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इतिहास के झरोंखे से देखें ,विदित होगा सर्व -खाप पंचायतों ने ना सिर्फ अपने अपने इलाकों की आतताइयों से हिफाज़त की है ,अपने सामाजिक सरोकारों को भी तरजीह दी है ।
आज के सन्दर्भ में जो सर्व खाप पंचायतें खेती किसानी की ताकत बन किसानों के हितों की हिफाज़त कर सकतीं है .किसी बेसहारा विधवा को भू -माफिया से बचा सकतीं हैं .पद दलित को सरे आम बेईज्ज़त होने से बचा सकतीं हैं गाहे बगाहे इस या उस प्रांत में कितनी ही औरतों को (ज्यादातर बेसहारा विधवाओं को ,वह किसी ज़ाबाज़ फौजी की माँ भी हो सकती है जो देश की सीमाओं पर तैनात है ) डायन घोषित कर दिया जाता है .एच आई वी एड्स ग्रस्त औरत को तिरिश्क्रित होने से बचा सकतीं है जिसे यह सौगात अमूमन अपने पति परमेश्वर से ही मिलती है ।
लेकिन राजनीति पोषित आज की जातीय पंचायते अंतर जातीय ,सजातीय ,सगोत्रीय ,सग्रामीडएक ही गाँव में विवाह जो अक्सर प्रेम विवाह होतें हैं जैसे मुद्दे पर जडवतहोकर रह गईं हैं ।
यह उनकी समाज प्रदत्त ऊर्जा का अपक्षय नहीं तो और क्या है ।
ताज़ा प्रकरण करनाल की अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश वाणी गोपाल शर्मा द्वारा सुनाये गए बहु चर्चित दोहरे ह्त्या -काण्ड (बबली -मनोज दम्पति )से तालुक रखता है ।
सगोत्रीय विवाह एक सामाजिक दायरे में अमान्य हो सकता है लेकिन किसी भी कंगारू कोर्ट को सगोत्रीय दम्पतियों की सरे आम निर्मम हत्या करने की छूट नहीं दी जा सकती .विरोध के मान्य तरीके हुक्का पानी बंद करना रहे आये हैं .फिर ह्त्या जैसा खुद -मुख्त्यारी का फैसला क्यों ?
सगोत्रीय विवाह आधुनिक भारत की एक हकीकत है इससे कोई इनकार नहीं कर सकेगा भले ऐसे विवाह उत्तम संततियों के उपयुक्त विज्ञान की निगाह में ना हों .लेकिन प्रेम आदमी तौल कर नहीं करता ।"प्रेम ना बाड़ी उपजे ,प्रेम ना हाट बिकाय ....".
सच यह भी है :जान देना किसी पे लाजिम था ,ज़िन्दगी यूँ बसरनहीं होती ।
और जान लेना सरा - सर जुर्म है .अपने खुद के जायों की आदमी जान ले कैसे लेता है ?
मनो विज्ञानी इसके लिए उस प्रवृत्ति को कुसूरवार ठहरातें हैं जिसका बचपन से ही पोषण -पल्लवन किया जाता है सती मंदिरों को इसी केटेगरी में रखा जाए गा ।
विपथगामी वोट केन्द्रित राजनीति सब कुछ लील गई है .पथ-च्युत जातीय पंचायतें उसी सर्वभक्षी राजनीति की उप -शाखा हैं ।
फिलवक्त मनोज -बबली दम्पति की जांबाज़ माँ को सुरक्षा मुहैया करवाने का आदेश कोर्ट को पारित करना चाहिए माननीय मुख्य मंत्री हरियाणा सरकार न्यायाधीशा वाणी गोपाल शर्मा को भी एन एस जी सुरक्षा मुहैया करवाएं
विपथगामी सर्व -खापी पंचायतें कुछ भी करवा सकतीं हैं .यदि चन्द्र -पति की इस दौर में ह्त्या कर दी गई तो सभी औरतों का आइन्दा के लिए हौसला टूट जाएगा .बेहतर हो :दुश्मनी लाख सही ख़त्म ना कीजे रिश्ते ,दिल मिले या ना मिले हाथ मिलाते रहिये .खाप पंचायतें इस मर्म को समझें .अपने सामाजिक सरोकारों की जानिब लोटें ।
खुदा हाफ़िज़ ।
वीरुभाई .
Posted
Wednesday, July 28, 2010
पंचायतों के अमानुषिक निर्णय: एक विचार
डॉ. महेश परिमल
पूरा हरियाणा दहल रहा है। हिसार के कैथल जिले के गाँव कराड़ा की एक घटना के फैसले से सभी स्तब्ध हैं। मीडिया भले ही इसे ‘ऑनर कीलिंग’ की संज्ञा दे, पर सच तो यह है कि हम कहीं न कहीं आज भी आदिम युग में जी रहे हैं। जहाँ जंगल का कानून चलता है। तीन साल बाद जब अदालत ने दोषियों को सजा सुनाई, तब लोगों ने न्याय के महत्व को समझा। न्याय पर आस्था बढ़ी। इसके बाद भी हम गर्व से नहीं कह सकते हैं कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं। दरअसल कानून के हाथ मजबूत करने वाले पाये ही खोखले होने लगे हैं। इस मुकदमे में उन पुलिस वालों पर भी कार्रवाई हुई है, जिन्होंने अपराधियों का साथ दिया या कानून की राह में बाधाएँ पैदा कीं।
प्यार हर कोई करता है। किसी का प्यार जग-जाहिर होता है, किसी का प्यार पंख लगाकर उड़ता है। प्यार के फूलों की सुगंध को फैलने से कोई रोक नहीं सकता। पर खामोश प्यार की अपनी अहमियत होती है। यह बरसों तक सुरक्षित रहता है। किसी एक के दिल में, एक उम्मीद की रोशनी की तरह। मनोज-बबली ने भी प्यार किया। अपने प्यार को एक नाम देने के लिए उन्होंने कानून का सहारा लेकर शादी भी की। उन्हें पता था कि इस शादी का परिणाम बहुत ही बुरा भी हो सकता है, इसलिए उन्होंने पुलिस सुरक्षा की माँग की। उन्हें सुरक्षा मिली, पर उस पर हावी हो गया, बाहुबलियों का बल। शादी के मात्र 23 दिन बाद ही दोनों को मौत के घाट उतार दिया गया। वजह साफ थी कि पंचायत नहीं चाहती थी कि एक गोत्र में शादी हो। यही गोत्र ही उन दोनों प्रेमियों के लिए काल बना।
पंचायतीराज का सपना क्या ऐसे ही पूरा हो सकता है। इसके पहले भी हमारे देश की पंचायतों ने कई ऐसे फैसले किए हैं, जिसे सुनकर नहीं लगता कि हमें आजाद हुए 62 वर्ष से अधिक हो चुके हैं। पंचायतों को मिले अधिकारों के ऐसे दुरुपयोग की कल्पना भला किसने की थी? सवाल यह उठता है कि क्या 62 साल बाद भी हम ऐसा कानून नहीं बना पाए, जिससे खाप पंचायत जैसे अमानुषिक निर्णय पर रोक लगाई जा सके? आज जहाँ दो बालिगों के बिना शादी के साथ-साथ रहने को कानूनी मान्यता मिल गई है और दो सजातीयों के साथ-साथ रहने की माँग की जा रही है, उस जमाने में खाप पंचायत ने जिस तरह से निर्णय दिया, उससे आदिम युग की ही याद आती है। मेरे विचार से आदिम युग में भी ऐसे निर्णय नहीं होते होंगे। फिर भला यह कौन-सा युग है?
इसके पूर्व भी इसी तरह के निर्णय ने पूरे देश को शर्मसार किया है। पंचायतें जब चाहे, बाहुबलियों के वश में होकर कठोर यातनाएँ देने वाली सजा मुकर्रर करती हैं। पंचायतों में भले ही बड़े पदों पर साधारण लोग होते हों, पर फैसले की घड़ी में आज भी वहाँ बाहुबलियों का हुक्म चलता है। अपने विवेक से निर्णय देने की प्रथा अभी नहीं रही। हमें भूलना होगा अलगू चौधरी और जुम्मन शेख को। हमें यह भी भूलना होगा कि पंचों के मुख से ईश्वर बोलता है। अब ऐसी खाला भी नहीं रही, जो अलगू चौधरी से यह कह सके, बेटा क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? उस समय ईमानदार पंचों का सबसे बड़ा गहना थी। अब ईमानदारी की बात करने का मतलब ही होता है, पुराने जमाने में जीना।
खाप पंचायत ने जिस तरह से फैसला दिया, वह हमारे देश का पहला फैसला नहीं था, इसके पहले भी देश की पंचायतों ने कई ऐसे फैसले किए हैं, जिससे इंसानियत की मौत हुई है:-
अगस्त 2000 को झज्जर के जोणधी में हुई पंचायत द्वारा एक बच्चे के मां-बाप बन चुके आशीष और दर्शना को भाईबहन बनने का तुगलकी फरमान सुना दिया गया। यह फरमान काफी विवादों में रहा। 2003 में जींद के रामगढ़ में दलित मीनाक्षी द्वारा गांव के सिख युवक से प्रेम विवाह करने पर उसे मौत का फतवा सुना दिया। अदालत की मदद से प्यार तो बरकरार रहा, लेकिन उन्हें मध्यप्रदेश में छिपकर जीवन बिताना पड़ा।
मतलौडा में 11 नवंबर 2008 को मेहर व सुमन को भी मौत के रूप में समाज के ठेकेदारों का शिकार होना पड़ा। इन दोनों ने भी पग्गड़धारियों के फैसले को मानने से साफ इंकार कर दिया।
मई 2009 को मंडी अटेली के बेगपुर में गोत्र विवाद के कारण ही 21 गांवों की महापंचायत बुलाई गई, विजय की शादी राजस्थान की राणियां की ढाणी की लड़की से हुई। खोश्य गोत्र के भारी दबाव के चलते एक परिवार का हुक्का पानी बंद कर दिया गया।
1999 में भिवानी में देशराज व निर्मला का प्रेम पंचायती लोगों को पसंद नहीं आया। पंचायती फरमान के बावजूद उन्होंने अपना प्रेम जारी रखा। इसी कारण लोगों ने दोनों को पत्थर मारकर मौत की नींद सुला दिया। अदालत ने 21 अप्रैल 2003 को दोनों पक्षों के 27 लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। हालांकि दोनों पक्षों में बाद में समझौता हो गया।
जनवरी 2003 को सफीदों के गांव के लोगों ने एक प्रेमी जोड़े को पत्थरों से कुचलकर मौत के घाट उतार दिया। इस दर्दनाक मौत के बाद गांव में कई दिन तक दहशत का माहौल बना रहा और लोग सहमे रहे।
मई 2008 को करनाल के बल्ला गांव में एक ही गोत्र में विवाह करने पर जस्सा और सुनीता को मार डाला गया। हत्यारों ने इतनी बेरहमी दिखाई कि दोनों के शव काफी देर तक गली में पड़े रहे और किसी की हिम्मत न पड़ी।
20 मार्च, 1994 को झज्जर के नया गांव में मनोज और आशा के प्रेम-प्रसंगों के चलते दोनों की जघन्य हत्या कर दी गई। आवाज उठने के बावजूद कोई कार्रवाई न की गई।
12 जुलाई 2009 को सिंघवाल की सोनिया से विवाह करने वाले मटौर के वेदपाल की पीट पीट कर हत्या कर दी गई। वेदपाल के परिवार वालों के रोष जताने पर भी पुलिस खास कार्रवाई न कर पाई।
अगस्त 2009 को रोहतक के बलहम्बा गांव में अनिल और रानी की नृशंस हत्या उनके प्रेम प्रसंगों के शक के चलते कर दी गई। दोनों परिवार रोते-बिलखते रहे लेकिन हत्यारों पर कोई कार्रवाई न हो पाई।
अगस्त 2009 को झज्जर जिले के सिवाना गांव के प्रेमी युगल संदीप और मोनिया की हत्या करके शवों को खेतों में पेड़ पर लटका दिया गया। इन नृशंस हत्याओं पर गांव के लोग कई दिन सहमे रहे।
ये कुछ उदाहरण ही हैं, जिससे पूरे देश को शर्मसार होना पड़ा है। करनाल की अदालत ने जो निर्णय सुनाया है, उससे हमें यह नहीं सोचना है कि अब देश की कानून-व्यवस्था चुस्त हो जाएगी। लोग अपराध करने से पहले सौ बार सोचेंगे। इस विपरीत अब अपराधी और भी अधिक चालाक हो जाएँगे। कानून को उलझन में डालने वाले उपक्रम करेंगे। कानूनी की लोच खोजेंगे, इसके लिए मददगार साबित होंगे, कानूनी पेशे से ही जुड़े लोग। जिनका काम ही है, लोगों को कानून की आड़ में ही बचाना। बुराई की जड़ खाप पंचायतें हैं, जो सगोत्र शादियों को बहन-भाई की शादी मानती है और इसे अक्षम्य कहकर दो प्रेमियों को मौत के घाट उतारने के लिए प्रेरित करती है। वह इस सच की भी कोई परवाह नहीं करती कि भारत में कानून का राज है और सगोत्र शादी करना कोई अपराध नहीं है। प्रेम पर इज्जत को झूठी और सामंती अहमियत देने वाले पुरानी मानसिकता के चंद लोग पुराने अवैज्ञानिक मूल्यों पर चलाने की जिद करते हैं। ऐसे कानून बनाए जाने चाहिए, जिससे कोई भी खाप पंचायत आगे से ऐसा दुस्साहस न कर सके। खाप पंचायतों के समर्थकों को भी उसी तरह दंडित करने का प्रावधान होना चाहिए जैसे हिंसा भड़काने वालों के लिए है।
पूरा हरियाणा दहल रहा है। हिसार के कैथल जिले के गाँव कराड़ा की एक घटना के फैसले से सभी स्तब्ध हैं। मीडिया भले ही इसे ‘ऑनर कीलिंग’ की संज्ञा दे, पर सच तो यह है कि हम कहीं न कहीं आज भी आदिम युग में जी रहे हैं। जहाँ जंगल का कानून चलता है। तीन साल बाद जब अदालत ने दोषियों को सजा सुनाई, तब लोगों ने न्याय के महत्व को समझा। न्याय पर आस्था बढ़ी। इसके बाद भी हम गर्व से नहीं कह सकते हैं कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं। दरअसल कानून के हाथ मजबूत करने वाले पाये ही खोखले होने लगे हैं। इस मुकदमे में उन पुलिस वालों पर भी कार्रवाई हुई है, जिन्होंने अपराधियों का साथ दिया या कानून की राह में बाधाएँ पैदा कीं।
प्यार हर कोई करता है। किसी का प्यार जग-जाहिर होता है, किसी का प्यार पंख लगाकर उड़ता है। प्यार के फूलों की सुगंध को फैलने से कोई रोक नहीं सकता। पर खामोश प्यार की अपनी अहमियत होती है। यह बरसों तक सुरक्षित रहता है। किसी एक के दिल में, एक उम्मीद की रोशनी की तरह। मनोज-बबली ने भी प्यार किया। अपने प्यार को एक नाम देने के लिए उन्होंने कानून का सहारा लेकर शादी भी की। उन्हें पता था कि इस शादी का परिणाम बहुत ही बुरा भी हो सकता है, इसलिए उन्होंने पुलिस सुरक्षा की माँग की। उन्हें सुरक्षा मिली, पर उस पर हावी हो गया, बाहुबलियों का बल। शादी के मात्र 23 दिन बाद ही दोनों को मौत के घाट उतार दिया गया। वजह साफ थी कि पंचायत नहीं चाहती थी कि एक गोत्र में शादी हो। यही गोत्र ही उन दोनों प्रेमियों के लिए काल बना।
पंचायतीराज का सपना क्या ऐसे ही पूरा हो सकता है। इसके पहले भी हमारे देश की पंचायतों ने कई ऐसे फैसले किए हैं, जिसे सुनकर नहीं लगता कि हमें आजाद हुए 62 वर्ष से अधिक हो चुके हैं। पंचायतों को मिले अधिकारों के ऐसे दुरुपयोग की कल्पना भला किसने की थी? सवाल यह उठता है कि क्या 62 साल बाद भी हम ऐसा कानून नहीं बना पाए, जिससे खाप पंचायत जैसे अमानुषिक निर्णय पर रोक लगाई जा सके? आज जहाँ दो बालिगों के बिना शादी के साथ-साथ रहने को कानूनी मान्यता मिल गई है और दो सजातीयों के साथ-साथ रहने की माँग की जा रही है, उस जमाने में खाप पंचायत ने जिस तरह से निर्णय दिया, उससे आदिम युग की ही याद आती है। मेरे विचार से आदिम युग में भी ऐसे निर्णय नहीं होते होंगे। फिर भला यह कौन-सा युग है?
