंकर-रिपोर्टर के रूप में आपको ही उस खबर का महत्व समझना होगा और उसके अनुरूप तत्काल निर्णय लेना होगा। अब अगर आप इस आकलन को नहीं कर पाते तो यह पत्रकारिता के लिहाज से कमी ही मानी जाएगी।

एंकर को इस बात को समझना होगा कि जिस समाज में, जिस देश में वह काम कर रहा है वह एक 'असंतुलित' समाज है। इसलिए उसमें हमेशा कुछ न कुछ अप्रत्याशित-असंभावित की संभावना मौजूद होती है। इसलिए एक एंकर के रूप में उन संभावनाओं पर नजर रखने, उनको तलाशने, उनकी खोज में जाने की बात न भी हो तो जब ऐसा मौका उपस्थित हो जाए तो तत्काल उसे समझ लेने की क्षमता का विकास करना ब़ड़ा जरूरी होता है।

समझने की बात है कि एंकर भी उसी समाज का हिस्सा होता है। वह भी उसी द्वंद्व, उसी असंतुलन को देख-समझ रहा होता है। इसलिए यह पहलू अगर उसके काम में भी दिखाई देने लगता है तो वह कुछ अधिक सहज दिखाई देने लगता है। बने-बनाए तरीके से, पूर्व तैयारी के आधार पर जो एंकरिंग की जाती है वह रोबोटिक लगती है। उसमें न तो प्रयोग की कोई संभावना होती है, न ही उसकी कोई खास गुंजाइश होती है। सब कुछ ढर्रे के मुताबिक लगने लगता है। इस तरह की एकरसता से निकलने की राह भी एंकर को ही तलाश करनी प़ड़ती है। प्रयोग करने ही प़ड़ेंगे। यह माध्यम संभावनाओं से आगे जाने का माध्यम है। इसलिए इसकी सीमाओं से भी आगे जाने की कोशिश की जानी चाहिए।

हमारे यहां टीवी अभी पूरी तौर पर प्रोफेशनल नहीं हुआ है। वह सीख रहा है। कहना चाहिए कि वह प्रोफेशनल होने की प्रक्रिया में है। अगर हम यह मान लें कि टेलीविजन वही होता है, जो दिखाई दे रहा होता है तो इसमें यह देखने की आवश्यकता है कि इससे सीधे तौर पर जु़ड़े हुए जो लोग हैं वे मैच्योर हैं कि नहीं।

सीधे तौर पर दिखाई देने वाली चीजें क्या होती हैं। सबसे पहले तो एंकर होता है। वह हमेशा दिखाई देता है। उसके बाद रिपोर्टर दिखाई देता है। इन दो से आप जैसी ही हटिएगा, आपको ग्राफिक्स दिखाई देने लगते हैं। इसके अलावा, 'सुपर्स' दिखाई देते हैं- सुपर्स यानी टीवी स्क्रीन पर नीचे पंक्ति के रूप में चलने वाली खबरें। हमारे टीवी में जो लोग सुपर लिखते हैं, वे सीनियर पत्रकार नहीं होते हैं। वहां गलतियां दिखाई देने लगती हैं। इनको प्रशिक्षण देने की दिशा में कुछ नहीं होता। एंकर्स, रिपोर्टर्स के स्तर पर इनमें किसी का भी प्रशिक्षण नहीं होता।

ऐसे में होता यह है कि इन चारों ऊपर से बताए गए हिस्सों में वह हिस्सा हमेशा भारी हो जाएगा जिस हिस्से के लोग चैनल में सीनियर स्तर पर अधिक होंगे। ऐसे वरिष्ठ लोग हमारे यहां बहुत कम हैं, जो स्क्रीन पर भी आते हों, कामकाज भी संभालते हों और जो सीनियर भी हों। जो ऐसे हैं, उनको आप देखिएगा कि वे ही थो़ड़े-बहुत प्रयोग कर भी रहे हैं। अन्यथा प्रयोग न के बराबर हो रहे हैं।

रिपोर्टिंग में भी यही है। मान लीजिए कि एक तबका ऐसा है, जो सीनियर भी है तो क्या वह टेलीविजन पत्रकारिता सीख रहा है या उसके मन में अभी भी प्रिंट बसा हुआ है। इसका कारण यह है कि समझने की जरूरत है, यह फर्क बहुत ज्यादा है। प्रिंट में जो बात आपकी खबर के आखिरी पैरे में आ रही होगी, वह यहां पहले पैरे में लानी होगी, पहले पैरे क्या, हो सकता है पहली पंक्ति में।

अब मान लीजिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के भारतीय दौरे को लेकर किसी अखबार में आप खबर लिखते हैं और उसके विरोध के बारे में लिखते हुए आखिर में आप यह कहते हैं कि अलग-अलग प्रांतों से आए हुए लोग लाल किले में भरे हुए थे और उसमें पहली बार यह नजर आया कि वामपंथी काडर समूचे देश में अब भी मौजूद है, क्योंकि समूचे देश से लोग विरोध करने पहुंचे थे।

हाथों में लाल झंडा लिए हुए थे। हाथों में तख्तियां थीं। नारे लगा रहे थे और इनके जेहन में हो सकता है कि पश्चिम बंगाल का चुनाव हो। आप चाहकर भी इस मोटी बात को टीवी में छो़ड़ नहीं सकते हैं, क्योंकि उसमें आपका कैमरा शुरू यहीं से होता है, जब आपका कैमरा शुरू होगा तो आप कौन-सा शॉट पहला लेंगे।

आप शुरू ही इससे करेंगे कि देशभर का वामपंथी काडर आज बुश का विरोध करने लाल झंडे लिए लाल किले के मैदान में इकट्ठा हुआ। उसे इस बात का आक्रोश था कि सरकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए रेड कार्पेट क्यों बिछा दिया है। लेकिन ऐसी खबरों को लेकर एंकर की भूमिका काफी ब़ड़ी हो जाती है। उसे पता होना चाहिए कि जब खबर का पैकेज पूरा होगा तो क्या-क्या विजुअल होंगे?

अगर ऐसा नहीं है तो एंकर महज सपाटबयानी कर देगा या विवेक-प्रदर्शन को लेकर समूची जानकारी अपने 'वक्तव्य' में दे देगा। जबकि एंकर की भूमिका को लेकर उसकी टिप्पणी करते हुए आगे की खबर को लेकर रोचकता जगाती है। साथ ही समूची जानकारी भी नहीं देनी है। तो वह कह सकता है कि 'मनमोहन सरकार गठबंधन की सरकार है। ऐसे में रेड कार्पेट और लाल झंडे का फर्क मिटता रहा है। लेकिन लाल झंडा कहीं रेड कार्पेट के नीचे खो ना जाए, इसलिए दिल्ली में ही रेड कार्पेट कहीं और बिछी और लाल झंडा कहीं और नजर आया।'

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