इसके पूर्व भी इसी तरह के निर्णय ने पूरे देश को शर्मसार किया है। पंचायतें जब चाहे, बाहुबलियों के वश में होकर कठोर यातनाएँ देने वाली सजा मुकर्रर करती हैं। पंचायतों में भले ही बड़े पदों पर साधारण लोग होते हों, पर फैसले की घड़ी में आज भी वहाँ बाहुबलियों का हुक्म चलता है। अपने विवेक से निर्णय देने की प्रथा अभी नहीं रही। हमें भूलना होगा अलगू चौधरी और जुम्मन शेख को। हमें यह भी भूलना होगा कि पंचों के मुख से ईश्वर बोलता है। अब ऐसी खाला भी नहीं रही, जो अलगू चौधरी से यह कह सके, बेटा क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? उस समय ईमानदार पंचों का सबसे बड़ा गहना थी। अब ईमानदारी की बात करने का मतलब ही होता है, पुराने जमाने में जीना।
खाप पंचायत ने जिस तरह से फैसला दिया, वह हमारे देश का पहला फैसला नहीं था, इसके पहले भी देश की पंचायतों ने कई ऐसे फैसले किए हैं, जिससे इंसानियत की मौत हुई है:-
अगस्त 2000 को झज्जर के जोणधी में हुई पंचायत द्वारा एक बच्चे के मां-बाप बन चुके आशीष और दर्शना को भाईबहन बनने का तुगलकी फरमान सुना दिया गया। यह फरमान काफी विवादों में रहा। 2003 में जींद के रामगढ़ में दलित मीनाक्षी द्वारा गांव के सिख युवक से प्रेम विवाह करने पर उसे मौत का फतवा सुना दिया। अदालत की मदद से प्यार तो बरकरार रहा, लेकिन उन्हें मध्यप्रदेश में छिपकर जीवन बिताना पड़ा।
मतलौडा में 11 नवंबर 2008 को मेहर व सुमन को भी मौत के रूप में समाज के ठेकेदारों का शिकार होना पड़ा। इन दोनों ने भी पग्गड़धारियों के फैसले को मानने से साफ इंकार कर दिया।
मई 2009 को मंडी अटेली के बेगपुर में गोत्र विवाद के कारण ही 21 गांवों की महापंचायत बुलाई गई, विजय की शादी राजस्थान की राणियां की ढाणी की लड़की से हुई। खोश्य गोत्र के भारी दबाव के चलते एक परिवार का हुक्का पानी बंद कर दिया गया।
1999 में भिवानी में देशराज व निर्मला का प्रेम पंचायती लोगों को पसंद नहीं आया। पंचायती फरमान के बावजूद उन्होंने अपना प्रेम जारी रखा। इसी कारण लोगों ने दोनों को पत्थर मारकर मौत की नींद सुला दिया। अदालत ने 21 अप्रैल 2003 को दोनों पक्षों के 27 लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। हालांकि दोनों पक्षों में बाद में समझौता हो गया।
जनवरी 2003 को सफीदों के गांव के लोगों ने एक प्रेमी जोड़े को पत्थरों से कुचलकर मौत के घाट उतार दिया। इस दर्दनाक मौत के बाद गांव में कई दिन तक दहशत का माहौल बना रहा और लोग सहमे रहे।
मई 2008 को करनाल के बल्ला गांव में एक ही गोत्र में विवाह करने पर जस्सा और सुनीता को मार डाला गया। हत्यारों ने इतनी बेरहमी दिखाई कि दोनों के शव काफी देर तक गली में पड़े रहे और किसी की हिम्मत न पड़ी।
20 मार्च, 1994 को झज्जर के नया गांव में मनोज और आशा के प्रेम-प्रसंगों के चलते दोनों की जघन्य हत्या कर दी गई। आवाज उठने के बावजूद कोई कार्रवाई न की गई।
12 जुलाई 2009 को सिंघवाल की सोनिया से विवाह करने वाले मटौर के वेदपाल की पीट पीट कर हत्या कर दी गई। वेदपाल के परिवार वालों के रोष जताने पर भी पुलिस खास कार्रवाई न कर पाई।
अगस्त 2009 को रोहतक के बलहम्बा गांव में अनिल और रानी की नृशंस हत्या उनके प्रेम प्रसंगों के शक के चलते कर दी गई। दोनों परिवार रोते-बिलखते रहे लेकिन हत्यारों पर कोई कार्रवाई न हो पाई।
अगस्त 2009 को झज्जर जिले के सिवाना गांव के प्रेमी युगल संदीप और मोनिया की हत्या करके शवों को खेतों में पेड़ पर लटका दिया गया। इन नृशंस हत्याओं पर गांव के लोग कई दिन सहमे रहे।
ये कुछ उदाहरण ही हैं, जिससे पूरे देश को शर्मसार होना पड़ा है। करनाल की अदालत ने जो निर्णय सुनाया है, उससे हमें यह नहीं सोचना है कि अब देश की कानून-व्यवस्था चुस्त हो जाएगी। लोग अपराध करने से पहले सौ बार सोचेंगे। इस विपरीत अब अपराधी और भी अधिक चालाक हो जाएँगे। कानून को उलझन में डालने वाले उपक्रम करेंगे। कानूनी की लोच खोजेंगे, इसके लिए मददगार साबित होंगे, कानूनी पेशे से ही जुड़े लोग। जिनका काम ही है, लोगों को कानून की आड़ में ही बचाना। बुराई की जड़ खाप पंचायतें हैं, जो सगोत्र शादियों को बहन-भाई की शादी मानती है और इसे अक्षम्य कहकर दो प्रेमियों को मौत के घाट उतारने के लिए प्रेरित करती है। वह इस सच की भी कोई परवाह नहीं करती कि भारत में कानून का राज है और सगोत्र शादी करना कोई अपराध नहीं है। प्रेम पर इज्जत को झूठी और सामंती अहमियत देने वाले पुरानी मानसिकता के चंद लोग पुराने अवैज्ञानिक मूल्यों पर चलाने की जिद करते हैं। ऐसे कानून बनाए जाने चाहिए, जिससे कोई भी खाप पंचायत आगे से ऐसा दुस्साहस न कर सके। खाप पंचायतों के समर्थकों को भी उसी तरह दंडित करने का प्रावधान होना चाहिए जैसे हिंसा भड़काने वालों के लिए है।
पंचायतों का न्याय
पंच भगवान होता था। अब जबकि भगवान की ही कोई इज्जत नहीं रही तो पंचों की क्या बिसात। बचपन में मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी पढ़ी थी ‘पंच परमेश्वर’। पंच की गद्दी पर बैठते ही किस तरह से व्यक्ति का हृदयपरिवर्तन हो जाता है, इसका बड़ा खूबसूरत चित्रण इस कहानी में किया गया था। दरअसल दो घड़ी के लिए मिलने वाली यह इज्जत लोगों के मन पर गहरी लकीरें खींचती थी। वे इस पर खरा उतरने की कोशिश भी करते थे। इसके अलावा ईश्वर का खौफ था, पाप का बोध था, नर्क का भय था। सबका सामूहिक निचोड़ यह था कि जिसे पंच कह दिया वह वास्तव में भगवान बन कर दिखाने की कोशिश करता था। अब जबकि ईश्वर, पाप और नर्क का भय पूरी तरह से समाप्त हो चुका है, पैसा और प्रभाव ताकत का पर्यायवाची बन चुके हैं, तब क्या तो पंचायत और क्या ही पुलिस। अब पंचायतें प्रताड़ित करने का, अपने मन की कुण्ठाओं और विकृतियों को मूर्तरूप देने का जरिया बन गयी हैं। जवान विधवा पर नजरें मैली कीं। मान गयी तो ठीक और फटकार दिया तो टोनही होने का लांछन लगाकर गांव से निकाल दिया। इतने पर भी नहीं मानी तो सार्वजनिक रूप से उसकी इज्जत उछाल दी या फिर पीट-पीट कर मारने का आदेश सुना दिया। महिला टोनही हो सकती है किन्तु पुरुष टोनहा नहीं हो सकता। क्यों? कभी किसी पुरुष को निर्वस्त्र कर गांव में घुमाने का आदेश किसी पंचायत ने दिया हो, ऐसा सुनने या पढ़ने में नहीं आया। अलबत्ता महिलाओं के लिए ऐसे आदेशों की लंबी चौड़ी फेहरिस्त मिल जाएगी। कपड़े नोंच लेना, मलमूत्र खिलाना, सामूहिक बलात्कार करना आदि के अपने फरमानों के जरिए पंचायतें अपनी यौन कुंठाओं को जी रही हैं। पंच अब परमेश्वर नहीं रहे। वे जमीन पर उतर आए हैं। अब वे न्याय के लिए नहीं, अपने लिए, अपने परिजनों के लिए, अपनी पार्टी के लिए काम कर रहे हैं। कहने को तो 24 अप्रैल 1993 को संविधान का 73वां संशोधन कर शासन की जिम्मेदारी त्रिस्तरीय पंचायतों को सौंप दी गई। 600 जिला पंचायतों, 600 माध्यमिक पंचायतों तथा 2 लाख 30 हजार ग्राम पंचायतों के जरिये 28 लाख प्रतिनिधि हमारे लोकतंत्र का हिस्सा बन गये। 33 प्रतिशत आरक्षण से करीब 10 लाख महिलायें पंचायत प्रतिनिधि बन गई और 50 प्रतिशत आरक्षण होने पर उनकी संख्या 14 लाख तक बढ़ सकती है। किन्तु वास्तविकता के धरातल पर स्थिति विचित्र है। पंचायतों में पंच पतियों, पंच भाईयों, पंच पिताओं का बोलबाला है। देहात को छोड़ भी दें तो शहरी निकायों का यह हाल है कि पार्षद पति बैठकों में हिस्सा ले रहे हैं। गाड़ियों के नम्बर प्लेट पर शान से पार्षद पति, महापौर पति लिख रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री का यह कहना कि पंचायतों के प्रभावी होने से नक्सलवाद खत्म हो सकता है, दूर की कौड़ी लगती है। स्वप्नदृष्टा होने में और सपने देखने में फर्क होता है। एक मौजूदा हालातों के आधार पर आने वाले समय की कल्पना करता है। दूसरा हालातों को झुठला कर सुखद कल्पनाओं में खोया रहता है। क्या उन्हें नहीं पता कि पंचायतों का नया संस्करण सरकारी ढांचे का एक्सटेंशन मात्र है। वे गांव की अच्छाइयों को उभार कर शहर लाने नहीं बल्कि शहर की गन्दगी को गांव तक पहुंचाने गए हैं।
Posted by deepakdas at 2:26 PM
Posted by deepakdas at 2:26 PM
भारत इकतीस राज्यों का नहीं, बल्कि छह हजार जातियों का संघ है
कली बेच देंगे चमन बेच देंगे , धरा बेच देंगे गगन बेच देंगे, कलम के पुजारी अगर सो गये तो , ये धन के पुजारी वतन बेच देंगे
जाति जनगणना के बगैर लेखक :- शिवदयाल
कई बार ऐसा लगता है जैसे भारत इकतीस राज्यों का नहीं, बल्कि छह हजार जातियों का संघ है। जाति को भारतीय समाज का एकमात्र और अंतिम सत्य मानने वालों की अगर चले, तो एक दिन शायद ऐसा होकर रहे। भारत को आधिकारिक रूप् से छह हजार चार सौ या फिर उतनी जातियों का जितनी कि नई जनगणना में गिनती आएं, संघ घोषित कर दिया जाए। तब क्या होगा? तब ये सारे मसले हल हो जाएंगे जो जाति से जुड़े है।
जातियों के संघ वाले भारत में प्रत्येक जाति को वे सब अधिकार दे दिए जाएं जो अभी राज्यों को है। इससे हर जाति को विकास करने का बराबर अवसर मिलेगा औरयह शिकायत नहीं रह जाएगी कि कोई दूसरा उनकी राह का रोड़ा बन रहा हैं। जाति को सर्वेसर्वा मानने वालों के लिए यह एक महान मूल्य होना चाहिए, ऐसे समाज और ऐसे राष्ट्र की स्थापना ही उनका अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। ऐसे समाज में क्रांति या बदलाव की जरूरत अगर होगी तो सिर्फ इसलिए कि किस प्रकार भारतीय समाज को स्वतंत्रता आंदोलन-पूर्व, बल्कि औद्योगीकरण-पूर्व की स्थिति में कितनी जल्दी पहुंचा दिया जाए जहां जातीय टोले हों, जातीय पंचायतें हो, जातीय बाजार-हाट हों और जातीय उत्पादन केंद्र हो। अंतरजातीयता की जहां कोई स्थिति या अवसर ही न हो।
यह भावी भारत के निर्माण के लिए विचार-बिंदु या परिकल्पना है। जातीय जनगणना के द्वारा इस लक्ष्य की स्थिति की दिशा में बढ़ा जा सकता है। जातीय शोषण और भेदभाव रोकने का यह एक महत्वपूर्ण हथियार साबित हो सकता है। कम से कम जातीय जनगणना के पक्षधर ऐसा ही मान कर चल रहे है।
उन्नीसवी सदी के मध्य से लेकर स्वतंत्रता-प्राप्ति तक निम्नजातीय समूहों या कहें दलित और गैर-ब्राह्मण जातियों के अधिकार और अस्मिता के लिए संघर्ष और जातिगत अन्याय के प्रतिरोध की एक लंबी और अटूट श्रृंखला दिखाई देती है। इसमें अलग-अलग कोणों से जाति के प्रभावों का मूल्यांकन किया गया और इस व्यवस्था से मुक्ति के उपाय तलाशे गए। संघर्ष और प्रतिरोध की यह अखिल भारतीय परिघटना थी जिसने अपने समय के महान दलित या गैर-ब्राह्मण नेतृत्व को खड़ा किया, जैसे महात्मा ज्योतिबा फुले, ईवी रामास्वामी नायकर ‘पेरियर’ एमसी राजा, केशवराम जेढ़े और डा भीमराव अंबेडकर।
इसके पीछे अछूत जातियों के बीच उभरे भक्ति आंदोलनों की शक्ति भी थी जिन्होंने भक्ति और सामाजिक समता का संदेश दिया, जैसे- श्रीनारयण धर्म परिपाल योगम, मातुआ पंथ, सतनाम पंथ, बलहारी पंथ आदि। इस दौर में न सिर्फ अस्पृश्यों या दलितों ने अपना संगठित प्रतिरोध दर्ज किया, बल्कि गैर ब्राह्मण और गैर-दलित जातियों के संगठन भी बने जिनका उद्देश्य राजनीति, शिक्षा और रोजगार में अपने लिए अधिक से अधिक संभावनाएं तलाश करना था।
हरबर्ट रिजले प्रख्यात नृशास्त्री थे जिन्होंने जाति की नृतात्त्विक आधार पर विवेचना की। 1901 में उन्हें जनगणना कमिश्नर बनाया गया और उन्होंने पहली बार जातियों की गिनती, उनका वर्गीकरण और सोपानक्रम में उनकी स्थिति-निर्धारण कर सभी जरूरी सूचनाएं दर्ज करने का प्रस्ताव किया। ब्रिटिश राज के इस प्रस्ताव को संदेह की दृष्टि से देखा गया और पहले की तुलना में ढीले पड़ते जा रहे जातीय सोपानक्रम को रूढ़ और अपरिवर्तनीय बनाने का ‘सरकारी प्रयास’ कहा गया। इसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया यह हुई कि विभिन्न जातियों और जातीय समूहों ने जातीय श्रेणीक्रम में अपने लिए उच्चतर श्रेणी की मांग की और दावें पेश किए।
इस समय अनेक जातीय संगठन अस्तित्व में आए। उस समय इन संगठनों ने विभिन्न जातियों की एक राजनीतिक भूमिका निश्चित की और शिक्षा और रोजगार के अवसरों पर उच्च जातियों के एकाधिकार को तोड़ने के लिए सक्रिय हुए। इस प्रकार उपरी तौर पर आत्मकेंद्रित और प्रतिगामी दिखाते हुए भी ये जातीय संगठन उस समय अपनी-अपनी जातियों के लिए आधुनिकीकरण का संवाहक भी बने और अपनी गतिविधियों का एक औचित्य भी प्रस्तुत किया।
बाद में 1931 की जनगणना में अंतिम बार जातियों का संदर्भ आया। स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना (1951) में जातीय गणना को निषिद्ध किया गया। कारण यह रहा कि नवस्वतंत्र देश में राष्ट्र-निर्माताओं और नीति-निर्धारकों ने नागरिकता के प्रश्न को अधिक महत्वपूर्ण माना। वह समय देश के हर वर्ग, जाति, धर्म और क्षेत्र के नागरिकों को राष्ट्र-निर्माण के लिए एकबद्ध और एकनिष्ठ बनाने का था। देश अभी-अभी विभाजन की विभीषिका से उबरा था और धर्म इसका कारण बना था। सामाजिक विभेद को सिकी भी कीमत पर एक और विभाजन का कारण नहीं बनने देना था। देश की अखंडता को कई ओर से चुनौतियां मिल रही थी।
हर प्रांत, शहर, कस्बे, गांव, मुहल्ले में सदियों से साथ-साथ रहते आए हिंदू-मुसलमान जब अलग-अलग देशों के नागरिक बन सकते थे, तब जाति को विभाजन का उतना पूख्ता आधार न मानना उस समय एक खुशफहमी पालने जैसा ही था। आज भले ही गांधीजी के पूना-उपवास को प्रपंच बताने की कोशिश हो, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए िकवे वास्तव में अपने स्तर से एक राजनीतिक विभाजन को रोकने की कोशिश कर रहे थे। वे अगर विफल होते तो कहना मुश्किल है कि आज भारत का मानचित्र कैसा होता। इसलिए 1951 की जनगणना में जाति को शामिल न करने के पीछे आज कोई षड्यंत्र न देखकर उस समय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखने की जरूरत हैं।
भारत में आज दलित और पिछड़ी जातियों की स्थिति वैसी ही नहीं है जैसी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय थी। देश की राजनीति की वास्तविक नियंता आज यही है। लोकतंत्र संख्याबल से चलता है जो इन्ही के पास है। संसद से लेकर विधानमंडलों में इनकी मजबूत उपस्थिति हैं। पिछड़ी जातियां न सिर्फ राजनीतिक वर्चस्व, बल्कि भूमि-अधिकार के मामले में भी आज आगें है। सवर्णों की जोतें पिछड़ी, विशेषकर मध्य जातियों को हस्तांतरित हुई है। आज गांवों की शक्ति-संरचना बदल चुकी हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में औद्योगीकरण, शहरीकरण और विकास की परिघटना में जातीय बंधनों को बहुत हद तक शिथिल कर दिया है और जातीय पहचाने धूमिल हुई है। दूसरी ओर एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भारत की उपलब्धियां भी कम नहीं है। और यह सब अब तक जातीय गणना के बिना हुआ। वह भी तब, जबकि देश के पिछड़े-दलित नेतृत्व ने सार्वजनिक जीवन में सवर्णवादी मूल्यों से जरा भी अलग दिखने की जरूरत नहीं समझी।
आज भारतीय नागरिकता के उपर जाति की सदस्यता को हावी होने देने का क्या कारण हो सकता है? होना तो यह चाहिए कि हम अब आगे जातीय पहचानों के विलोपीकरण की ओर बढ़े, लेकिन स्थिति यह है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर उन आग्रहों का भारी दबाव है जो लोकतंत्र-पूर्व के हमारे सामाजिक-राजनीतिक व्यवहार के नियामक रहे है। जातीय पहचानों को किसी न किसी बहाने कायम रखने का आग्रह इसी से जुड़ा है और इसके लिए सभी दोषी हैं। वास्तविकता यह है कि जातियों की गणना किए बिना भी हम इस व्यवस्था में असमानता, अन्याय और शोषण की पड़ताल करते रहे हैं और इसका समाधान भी ढूंढते रहे है।
पिछले छह दशकों में पूरे देश में समय-समय पर हुए आंदोलनों और संघर्ष इसका प्रमाण हैं, जिनका आधार अंतरजातीयता रहा है। भारत की जनता ने चुपचाप कभी कुछ भी नहीं स्वीकार किया। अब यह समय बताएगा कि भविष्य में निर्माण और प्रतिकार की शक्ति हमें भारतीय जन से जुटानी है या जाति-जन से।
हमारे अंदर बुराइयां हर समय रहती है, लेकिन हम उन्हें ढ़कते है और अच्छाइयों को बाहर लाते है। जाति-धर्म आधारित भेदभाव हमारे सामाजिक जीवन की बुराइयां अच्छाइयों में नहीं बदल जाएंगी। भारत की श्रेणीबद्ध समाज-व्यवस्था को चुनौती देने के लिए श्रेणियों की नए सिरे से पहचान और उनके प्रति स्वीकार से कितनी सहायता मिल सकती है?
जातीय पहचानों को अटूट रख कर अन्य पहचानों- भाषाई, धार्मिक, क्षेत्रीय, नृतात्विक आदि- को किस प्रकार संयमित रखा जा सकता है? इन्हें तो उलटे इससे उकसावा मिलेगा। दूसरी ओर, अगर ध्यान से देखे तो भारत में जातीय संघर्ष सवर्ण बनाम अवर्ण के आधार पर ही नहीं हुए। पिछड़ी जातियों दलित जातियों और जनजातियों के बीच भी आपसी प्रतिद्वंद्विता रही है। जातीय गणना से, संभव है, कमजोरों को अपनी बिरादरी की नई शक्ति (संख्याबल) का अहसास हो, लेकिन वही ंपहले से ताकतवर जातियों के उन्मत्त होने का भी खतरा है। जातिवाद के ज्वार को स्वयं पिछड़ों और दलितों का नेतृत्व नहीं रोक सकेगा।
यह केवल सवर्णों की चिंता नहीं होनी चाहिए। वास्तव में जाति का जनसंख्यात्मक पक्ष ऐसा संकट पैदा कर सकता है जिसके परिणामों का आकलन हम अभी से नहीं कर सकते। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग जाति-समूह प्रभावी है। उनकी प्रभुता के खिलाफ भी कोई एक जाति नहीं, बल्कि जाति-समूह सक्रिय है। भूमंडलीकरण में कमजोर होते जा रहे भारतीय गावों में एक नए प्रकार के संघर्ष की जमीन तैयार होगी, एक ऐसा संघर्ष की जमीन तैयार होगी, एक ऐसा संघर्ष जो अंगुलियों को तो संभव है मजबूत बनाए, लेकिन जिससे मुट्ठी नहीं बन सकेगी।
इसलिए यह बात समझनी होगी कि जाति से नहीं, बल्कि अंतरजातीयता से भारतीय समाज का वर्गीय आधार विकसित होगा। जातीय गणना इस रास्ते की बाधा है, न कि सुविधा। यह आकस्मिक नहीं कि भारतीय समाज की जितनी भी क्रांतिकारी या परिवर्तनकामी धाराएं रही है उन्होंने जातीय पहचानों को हमेशा गौण स्थान दिया।
यह जाति से मुंह चुराना नहीं, बल्कि उसके प्रभाव को कम से कमतर करते जाना था जिससे कि बदलाव की चेतना क्षैतिज विभाजनों में बंट कर निष्प्रभावी न हो जाए। यह बात भूदान से लेकर तेलंगाना, नक्सलबाड़ी से लेकर संपूर्ण क्रांति, चिपको से लेकर सरदार सरोवर तक, किसी भी आंदोलन से समझी जा सकती है। स्वतंत्रता आंदोलन के बाद इन आंदोलनों ने हमारी राष्ट्रीयता और हमारे लोकतंत्र को पुष्ट किया है। अब यह हमारे नेतृत्व को तय करना है कि हमें किस ओर वे ले जाना चाहते हैं। फिलहाल तो वे उस ओर देखना भी गवारा नहीं कर रहे जहां युवा प्रेम कर रहे है और मारे जा रहे है। फिर भी प्रेम कर रहे है।
जाति जनगणना के बगैर लेखक :- शिवदयाल
कई बार ऐसा लगता है जैसे भारत इकतीस राज्यों का नहीं, बल्कि छह हजार जातियों का संघ है। जाति को भारतीय समाज का एकमात्र और अंतिम सत्य मानने वालों की अगर चले, तो एक दिन शायद ऐसा होकर रहे। भारत को आधिकारिक रूप् से छह हजार चार सौ या फिर उतनी जातियों का जितनी कि नई जनगणना में गिनती आएं, संघ घोषित कर दिया जाए। तब क्या होगा? तब ये सारे मसले हल हो जाएंगे जो जाति से जुड़े है।
जातियों के संघ वाले भारत में प्रत्येक जाति को वे सब अधिकार दे दिए जाएं जो अभी राज्यों को है। इससे हर जाति को विकास करने का बराबर अवसर मिलेगा औरयह शिकायत नहीं रह जाएगी कि कोई दूसरा उनकी राह का रोड़ा बन रहा हैं। जाति को सर्वेसर्वा मानने वालों के लिए यह एक महान मूल्य होना चाहिए, ऐसे समाज और ऐसे राष्ट्र की स्थापना ही उनका अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। ऐसे समाज में क्रांति या बदलाव की जरूरत अगर होगी तो सिर्फ इसलिए कि किस प्रकार भारतीय समाज को स्वतंत्रता आंदोलन-पूर्व, बल्कि औद्योगीकरण-पूर्व की स्थिति में कितनी जल्दी पहुंचा दिया जाए जहां जातीय टोले हों, जातीय पंचायतें हो, जातीय बाजार-हाट हों और जातीय उत्पादन केंद्र हो। अंतरजातीयता की जहां कोई स्थिति या अवसर ही न हो।
यह भावी भारत के निर्माण के लिए विचार-बिंदु या परिकल्पना है। जातीय जनगणना के द्वारा इस लक्ष्य की स्थिति की दिशा में बढ़ा जा सकता है। जातीय शोषण और भेदभाव रोकने का यह एक महत्वपूर्ण हथियार साबित हो सकता है। कम से कम जातीय जनगणना के पक्षधर ऐसा ही मान कर चल रहे है।
उन्नीसवी सदी के मध्य से लेकर स्वतंत्रता-प्राप्ति तक निम्नजातीय समूहों या कहें दलित और गैर-ब्राह्मण जातियों के अधिकार और अस्मिता के लिए संघर्ष और जातिगत अन्याय के प्रतिरोध की एक लंबी और अटूट श्रृंखला दिखाई देती है। इसमें अलग-अलग कोणों से जाति के प्रभावों का मूल्यांकन किया गया और इस व्यवस्था से मुक्ति के उपाय तलाशे गए। संघर्ष और प्रतिरोध की यह अखिल भारतीय परिघटना थी जिसने अपने समय के महान दलित या गैर-ब्राह्मण नेतृत्व को खड़ा किया, जैसे महात्मा ज्योतिबा फुले, ईवी रामास्वामी नायकर ‘पेरियर’ एमसी राजा, केशवराम जेढ़े और डा भीमराव अंबेडकर।
इसके पीछे अछूत जातियों के बीच उभरे भक्ति आंदोलनों की शक्ति भी थी जिन्होंने भक्ति और सामाजिक समता का संदेश दिया, जैसे- श्रीनारयण धर्म परिपाल योगम, मातुआ पंथ, सतनाम पंथ, बलहारी पंथ आदि। इस दौर में न सिर्फ अस्पृश्यों या दलितों ने अपना संगठित प्रतिरोध दर्ज किया, बल्कि गैर ब्राह्मण और गैर-दलित जातियों के संगठन भी बने जिनका उद्देश्य राजनीति, शिक्षा और रोजगार में अपने लिए अधिक से अधिक संभावनाएं तलाश करना था।
हरबर्ट रिजले प्रख्यात नृशास्त्री थे जिन्होंने जाति की नृतात्त्विक आधार पर विवेचना की। 1901 में उन्हें जनगणना कमिश्नर बनाया गया और उन्होंने पहली बार जातियों की गिनती, उनका वर्गीकरण और सोपानक्रम में उनकी स्थिति-निर्धारण कर सभी जरूरी सूचनाएं दर्ज करने का प्रस्ताव किया। ब्रिटिश राज के इस प्रस्ताव को संदेह की दृष्टि से देखा गया और पहले की तुलना में ढीले पड़ते जा रहे जातीय सोपानक्रम को रूढ़ और अपरिवर्तनीय बनाने का ‘सरकारी प्रयास’ कहा गया। इसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया यह हुई कि विभिन्न जातियों और जातीय समूहों ने जातीय श्रेणीक्रम में अपने लिए उच्चतर श्रेणी की मांग की और दावें पेश किए।
इस समय अनेक जातीय संगठन अस्तित्व में आए। उस समय इन संगठनों ने विभिन्न जातियों की एक राजनीतिक भूमिका निश्चित की और शिक्षा और रोजगार के अवसरों पर उच्च जातियों के एकाधिकार को तोड़ने के लिए सक्रिय हुए। इस प्रकार उपरी तौर पर आत्मकेंद्रित और प्रतिगामी दिखाते हुए भी ये जातीय संगठन उस समय अपनी-अपनी जातियों के लिए आधुनिकीकरण का संवाहक भी बने और अपनी गतिविधियों का एक औचित्य भी प्रस्तुत किया।
बाद में 1931 की जनगणना में अंतिम बार जातियों का संदर्भ आया। स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना (1951) में जातीय गणना को निषिद्ध किया गया। कारण यह रहा कि नवस्वतंत्र देश में राष्ट्र-निर्माताओं और नीति-निर्धारकों ने नागरिकता के प्रश्न को अधिक महत्वपूर्ण माना। वह समय देश के हर वर्ग, जाति, धर्म और क्षेत्र के नागरिकों को राष्ट्र-निर्माण के लिए एकबद्ध और एकनिष्ठ बनाने का था। देश अभी-अभी विभाजन की विभीषिका से उबरा था और धर्म इसका कारण बना था। सामाजिक विभेद को सिकी भी कीमत पर एक और विभाजन का कारण नहीं बनने देना था। देश की अखंडता को कई ओर से चुनौतियां मिल रही थी।
हर प्रांत, शहर, कस्बे, गांव, मुहल्ले में सदियों से साथ-साथ रहते आए हिंदू-मुसलमान जब अलग-अलग देशों के नागरिक बन सकते थे, तब जाति को विभाजन का उतना पूख्ता आधार न मानना उस समय एक खुशफहमी पालने जैसा ही था। आज भले ही गांधीजी के पूना-उपवास को प्रपंच बताने की कोशिश हो, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए िकवे वास्तव में अपने स्तर से एक राजनीतिक विभाजन को रोकने की कोशिश कर रहे थे। वे अगर विफल होते तो कहना मुश्किल है कि आज भारत का मानचित्र कैसा होता। इसलिए 1951 की जनगणना में जाति को शामिल न करने के पीछे आज कोई षड्यंत्र न देखकर उस समय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखने की जरूरत हैं।
भारत में आज दलित और पिछड़ी जातियों की स्थिति वैसी ही नहीं है जैसी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय थी। देश की राजनीति की वास्तविक नियंता आज यही है। लोकतंत्र संख्याबल से चलता है जो इन्ही के पास है। संसद से लेकर विधानमंडलों में इनकी मजबूत उपस्थिति हैं। पिछड़ी जातियां न सिर्फ राजनीतिक वर्चस्व, बल्कि भूमि-अधिकार के मामले में भी आज आगें है। सवर्णों की जोतें पिछड़ी, विशेषकर मध्य जातियों को हस्तांतरित हुई है। आज गांवों की शक्ति-संरचना बदल चुकी हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में औद्योगीकरण, शहरीकरण और विकास की परिघटना में जातीय बंधनों को बहुत हद तक शिथिल कर दिया है और जातीय पहचाने धूमिल हुई है। दूसरी ओर एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भारत की उपलब्धियां भी कम नहीं है। और यह सब अब तक जातीय गणना के बिना हुआ। वह भी तब, जबकि देश के पिछड़े-दलित नेतृत्व ने सार्वजनिक जीवन में सवर्णवादी मूल्यों से जरा भी अलग दिखने की जरूरत नहीं समझी।
आज भारतीय नागरिकता के उपर जाति की सदस्यता को हावी होने देने का क्या कारण हो सकता है? होना तो यह चाहिए कि हम अब आगे जातीय पहचानों के विलोपीकरण की ओर बढ़े, लेकिन स्थिति यह है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर उन आग्रहों का भारी दबाव है जो लोकतंत्र-पूर्व के हमारे सामाजिक-राजनीतिक व्यवहार के नियामक रहे है। जातीय पहचानों को किसी न किसी बहाने कायम रखने का आग्रह इसी से जुड़ा है और इसके लिए सभी दोषी हैं। वास्तविकता यह है कि जातियों की गणना किए बिना भी हम इस व्यवस्था में असमानता, अन्याय और शोषण की पड़ताल करते रहे हैं और इसका समाधान भी ढूंढते रहे है।
पिछले छह दशकों में पूरे देश में समय-समय पर हुए आंदोलनों और संघर्ष इसका प्रमाण हैं, जिनका आधार अंतरजातीयता रहा है। भारत की जनता ने चुपचाप कभी कुछ भी नहीं स्वीकार किया। अब यह समय बताएगा कि भविष्य में निर्माण और प्रतिकार की शक्ति हमें भारतीय जन से जुटानी है या जाति-जन से।
हमारे अंदर बुराइयां हर समय रहती है, लेकिन हम उन्हें ढ़कते है और अच्छाइयों को बाहर लाते है। जाति-धर्म आधारित भेदभाव हमारे सामाजिक जीवन की बुराइयां अच्छाइयों में नहीं बदल जाएंगी। भारत की श्रेणीबद्ध समाज-व्यवस्था को चुनौती देने के लिए श्रेणियों की नए सिरे से पहचान और उनके प्रति स्वीकार से कितनी सहायता मिल सकती है?
जातीय पहचानों को अटूट रख कर अन्य पहचानों- भाषाई, धार्मिक, क्षेत्रीय, नृतात्विक आदि- को किस प्रकार संयमित रखा जा सकता है? इन्हें तो उलटे इससे उकसावा मिलेगा। दूसरी ओर, अगर ध्यान से देखे तो भारत में जातीय संघर्ष सवर्ण बनाम अवर्ण के आधार पर ही नहीं हुए। पिछड़ी जातियों दलित जातियों और जनजातियों के बीच भी आपसी प्रतिद्वंद्विता रही है। जातीय गणना से, संभव है, कमजोरों को अपनी बिरादरी की नई शक्ति (संख्याबल) का अहसास हो, लेकिन वही ंपहले से ताकतवर जातियों के उन्मत्त होने का भी खतरा है। जातिवाद के ज्वार को स्वयं पिछड़ों और दलितों का नेतृत्व नहीं रोक सकेगा।
यह केवल सवर्णों की चिंता नहीं होनी चाहिए। वास्तव में जाति का जनसंख्यात्मक पक्ष ऐसा संकट पैदा कर सकता है जिसके परिणामों का आकलन हम अभी से नहीं कर सकते। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग जाति-समूह प्रभावी है। उनकी प्रभुता के खिलाफ भी कोई एक जाति नहीं, बल्कि जाति-समूह सक्रिय है। भूमंडलीकरण में कमजोर होते जा रहे भारतीय गावों में एक नए प्रकार के संघर्ष की जमीन तैयार होगी, एक ऐसा संघर्ष की जमीन तैयार होगी, एक ऐसा संघर्ष जो अंगुलियों को तो संभव है मजबूत बनाए, लेकिन जिससे मुट्ठी नहीं बन सकेगी।
इसलिए यह बात समझनी होगी कि जाति से नहीं, बल्कि अंतरजातीयता से भारतीय समाज का वर्गीय आधार विकसित होगा। जातीय गणना इस रास्ते की बाधा है, न कि सुविधा। यह आकस्मिक नहीं कि भारतीय समाज की जितनी भी क्रांतिकारी या परिवर्तनकामी धाराएं रही है उन्होंने जातीय पहचानों को हमेशा गौण स्थान दिया।
यह जाति से मुंह चुराना नहीं, बल्कि उसके प्रभाव को कम से कमतर करते जाना था जिससे कि बदलाव की चेतना क्षैतिज विभाजनों में बंट कर निष्प्रभावी न हो जाए। यह बात भूदान से लेकर तेलंगाना, नक्सलबाड़ी से लेकर संपूर्ण क्रांति, चिपको से लेकर सरदार सरोवर तक, किसी भी आंदोलन से समझी जा सकती है। स्वतंत्रता आंदोलन के बाद इन आंदोलनों ने हमारी राष्ट्रीयता और हमारे लोकतंत्र को पुष्ट किया है। अब यह हमारे नेतृत्व को तय करना है कि हमें किस ओर वे ले जाना चाहते हैं। फिलहाल तो वे उस ओर देखना भी गवारा नहीं कर रहे जहां युवा प्रेम कर रहे है और मारे जा रहे है। फिर भी प्रेम कर रहे है।
लव स्टोरी या सामाजिक बीमारी?
देशपाल सिंह पंवार
मीडिया असली हीरो ढूंढे : 'दिन में ही जुगनुओं को पकड़ने की जिद करें, बच्चे हमारे दौर के चालाक हो गए' -परवीन शाकिर। देश में लोकराज है। अधिकारों का साज है। सबको नाज है। होना भी चाहिए। पर ये कौन सा काज है? क्यों लोकलाज नासाज है? क्यों संस्कारों पर गाज है? क्यों कल को मिटाता आज है? क्यों यमराज का राज है? लोकतंत्र में आजादी के ये कौन-से मायने निकाले जा रहे हैं? सावन की फुहार की बजाय क्यों गरम बयार के पंखे झुलाए जा रहे हैं? समाज के तपने में हाथ तापने की गलत सोच पर भी क्यों सीने फुलाए जा रहे हैं? आखिर ये कौन सा संसार और कैसा प्यार? सारी हदें पार। शर्मोहया तार-तार। संस्कारों की हार। रिश्तों पर वार। अपने बेजार। मानवता शर्मसार। ये कहां आ गए हैं हम? हक के नाम पर, मनमर्जी के नाम पर गोत्र में प्यार व शादी की जिद करने वाले बालक की आंखों में शर्म नहीं दिख रही है, न पालक धर्म की राह पर जाते नजर आ रहे हैं।
न ही मीडिया असली कर्म की कमाई खा रहा है। नेता रूपी चालक से न पहले कोई आस थी, न आज है। वे कल भी भ्रम में थे, आज ज्यादा हैं। कल क्या होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है-बापू को नमन और चमन का पतन। ऐसे में सामाजिक ताने-बाने के संकरे होते रास्ते कितनी देर और कितनी दूर साथ लेकर चल पाएंगे? आज यह सवाल हर समय मथ रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र में सबको तमाम हक हैं। प्यार पर भी बंदिशें नहीं हैं। तय उम्र के बाद शादी पर भी रोक नहीं है, लेकिन इस हक का मतलब हद पार करना नहीं है। असली दिक्कत यही है कि हक की किताब तो बांच ली गई पर हद को न तो जानने की कोशिश की गई, न समझने की। मानना तो दूर की बात है। जहां-जहां हद पर हक का पलड़ा झुका, वहां यही हुआ, जोआज हरियाणा में हो रहा है। सारे देश में हो रहा है। लाख टके का सवाल यही है कि कंधे पर लैपटाप, कान पर मोबाइल, आंख पर चश्मा लगाकर चलने वाली ये कौम क्या प्यार की कहानी का सारा फिल्माकंन दिल व घर की चाहरदीवारी से बाहर सड़क पर करना चाहती है? संविधान की किस धारा में ये अधिकार मिला है कि लिहाफ सड़क पर बिछाया जाएगा? मां-बाप की इज्जत को सरेआम उछाला जाएगा? बहन (गांव की लड़की) को बीवी बनाया जाएगा? समाज और संविधान की किस धारा में लिखा है और कहां से ये हक मिला है कि बालक पल में अपने पालक को ही नालायक का दर्जा दे डालें? आजादी के ये मायने तो नहीं थे। सवाल यह भी है कि संविधान की किस धारा में किसी भी शख्स, किसी भी गोत्र, किसी भी खाप को खून बहाने की आजादी मिली है, चाहे वो अपनो का ही क्यों न हो? मूंछ के सवाल पर समाज और कानून को हलाल नहीं किया जा सकता। वैसे ये एक सामाजिक समस्या है, इसे न तो कोई गोत्र, न कोई खाप, न कोई राजनीतिक दल, न कानून की कोई धारा इस हांके से हांक सकती, जो आज हरियाणा के हर गांव-गली और कूंचों में लगाया जा रहा है। यह एक संवेदनशील मामला है। नेतागिरी जितना दूर रहेगी, उतना ही अच्छा। मानवाधिकारों का डंका पीटने वालों को भी तह में जाना होगा। हल्ले से ये ठीक नहीं होगा। सख्ती से इसे दबाया नहीं जा सकता। किसी सजा से भी इसका समाधान नहीं निकलने वाला। घर-गांव, गोत्र और खाप वालों को भी निष्कासन से आगे की हद नहीं लांघनी चाहिए। गांव से निकालने के फैसले के पीछे समाज को बचाने का तर्क दिया जा सकता है लेकिन कानून को हाथ में लेने और किसी को मारने का अधिकार न किसी शख्स को है, न किसी समाज को है, न किसी गोत्र को है, न किसी खाप और सर्वखाप को।
सबको ये समझने की भी जरूरत है कि ऐसे मामले क्यों होते हैं? कोई एक-दो गोत्र हों तो ऐसी दिक्कतें शायद ही पैदा हों, लेकिन हरियाणा, राजस्थान, यूपी और देश के विभिन्न हिस्सों में जाटों के चार वंश और 2700 से ज्यादा गोत्र हैं। दिन-रात का साथ है। ऐसे में गांव स्तर पर संस्कार विहीन बच्चों से गलती हो जाती है। यहां शादी कानून की नजर में चाहे जायज ठहराई जा सकती हो लेकिन समाज और नैतिकता की कसौटी पर इसे सही नहीं माना जा सकता। स्कूल-कालेज में पढ़ते समय गोत्र जैसी बातें युवा पीढ़ी को बेमायने नजर आने लगती हैं। प्रेमिका की कसौटी पर खरा उतरने के वास्ते सारे संस्कार बौने लगने लगते हैं। क्या ये जायज है? यह एक मनोवैज्ञानिक पहलू और सामाजिक बहस का संवेदनशील मुद्दा है जिसे चंद शब्दों से न तो जताया जा सकता, न ही कोई रास्ता निकाला जा सकता है। जहां तक गोत्र का सवाल है तो यह एक संस्कृत टर्म है। वैदिक राह पर चलने वालों ने इसे पहचाना तथा सामाजिक मान-सम्मान कायम रखने के वास्ते शुरू किया था। महर्षि पाणिनी ने लिखा था-उपत्यं प्रौत्रं प्रभृति गौत्रम। पहले किसी खास इंसान, जगह, भाषा और ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर गोत्र बनते गए। जहां कोई महान शख्स हुआ, उसके नाम पर गोत्र बन गया। रजवाड़ों के जाने के बाद वंश व गोत्र बढ़ने का ये सिलसिला थमा है। हां, यह जरूर है कि जैसे जाति और वंश नहीं बदल सकते, उसी तरह गोत्र भी नहीं बदल सकते। एक वंश में एक से ज्यादा गोत्र हो सकते हैं लेकिन एक गोत्र में एक से ज्यादा वंश नहीं हो सकते। जैसे चौहान वंश में 116 गोत्र हैं। जिस समय ये परंपरा शुरू हुई थी तो उसी समय ये बंदिशें लागू हो गई थीं कि समान गोत्र में शादी नहीं हो सकती। इसके पीछे सामाजिक और वैज्ञानिक कारण थे। वंश की सेहत और नैतिक मूल्यों की रक्षा के तर्क थे। मानव धर्मशास्त्र के चैप्टर-3 और श्लोक 5 में भी कहा गया है- अस पिण्डा च या मातुर गौत्रा च या पितु:, सा प्रशस्ता द्विजातीनां दार, कर्माणि मैथुने। यानि बाप के गोत्र और मां की छह पीढ़ियों के गोत्र में लड़की की शादी जायज नहीं। हिंदुओं में शादी का जो परंपरागत प्रावधान है वो भी यही कहता है कि चार गोत्र का खास ख्याल रखो- यानि मां, पिता, पिता की मां और मां की मां (नानी) के गोत्र में शादी वर्जित है। हरियाणा में जिस पर हल्ला हो रहा है, वह इसी हदके उल्लंघन का नतीजा है। सब जानते हैं कि भारत गांवों में बसता है। गांवों का सारा ताना-बाना आज इसी वजह से मजाबूत है क्योंकि वहां हर लड़की बहन और हर लड़का भाई समझा और माना जाता है, चाहे वो किसी भी जात का क्यों ना हो? दिन-रात ताऊ और चाचा कहने वालों की बेटियों को क्या बहू बनाया जा सकता है? ऐसा होना सामाजिक और नैतिक मूल्यों का पतन नहीं है? जब-जब इस हद को लांघा जाएगा, जाहिर सी बात है कि समाज में उथल-पुथल होगी और अमूमन कड़वे नतीजे ही सामने आएंगे। जिस प्यार व शादी से अगर रिश्ते टूटते हों, समाज बिखरता हो, परिवार बेइज्जत होता हो, खून बहता हो तो उसे प्यार कैसे माना जा सकता है? प्यार तो बलिदान मांगता है। यहां तो वो खून बहा रहा है। जाटों में अमूमन जर, जोरू और जमीन के ही विवाद होते हैं। प्यार व शादी के विवाद कई बार गोत्र में नहीं सुलझ पाते। गांव पंचायतों में नहीं निपट पाते। न्याय के वास्ते इससे ऊपर खाप हैं और फिर आखिरी सर्व खाप। यानि हरियाणा की सर्व खाप। ऐसे मामलों में ज्यादातर हुक्का-पानी बंद और गांव से निष्कासन के ही फैसले आते हैं। खाप का इतिहास बेहद पुराना है। आन-बान-शान के लिए मर मिटने का। अतीत से आज तक इसे सामाजिकप्रशासन का दर्जा मिला हुआ है। कुछ गांवों को मिलकर खाप बनती हैं। जैसे 84 गांव की खाप। एक गोत्र एक ही खाप में रह सकता है। पंचायतें जब मामले नहीं निपटा पातीं तो वे खाप में जाते हैं और जब दो खाप में पेंच फंस जाते हैं तो फिर हरियाणा की सर्व खाप तय करती है। इसके सारे फैसले माने जाते हैं। कई बार उन्हें कानून की अदालतों में चुनौती दे दी जाती है। लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता और इतिहास गवाह है कि इस व्यवस्था से हमलावरों के खिलाफ तमाम जंग लड़ी और जीती गई तथा सामाजिक झगड़े सर्वखाप स्तर पर निपटते रहे। चाहे वह मुल्तान में हंसके खिलाफ जंग हो, मोहम्मद गौरी के खिलाफ तारोरी की जंग हो या अलाउद्दीन खिलजी के खिलाफ हिंडन और काली नदी की जंग हो या फिर 1398 में तैमूर के खिलाफ जंग हो। सबमें खाप व सर्वखाप ने निर्णायक रोल अदा किया। इतिहास बेहद लंबा चौड़ा है। चंद शब्दों में समेटना आसान नहीं पर, सच यही है कि सर्वखाप के सामने तब दुश्मन होते थे, अब अपने हैं। चाहे जितना समय बदल गया हो खाप और सर्व खाप की महत्ता इस समाज में आज भी उतनी ही है। इससे छेड़छाड़ के नतीजे ज्यादा खराब हो सकते हैं। इस व्यवस्था को बनाने का श्रेय आर्यसमाज को ही जाता है। जिसकी संस्कारों की मजबूत नींव पर यह बुलंद इमारत खड़ी हुई थी। जिसे हिलाने की कोशिशें होती रहती हैं। युवा पीढ़ी को यह तय करना ही होगा कि क्या भाई-बहन और मां-बाप से बढ़कर भी प्यार है? यह भी तय हो जाना चाहिए कि क्या प्यार कौम, समाज और राज्य से भी बढ़कर है? इस युवा पीढ़ी को गौरवशाली इतिहास का एहसास कराना भी जरूरी है ताकि वो उस पर नाज करे। गाज गिराने वाला साज न बजाए। प्यार करो पर हद में। हद से बाहर भद्द ही पिटेगी। चाहे जात जो भी हो, धर्म जो भी हो।
एक और बात। यह कोई लैला-मजनूं का किस्सा भी नहीं है कि मीडिया इसे फिल्मी कहानी की तरह पेश करे। खासकर टीवी चैनल। इतिहास को पढ़े बिना, सामाजिक ढांचे को समझे बिना, गहराई में जाए बिना तालिबानी संसार... प्यार पर वार.... के ढोल बजाना जायज नहीं। सामाजिक बीमारी को लव स्टोरी बनाने की सोच सही नहीं। लोकतंत्र में मिले हक और देश के 21वीं सदी में होने के पाठ मीडिया में बैठे लोगों को फिर पढ़ लेने चाहिए ताकि आग में घी के काम से वे और बदनाम न हों। उनमें यह समझ जरूर होनी चाहिए कि हर धोतीधारी गंवार नहीं होता। हर जींस पहनने वाला देश व समाज की तरक्की का असली चेहरा और ठेकेदार नहीं होता। जिस देश की कल्चर और इतिहास की सारी दुनिया कायल हो, अपनाना चाहती हो, क्या उस देश में 500-700 रुपए की जींस से नैतिक मूल्यों का मूल्यांकन होगा? क्या इसी संस्कृति से देश की वर्तमान तस्वीर और कौम की सुनहरी तकदीर लिखी जाएगी? क्या टीवी चैनल पर बैठे मीडिया के साथी तालिबानी कल्चर को नहीं जानते? उस कल्चर में विस्तर पर बहन के अलावा सब जायज है, यहां ठीक उल्टा है। फिर ये तालिबानी चेहरे कैसे हुए? जिस तरह पूरे देश में प्यार पर वार होते हैं तो फिर इस सारे देश को क्या तालिबानी कहा जाना वाजिब होगा? अगर ये साथी इतिहास पढ़े होते तो अफगानिस्तान और तालिबान से राजस्थान, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रिश्तों को जरूर समझ जाते। समझा पाते। पर जिस कौम को अपना इतिहास मालूम न हो, उनके कथन से समाज में फैलते जहर का एहसास न हो वो जो मरजी हो बोल भी सकते हैं, दिखा भी सकते हैं। किसी गांव वाले से लगातार ये पूछना कि वो बालिग है तो उसने गोत्र में लव मैरिज क्यों नहीं की? गोत्र से बड़ा कानून है। कानून से हक मिला है। यानि गोत्र जाए चूल्हे में, लव मैरिज हो। अगर आज गोत्र की सीमा टूटी है, कल गांव की टूटेगी, परसों घर की। मीडिया ये कौन सा पाठ पढ़ा और सिखा रहा है? ये हक का दुरुपयोग नहीं तो और क्या है? यह हद का अतिक्रमण ही तो है। सवाल यह भी उठता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया की नजर में तरक्की के क्या मापदंड हैं? सड़कों पर समलैंगिक जोड़ों की भरमार, बहन को छोड़ किसी भी लड़की से प्यार, सारी शर्मो हया तार-तार को अगर हम समाज व देश की तरक्की का परिचायक मानबैठे हैं तो फिर इस सवाल पर अब मंथन का समय आ गया है कि देश किस राह पर चलेगा, क्या ऐसी ही तरक्की हमें चाहिए, जहां लाज न हो? कड़वा सच यही है कि टीवी अपनी अपसंस्कृति को देश के हर इंसान में तलाशने और फैलाने में जुटा है। जहां ये नजर नहीं आती, उसे जो चाहे नाम दे दो। मीडिया को इस बात के जवाब तलाशने ही होंगे कि आखिर लव मैरिज ज्यादा विफल क्यों होती हैं? पुरातन शादी की व्यवस्था की सफलता अगर 90 फीसदी से ऊपर है तो लव मैरिज 50 फीसदी से नीचे क्यों है? स क्यों की तह में जाओ, सबको समझाओ, फिर प्यार के बिगुल बजाओ। हमेशा की तरह हरियाणा के मसले पर भी मीडिया ने नासमझी का ही परिचय दिया है।
टीआरपी के लिए फिल्मी परदे के हीरो दिखाने की बजाय अगर मीडिया असली हीरो ढूंढे, पैदा करे तो इस समाज की भी टीआरपी बढ़ेगी, उसकी भी साख बढ़ेगी. आदर्श चेहरों से खाली इस साधु-संतों की धरती पर फिर बहार की फसल उगेगी। हक और हद की दोस्ती मजबूत होगी। न प्यार पर वार होंगे, ना हम शर्मसारहोंगे। मीडिया ये कर सकता है। अगर नहीं तो फिर आग में घी के रोल का फटा ढोल उसकी पोल खोल रहा है। आवाज अगर नहीं सुनाई दे रही है तो यह उनकी बदकिस्मती।
लेखक देशपाल सिंह पंवार वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों दैनिक हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक हैं। इनसे संपर्क करने के लिए आप dpspanwar@yahoo.com या 09303508100 का सहारा ले सकते हैं।
....तो सिर्फ जाट ही बदनाम क्यों हैं?
जगमोहन फुटेला
मैंने बुजुर्गों को बचपन ही से शादी ब्याह के वक्त गोत्र, उसमें भी उपजाति, परिवार के मूल स्थान और रीति रिवाज से लेकर वधु की चूड़ियों के रंग तक का अता पता करते देखा है. ये तय करने के लिए कि शादी मिलते जुलते खानदान के साथ तो हो लेकिन गलती से भी अपनी ही उपजाति के लड़के या लड़की से न हो जाए. खासकर पंजाबियों में ये मान कर चला गया है कि खुराना, कक्कड़, मक्कड़, सलूजा, सुखीजा, कपूर या चावला लड़का और लड़की कभी कोई पुरानी जान पहचान न हो तो भी आपस में भाई-बहन होते हैं.
पुराने ज़माने में संपर्क और सुविधाओं से वंचित समाज में मामा या मौसी के बेटे बेटी के साथ तो शादी जायज़ थी. किसी हद तक आज भी है. लेकिन चाचा या अपनी उपजाति के किसी, कहीं के भी लड़के लड़की की शादी पे पाबंदी थी. आज भी है. एक फर्क के साथ ये पाबंदी मुस्लिम समाज में भी थी. आज भी है. मुसलमानों में दूध के रिश्ते की शादी नाजायज़ है. यानी चाचा के लड़के या लड़की से तो शादी हो सकती है. लेकिन मामा या मौसी के बच्चे से शादी कतई नहीं हो सकती. इस्लाम में ऐसी शादियों को शरीअत के खिलाफ माना गया है. इस तरह की पाबंदियां आप समाज के हर तबके में पायेंगे. मैं भारत की बात कर रहा हूँ. जहां जाट भी रहते हैं. शादी के मामले में कुछ पाबंदियों की परंपरा अपने पूर्वजों से उन्हें भी मिली है शिष्टाचार के तमाम संस्कारों के साथ. और वे लागू भी रही हैं अब से महज़ कुछ महीने पहले तक. स्वभाव से दबंग होने के बावजूद जाट कभी उग्र नहीं हुए. इसलिए कि इसकी नौबत ही नहीं आई.
अब आई है तो वे आपे से बाहर हुए हैं, हिंसक भी. और आप गौर करें इस हिंसा के पीछे भी परिवार की भूमिका कुछ कम, खाप की ज्यादा है. खाप भीड़ होती है. पर लोकतंत्र में भीड़ की भी एक भाषा होती है. अहमियत भी. हिंसा गलत है. कोई भी दलील किसी हत्या को जायज़ नहीं ठहरा सकती. कानून अपना काम करेगा. उसने किया. यहाँ टकराव दिखा. जो खापों को परंपरा में मिले वो संस्कार कानून की किताब में दर्ज नहीं थे. मनोज, बबली की गयी जान और कोई आधा दर्जन लोगों को फांसी के ऐलान के बाद ही सही समाज के संस्कारों और संविधान का सही मेल हो पाए तो ये बड़े पुण्य का काम होगा. मैं मीडिया में अपने मित्रों से उम्मीद करूँगा कि वे खापों को तालिबान बताने की बजाय एक बार अपने भी गिरेबान में झाँक कर देखें. जब खुद उनके परिवारों में फर्स्ट कजिन के साथ शादी नहीं हो सकती तो फिर इसका विरोध करने के लिए जाट ही बदनाम क्यों हैं? कुछ चिंतन मनन अपने अंतःकरण में जाटों और उनकी खापों को भी करना पड़ेगा. पंजाबियों और मुसलमानों ने तो शादी के लिए ददिहाल और ननिहाल में से एक रास्ता बंद किया है. खापों पे इलज़ाम है कि उनने इन दो के अलावा तीसरे और चौथे रास्ते पे भी नाका सा लगा रखा है.
ये ज़रूरी है देश की संसद खापों की हिन्दू मैरिज एक्ट में संशोधन की मांग पर विचार करे. शादी के लिए छत्तीसगढ़ और झारखण्ड से कुछ नज़दीक रास्ते जाटों की नई पीढी को भी दिखने चाहिए. वर्ना बेमेल शादियाँ होंगी. फतवे, खतरे होंगे. अदालतों में फ़रियाद होगी तो सुरक्षा मुहय्या कराने के आदेश भी दिए ही जायेंगे. खापों और पुलिस के बीच टकराव हमेशा रहेगा. इससे मुश्किलें बढेंगी. मतभेद मनभेद में बदले तो सरकार के लिए भी गोली डंडा चलाना दुश्वार हो जाएगा. हम सब अस्थायी असहमति के स्थायी अशांति में बदलने का इंतज़ार क्यों करें? ....मान के चलिए कि चौटाला और नवीन जिन्दलों के बाद "भाई-बहनों" की शादियों के खिलाफ तो जाटों के साथ कल दूसरी बिरादरियां भी होंगी
ऑनर किलिंग का कलंक
देर आयद,दुरुस्त आयद! ऑनर किलिंग के नाम पर प्रेमी और विवाहित जोड़ों की क्रूर हत्याओं को रोकने के लिए दोहरे स्तर पर पहल हुई है।पहली सरकारी स्तर पर,जिसमें केंद्र सरकार देश में कथित तौर पर बढ़ते ऑनर किलिंग को रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में संशोधन करने की तैयारी में है। इस मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रस्ताव को कानून मंत्रालय ने हरी झंडी दे दी है।
गृह मंत्रालय ने परिवार, जाति, धर्म और क्षेत्र के सम्मान के नाम पर होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए कानून मंत्रालय से सुझाव मांगे थे। एक अधिकारी के मुताबिक, इस तरह के जघन्य अपराध ज्यादातर प्रेम विवाह के मामलों में परिवार या पंचायतों के राजी न होने की स्थिति में सामने आते हैं और यह प्रवृत्ति देश के अलग अलग हिस्सों में लगातार बढ़ी है। दोनों मंत्रालय मिलकर आईपीसी में संशोधन का प्रारूप तय करेंगे। सूत्रों के मुताबिक, आगामी बजट सत्र में इस दिशा में ठोस कवायद सामने आ सकती है।दूसरी सामाजिक स्तर पर,जिसमें फेडरेशन ऑफ जाट इंस्टीट्यूशन भी ऑनर किलिंग की समस्या पर राष्ट्रीय स्तर पर समाधान चाहता है।करीब दर्जन भर संगठनों की ये पैतृक संस्था उसी हरियाणा से ताल्लुक रखती है जो ऑनर किलिंग के लिए सबसे ज्यादा बदनाम रहा है।उत्तर प्रदेश जाट महासभा के अध्यक्ष मेजर जनरल(सेवानिवृत) आर एस कोहली भी सरकार आईपीसी में संशोधन के फैसले का स्वागत करते हैं ।वो भी चाहते हैं कि कानूनी तौर पर कुछ ऐसी पहल हो ताकि इस समस्या का समाधान हो सके।
सरकार और समाज ही वो दो सिरे हैं,जो इस सामाजिक-आपराधिक कलंक के लिये सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं।सरकार के पास इस अपराध से निपटने के लिये कोई प्रत्यक्ष कानून नहीं है,और समाज आज भी महिला को जाति सूचक शर्म की वस्तु समझने की अंधी सोच से बाहर नहीं निकल पा रहा है।
ज्यादातर मामलों में हत्या का ये आदेश गांव की जाति पंचायत सुनाती है,जिसे खाप के नाम से जाना जाता है,खाप गांवोंमें चलने वाली समानांतर अदालत होती है,जो खुद को सारे सामाजिक क्रिया-कलापों का ठेकेदार समझती है।
ऑनर
किलिंग के इन मामलों का बुनियादी कारण औरत होती है,जिसे समुदाय की मर्यादा से जोड़कर देखा जाता है,इसलिए पुरुष प्रधान समाज में उसे खुद अपने फैसले लेने का अधिकार भी नहीं होता।खाप अपने समुदाय की स्त्रियों पर पहरा रखती है और समाज के लड़के से उसके प्रेम को अपमान मानकर उनकी हत्या के फरमान जारी कर देती है।
इन
पंचायतों पर धन और बल वालों का हाथ होता है,इसलिए अक्सर इनका फैसला भी कमज़ोर लोगों के खिलाफ ही होता है,जिसे मानना अनिवार्य होता है। गांव की चुनी हुई पंचायतें इन जाति पंचायतों के सामने गूंगी होती हैं,और प्रशासन अपंग बना रहता है।धर्म,संस्कृति और स्त्रियों के भविष्य निर्धारित करने वाले खाप के स्वयंभू पंच प्रेमी जोड़ों को निर्वस्त्र कर गांव में घुमाने,फांसी चढ़ा देने या जला कर मार देने की सज़ा सुनाते रहे हैं।
मार्च
2007 में उत्तर प्रदेश के आगरा में उन्नीस वर्षीया गुड़िया और इक्कीस वर्षीय महेश को तो दोहरी सज़ा मिली,उनकी हत्या के बाद शव को टुकड़े-टुकड़े करके जला दिया गया।इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ऐसा करके संदेश दिया गया कि अगर कोई और प्रेम करने या शादी करने की हिमाकत करे तो उसका यही हश्र होगा।हरियाणा के जींद ज़िले में,जाति पंचायत के आदेश के बाद वेदपाल मोर को उसकी नवविवाहिता पत्नी के परिजनों और गांव वालों ने डेढ़ दर्ज़न पुलिस वालों की मौज़ूदगी में ना सिर्फ बेरहमी से मार डाला बल्कि,प्रेम विवाह करने वालों को सबक सिखाने के लिये शव को सड़क पर रख उसकी नुमाइश भी की।इस घटना के 24 घंटे बाद ही झज्जर ज़िले के धारणा गांव की जाति पंचायत ने रविंद्र और शिल्पा को मौत के घाट उतारने का हुक्म जारी किया था,जो अपने परिवार सहित गांव छोड़ कर भागने पर मज़बूर हुआ,और आज भी घर वापिस नहीं लौट सका है।
ऑनर
किलिंग के लिये हरियाणा के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश सबसे ज़्यादा बदनाम रहा है,एक आंकड़े के अनुसार वर्ष 2005 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अकेले मुज़फ्फरनगर ज़िले में ही ऑनर किलिंग के नाम पर पंद्रह निर्दोष प्रेमी जोड़ों को मौत के घाट उतार दिया गया।मुज़फ्फरनगर ही वो जगह है,जहां 1990 के शुरुआती दशक में ऑनर किलिंग का पहला मामला प्रकाश में आया था ।तब से अब तक,अनुमान के मुताबिक देश के इन दो छोटे हिस्सों में ही अब तक सैकड़ों मासूम युवाओं को समाज की इस सनक का शिकार होना पड़ा है।
लेकिन
,ऑनर किलिंग की ये संकीर्णता हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है।कमोबेश पूरा देश कभी न कभी इस महामारी के दर्द से छटपटाता रहा है।2009 के जुलाई माह में जम्मू-कश्मीर के अखनूर में शहाना नाम की युवती को पहले ज़हर दिया गया और बाद में गला घोंट कर उसकी हत्या कर दी गयी,तो तामिलनाडु में मदुरै की एक एनजीओ ने पिछले साल आसपास के पांच ज़िलों में ही ऑनर किलिंग के कई मामले दर्ज़ किये हैं।ऑनर किलिंग के इन मामलों में गांव समुदाय की सहभागिता तो रहती है,लेकिन अपने बेटे-बोटियों की क्रूर हत्याएं उनका परिवार ही करता है।
सवाल
ये है,कि दशकों से जारी इस कलंक पर लगाम क्यों नहीं लग पा रही है ? इसका जवाब शायद उन सामाजिक कुरीतियों की जड़ में छिपा है,जिन्हें धर्म,जाति और समुदायों का अधिकार समझा जाता है,और जिन्हें राजनीतिक कारणों से कुरेदने की हिम्मत सरकारें नहीं कर पातीं।मासूम बेटे-बेटियों को सज़ा-ए-मौत सुनाने वाली इन जाति पंचातयों पर प्रतिबंध लगाने से सरकारें हिचकती रही हैं,और पुलिस इन गैरकानूनी सार्वजनिक अदालतों के फैसलों पर अपनी सीमित परिभाषाओं के तहत परिणामविहीन कार्रवाई करता रहा है।
हैरत
की बात नहीं,कि मई 2004 में दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बी सी पटेल और न्यायाधीश बी डी अहमद ने उत्तर प्रदेश के ग़ाजियाबाद की एक पंचायत में सुनायी गयी हत्या की ऐसी ही एक सज़ा पर सख्त हैरानी जतायी थी,और जानना चाहा था कि प्रशासन और सरकार कहां रहते हैं? इस साल जुलाई में खुद संसद में ऑनर किलिंग के मुद्दे पर खूब हंगामा हुआ,लेकिन तब नतीज़ा ढ़ाक के तीन पात ही रहा था। न तो सरकार ने इसके ख़िलाफ किसी सामाजिक अभियान की ज़रुरत समझी ,न कानून बनाने की बात की गयी।
बहरहाल
,देर से ही सही सरकार चेती है। समाज जागा है। सरकार की तरफ से कानून बनाने की बात की गयी है,और समाज इस अंधी सोच और झूठी मर्यादा के ख़िलाफ खड़े होने के संकेत दे रहा है।
प्रतिभा
देशपाल सिंह पंवार
मीडिया असली हीरो ढूंढे : 'दिन में ही जुगनुओं को पकड़ने की जिद करें, बच्चे हमारे दौर के चालाक हो गए' -परवीन शाकिर। देश में लोकराज है। अधिकारों का साज है। सबको नाज है। होना भी चाहिए। पर ये कौन सा काज है? क्यों लोकलाज नासाज है? क्यों संस्कारों पर गाज है? क्यों कल को मिटाता आज है? क्यों यमराज का राज है? लोकतंत्र में आजादी के ये कौन-से मायने निकाले जा रहे हैं? सावन की फुहार की बजाय क्यों गरम बयार के पंखे झुलाए जा रहे हैं? समाज के तपने में हाथ तापने की गलत सोच पर भी क्यों सीने फुलाए जा रहे हैं? आखिर ये कौन सा संसार और कैसा प्यार? सारी हदें पार। शर्मोहया तार-तार। संस्कारों की हार। रिश्तों पर वार। अपने बेजार। मानवता शर्मसार। ये कहां आ गए हैं हम? हक के नाम पर, मनमर्जी के नाम पर गोत्र में प्यार व शादी की जिद करने वाले बालक की आंखों में शर्म नहीं दिख रही है, न पालक धर्म की राह पर जाते नजर आ रहे हैं।
न ही मीडिया असली कर्म की कमाई खा रहा है। नेता रूपी चालक से न पहले कोई आस थी, न आज है। वे कल भी भ्रम में थे, आज ज्यादा हैं। कल क्या होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है-बापू को नमन और चमन का पतन। ऐसे में सामाजिक ताने-बाने के संकरे होते रास्ते कितनी देर और कितनी दूर साथ लेकर चल पाएंगे? आज यह सवाल हर समय मथ रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र में सबको तमाम हक हैं। प्यार पर भी बंदिशें नहीं हैं। तय उम्र के बाद शादी पर भी रोक नहीं है, लेकिन इस हक का मतलब हद पार करना नहीं है। असली दिक्कत यही है कि हक की किताब तो बांच ली गई पर हद को न तो जानने की कोशिश की गई, न समझने की। मानना तो दूर की बात है। जहां-जहां हद पर हक का पलड़ा झुका, वहां यही हुआ, जोआज हरियाणा में हो रहा है। सारे देश में हो रहा है। लाख टके का सवाल यही है कि कंधे पर लैपटाप, कान पर मोबाइल, आंख पर चश्मा लगाकर चलने वाली ये कौम क्या प्यार की कहानी का सारा फिल्माकंन दिल व घर की चाहरदीवारी से बाहर सड़क पर करना चाहती है? संविधान की किस धारा में ये अधिकार मिला है कि लिहाफ सड़क पर बिछाया जाएगा? मां-बाप की इज्जत को सरेआम उछाला जाएगा? बहन (गांव की लड़की) को बीवी बनाया जाएगा? समाज और संविधान की किस धारा में लिखा है और कहां से ये हक मिला है कि बालक पल में अपने पालक को ही नालायक का दर्जा दे डालें? आजादी के ये मायने तो नहीं थे। सवाल यह भी है कि संविधान की किस धारा में किसी भी शख्स, किसी भी गोत्र, किसी भी खाप को खून बहाने की आजादी मिली है, चाहे वो अपनो का ही क्यों न हो? मूंछ के सवाल पर समाज और कानून को हलाल नहीं किया जा सकता। वैसे ये एक सामाजिक समस्या है, इसे न तो कोई गोत्र, न कोई खाप, न कोई राजनीतिक दल, न कानून की कोई धारा इस हांके से हांक सकती, जो आज हरियाणा के हर गांव-गली और कूंचों में लगाया जा रहा है। यह एक संवेदनशील मामला है। नेतागिरी जितना दूर रहेगी, उतना ही अच्छा। मानवाधिकारों का डंका पीटने वालों को भी तह में जाना होगा। हल्ले से ये ठीक नहीं होगा। सख्ती से इसे दबाया नहीं जा सकता। किसी सजा से भी इसका समाधान नहीं निकलने वाला। घर-गांव, गोत्र और खाप वालों को भी निष्कासन से आगे की हद नहीं लांघनी चाहिए। गांव से निकालने के फैसले के पीछे समाज को बचाने का तर्क दिया जा सकता है लेकिन कानून को हाथ में लेने और किसी को मारने का अधिकार न किसी शख्स को है, न किसी समाज को है, न किसी गोत्र को है, न किसी खाप और सर्वखाप को।
सबको ये समझने की भी जरूरत है कि ऐसे मामले क्यों होते हैं? कोई एक-दो गोत्र हों तो ऐसी दिक्कतें शायद ही पैदा हों, लेकिन हरियाणा, राजस्थान, यूपी और देश के विभिन्न हिस्सों में जाटों के चार वंश और 2700 से ज्यादा गोत्र हैं। दिन-रात का साथ है। ऐसे में गांव स्तर पर संस्कार विहीन बच्चों से गलती हो जाती है। यहां शादी कानून की नजर में चाहे जायज ठहराई जा सकती हो लेकिन समाज और नैतिकता की कसौटी पर इसे सही नहीं माना जा सकता। स्कूल-कालेज में पढ़ते समय गोत्र जैसी बातें युवा पीढ़ी को बेमायने नजर आने लगती हैं। प्रेमिका की कसौटी पर खरा उतरने के वास्ते सारे संस्कार बौने लगने लगते हैं। क्या ये जायज है? यह एक मनोवैज्ञानिक पहलू और सामाजिक बहस का संवेदनशील मुद्दा है जिसे चंद शब्दों से न तो जताया जा सकता, न ही कोई रास्ता निकाला जा सकता है। जहां तक गोत्र का सवाल है तो यह एक संस्कृत टर्म है। वैदिक राह पर चलने वालों ने इसे पहचाना तथा सामाजिक मान-सम्मान कायम रखने के वास्ते शुरू किया था। महर्षि पाणिनी ने लिखा था-उपत्यं प्रौत्रं प्रभृति गौत्रम। पहले किसी खास इंसान, जगह, भाषा और ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर गोत्र बनते गए। जहां कोई महान शख्स हुआ, उसके नाम पर गोत्र बन गया। रजवाड़ों के जाने के बाद वंश व गोत्र बढ़ने का ये सिलसिला थमा है। हां, यह जरूर है कि जैसे जाति और वंश नहीं बदल सकते, उसी तरह गोत्र भी नहीं बदल सकते। एक वंश में एक से ज्यादा गोत्र हो सकते हैं लेकिन एक गोत्र में एक से ज्यादा वंश नहीं हो सकते। जैसे चौहान वंश में 116 गोत्र हैं। जिस समय ये परंपरा शुरू हुई थी तो उसी समय ये बंदिशें लागू हो गई थीं कि समान गोत्र में शादी नहीं हो सकती। इसके पीछे सामाजिक और वैज्ञानिक कारण थे। वंश की सेहत और नैतिक मूल्यों की रक्षा के तर्क थे। मानव धर्मशास्त्र के चैप्टर-3 और श्लोक 5 में भी कहा गया है- अस पिण्डा च या मातुर गौत्रा च या पितु:, सा प्रशस्ता द्विजातीनां दार, कर्माणि मैथुने। यानि बाप के गोत्र और मां की छह पीढ़ियों के गोत्र में लड़की की शादी जायज नहीं। हिंदुओं में शादी का जो परंपरागत प्रावधान है वो भी यही कहता है कि चार गोत्र का खास ख्याल रखो- यानि मां, पिता, पिता की मां और मां की मां (नानी) के गोत्र में शादी वर्जित है। हरियाणा में जिस पर हल्ला हो रहा है, वह इसी हदके उल्लंघन का नतीजा है। सब जानते हैं कि भारत गांवों में बसता है। गांवों का सारा ताना-बाना आज इसी वजह से मजाबूत है क्योंकि वहां हर लड़की बहन और हर लड़का भाई समझा और माना जाता है, चाहे वो किसी भी जात का क्यों ना हो? दिन-रात ताऊ और चाचा कहने वालों की बेटियों को क्या बहू बनाया जा सकता है? ऐसा होना सामाजिक और नैतिक मूल्यों का पतन नहीं है? जब-जब इस हद को लांघा जाएगा, जाहिर सी बात है कि समाज में उथल-पुथल होगी और अमूमन कड़वे नतीजे ही सामने आएंगे। जिस प्यार व शादी से अगर रिश्ते टूटते हों, समाज बिखरता हो, परिवार बेइज्जत होता हो, खून बहता हो तो उसे प्यार कैसे माना जा सकता है? प्यार तो बलिदान मांगता है। यहां तो वो खून बहा रहा है। जाटों में अमूमन जर, जोरू और जमीन के ही विवाद होते हैं। प्यार व शादी के विवाद कई बार गोत्र में नहीं सुलझ पाते। गांव पंचायतों में नहीं निपट पाते। न्याय के वास्ते इससे ऊपर खाप हैं और फिर आखिरी सर्व खाप। यानि हरियाणा की सर्व खाप। ऐसे मामलों में ज्यादातर हुक्का-पानी बंद और गांव से निष्कासन के ही फैसले आते हैं। खाप का इतिहास बेहद पुराना है। आन-बान-शान के लिए मर मिटने का। अतीत से आज तक इसे सामाजिकप्रशासन का दर्जा मिला हुआ है। कुछ गांवों को मिलकर खाप बनती हैं। जैसे 84 गांव की खाप। एक गोत्र एक ही खाप में रह सकता है। पंचायतें जब मामले नहीं निपटा पातीं तो वे खाप में जाते हैं और जब दो खाप में पेंच फंस जाते हैं तो फिर हरियाणा की सर्व खाप तय करती है। इसके सारे फैसले माने जाते हैं। कई बार उन्हें कानून की अदालतों में चुनौती दे दी जाती है। लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता और इतिहास गवाह है कि इस व्यवस्था से हमलावरों के खिलाफ तमाम जंग लड़ी और जीती गई तथा सामाजिक झगड़े सर्वखाप स्तर पर निपटते रहे। चाहे वह मुल्तान में हंसके खिलाफ जंग हो, मोहम्मद गौरी के खिलाफ तारोरी की जंग हो या अलाउद्दीन खिलजी के खिलाफ हिंडन और काली नदी की जंग हो या फिर 1398 में तैमूर के खिलाफ जंग हो। सबमें खाप व सर्वखाप ने निर्णायक रोल अदा किया। इतिहास बेहद लंबा चौड़ा है। चंद शब्दों में समेटना आसान नहीं पर, सच यही है कि सर्वखाप के सामने तब दुश्मन होते थे, अब अपने हैं। चाहे जितना समय बदल गया हो खाप और सर्व खाप की महत्ता इस समाज में आज भी उतनी ही है। इससे छेड़छाड़ के नतीजे ज्यादा खराब हो सकते हैं। इस व्यवस्था को बनाने का श्रेय आर्यसमाज को ही जाता है। जिसकी संस्कारों की मजबूत नींव पर यह बुलंद इमारत खड़ी हुई थी। जिसे हिलाने की कोशिशें होती रहती हैं। युवा पीढ़ी को यह तय करना ही होगा कि क्या भाई-बहन और मां-बाप से बढ़कर भी प्यार है? यह भी तय हो जाना चाहिए कि क्या प्यार कौम, समाज और राज्य से भी बढ़कर है? इस युवा पीढ़ी को गौरवशाली इतिहास का एहसास कराना भी जरूरी है ताकि वो उस पर नाज करे। गाज गिराने वाला साज न बजाए। प्यार करो पर हद में। हद से बाहर भद्द ही पिटेगी। चाहे जात जो भी हो, धर्म जो भी हो।
एक और बात। यह कोई लैला-मजनूं का किस्सा भी नहीं है कि मीडिया इसे फिल्मी कहानी की तरह पेश करे। खासकर टीवी चैनल। इतिहास को पढ़े बिना, सामाजिक ढांचे को समझे बिना, गहराई में जाए बिना तालिबानी संसार... प्यार पर वार.... के ढोल बजाना जायज नहीं। सामाजिक बीमारी को लव स्टोरी बनाने की सोच सही नहीं। लोकतंत्र में मिले हक और देश के 21वीं सदी में होने के पाठ मीडिया में बैठे लोगों को फिर पढ़ लेने चाहिए ताकि आग में घी के काम से वे और बदनाम न हों। उनमें यह समझ जरूर होनी चाहिए कि हर धोतीधारी गंवार नहीं होता। हर जींस पहनने वाला देश व समाज की तरक्की का असली चेहरा और ठेकेदार नहीं होता। जिस देश की कल्चर और इतिहास की सारी दुनिया कायल हो, अपनाना चाहती हो, क्या उस देश में 500-700 रुपए की जींस से नैतिक मूल्यों का मूल्यांकन होगा? क्या इसी संस्कृति से देश की वर्तमान तस्वीर और कौम की सुनहरी तकदीर लिखी जाएगी? क्या टीवी चैनल पर बैठे मीडिया के साथी तालिबानी कल्चर को नहीं जानते? उस कल्चर में विस्तर पर बहन के अलावा सब जायज है, यहां ठीक उल्टा है। फिर ये तालिबानी चेहरे कैसे हुए? जिस तरह पूरे देश में प्यार पर वार होते हैं तो फिर इस सारे देश को क्या तालिबानी कहा जाना वाजिब होगा? अगर ये साथी इतिहास पढ़े होते तो अफगानिस्तान और तालिबान से राजस्थान, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रिश्तों को जरूर समझ जाते। समझा पाते। पर जिस कौम को अपना इतिहास मालूम न हो, उनके कथन से समाज में फैलते जहर का एहसास न हो वो जो मरजी हो बोल भी सकते हैं, दिखा भी सकते हैं। किसी गांव वाले से लगातार ये पूछना कि वो बालिग है तो उसने गोत्र में लव मैरिज क्यों नहीं की? गोत्र से बड़ा कानून है। कानून से हक मिला है। यानि गोत्र जाए चूल्हे में, लव मैरिज हो। अगर आज गोत्र की सीमा टूटी है, कल गांव की टूटेगी, परसों घर की। मीडिया ये कौन सा पाठ पढ़ा और सिखा रहा है? ये हक का दुरुपयोग नहीं तो और क्या है? यह हद का अतिक्रमण ही तो है। सवाल यह भी उठता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया की नजर में तरक्की के क्या मापदंड हैं? सड़कों पर समलैंगिक जोड़ों की भरमार, बहन को छोड़ किसी भी लड़की से प्यार, सारी शर्मो हया तार-तार को अगर हम समाज व देश की तरक्की का परिचायक मानबैठे हैं तो फिर इस सवाल पर अब मंथन का समय आ गया है कि देश किस राह पर चलेगा, क्या ऐसी ही तरक्की हमें चाहिए, जहां लाज न हो? कड़वा सच यही है कि टीवी अपनी अपसंस्कृति को देश के हर इंसान में तलाशने और फैलाने में जुटा है। जहां ये नजर नहीं आती, उसे जो चाहे नाम दे दो। मीडिया को इस बात के जवाब तलाशने ही होंगे कि आखिर लव मैरिज ज्यादा विफल क्यों होती हैं? पुरातन शादी की व्यवस्था की सफलता अगर 90 फीसदी से ऊपर है तो लव मैरिज 50 फीसदी से नीचे क्यों है? स क्यों की तह में जाओ, सबको समझाओ, फिर प्यार के बिगुल बजाओ। हमेशा की तरह हरियाणा के मसले पर भी मीडिया ने नासमझी का ही परिचय दिया है।
टीआरपी के लिए फिल्मी परदे के हीरो दिखाने की बजाय अगर मीडिया असली हीरो ढूंढे, पैदा करे तो इस समाज की भी टीआरपी बढ़ेगी, उसकी भी साख बढ़ेगी. आदर्श चेहरों से खाली इस साधु-संतों की धरती पर फिर बहार की फसल उगेगी। हक और हद की दोस्ती मजबूत होगी। न प्यार पर वार होंगे, ना हम शर्मसारहोंगे। मीडिया ये कर सकता है। अगर नहीं तो फिर आग में घी के रोल का फटा ढोल उसकी पोल खोल रहा है। आवाज अगर नहीं सुनाई दे रही है तो यह उनकी बदकिस्मती।
लेखक देशपाल सिंह पंवार वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों दैनिक हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक हैं। इनसे संपर्क करने के लिए आप dpspanwar@yahoo.com या 09303508100 का सहारा ले सकते हैं।
....तो सिर्फ जाट ही बदनाम क्यों हैं?
जगमोहन फुटेला
मैंने बुजुर्गों को बचपन ही से शादी ब्याह के वक्त गोत्र, उसमें भी उपजाति, परिवार के मूल स्थान और रीति रिवाज से लेकर वधु की चूड़ियों के रंग तक का अता पता करते देखा है. ये तय करने के लिए कि शादी मिलते जुलते खानदान के साथ तो हो लेकिन गलती से भी अपनी ही उपजाति के लड़के या लड़की से न हो जाए. खासकर पंजाबियों में ये मान कर चला गया है कि खुराना, कक्कड़, मक्कड़, सलूजा, सुखीजा, कपूर या चावला लड़का और लड़की कभी कोई पुरानी जान पहचान न हो तो भी आपस में भाई-बहन होते हैं.
पुराने ज़माने में संपर्क और सुविधाओं से वंचित समाज में मामा या मौसी के बेटे बेटी के साथ तो शादी जायज़ थी. किसी हद तक आज भी है. लेकिन चाचा या अपनी उपजाति के किसी, कहीं के भी लड़के लड़की की शादी पे पाबंदी थी. आज भी है. एक फर्क के साथ ये पाबंदी मुस्लिम समाज में भी थी. आज भी है. मुसलमानों में दूध के रिश्ते की शादी नाजायज़ है. यानी चाचा के लड़के या लड़की से तो शादी हो सकती है. लेकिन मामा या मौसी के बच्चे से शादी कतई नहीं हो सकती. इस्लाम में ऐसी शादियों को शरीअत के खिलाफ माना गया है. इस तरह की पाबंदियां आप समाज के हर तबके में पायेंगे. मैं भारत की बात कर रहा हूँ. जहां जाट भी रहते हैं. शादी के मामले में कुछ पाबंदियों की परंपरा अपने पूर्वजों से उन्हें भी मिली है शिष्टाचार के तमाम संस्कारों के साथ. और वे लागू भी रही हैं अब से महज़ कुछ महीने पहले तक. स्वभाव से दबंग होने के बावजूद जाट कभी उग्र नहीं हुए. इसलिए कि इसकी नौबत ही नहीं आई.
अब आई है तो वे आपे से बाहर हुए हैं, हिंसक भी. और आप गौर करें इस हिंसा के पीछे भी परिवार की भूमिका कुछ कम, खाप की ज्यादा है. खाप भीड़ होती है. पर लोकतंत्र में भीड़ की भी एक भाषा होती है. अहमियत भी. हिंसा गलत है. कोई भी दलील किसी हत्या को जायज़ नहीं ठहरा सकती. कानून अपना काम करेगा. उसने किया. यहाँ टकराव दिखा. जो खापों को परंपरा में मिले वो संस्कार कानून की किताब में दर्ज नहीं थे. मनोज, बबली की गयी जान और कोई आधा दर्जन लोगों को फांसी के ऐलान के बाद ही सही समाज के संस्कारों और संविधान का सही मेल हो पाए तो ये बड़े पुण्य का काम होगा. मैं मीडिया में अपने मित्रों से उम्मीद करूँगा कि वे खापों को तालिबान बताने की बजाय एक बार अपने भी गिरेबान में झाँक कर देखें. जब खुद उनके परिवारों में फर्स्ट कजिन के साथ शादी नहीं हो सकती तो फिर इसका विरोध करने के लिए जाट ही बदनाम क्यों हैं? कुछ चिंतन मनन अपने अंतःकरण में जाटों और उनकी खापों को भी करना पड़ेगा. पंजाबियों और मुसलमानों ने तो शादी के लिए ददिहाल और ननिहाल में से एक रास्ता बंद किया है. खापों पे इलज़ाम है कि उनने इन दो के अलावा तीसरे और चौथे रास्ते पे भी नाका सा लगा रखा है.
ये ज़रूरी है देश की संसद खापों की हिन्दू मैरिज एक्ट में संशोधन की मांग पर विचार करे. शादी के लिए छत्तीसगढ़ और झारखण्ड से कुछ नज़दीक रास्ते जाटों की नई पीढी को भी दिखने चाहिए. वर्ना बेमेल शादियाँ होंगी. फतवे, खतरे होंगे. अदालतों में फ़रियाद होगी तो सुरक्षा मुहय्या कराने के आदेश भी दिए ही जायेंगे. खापों और पुलिस के बीच टकराव हमेशा रहेगा. इससे मुश्किलें बढेंगी. मतभेद मनभेद में बदले तो सरकार के लिए भी गोली डंडा चलाना दुश्वार हो जाएगा. हम सब अस्थायी असहमति के स्थायी अशांति में बदलने का इंतज़ार क्यों करें? ....मान के चलिए कि चौटाला और नवीन जिन्दलों के बाद "भाई-बहनों" की शादियों के खिलाफ तो जाटों के साथ कल दूसरी बिरादरियां भी होंगी
ऑनर किलिंग का कलंक
देर आयद,दुरुस्त आयद! ऑनर किलिंग के नाम पर प्रेमी और विवाहित जोड़ों की क्रूर हत्याओं को रोकने के लिए दोहरे स्तर पर पहल हुई है।पहली सरकारी स्तर पर,जिसमें केंद्र सरकार देश में कथित तौर पर बढ़ते ऑनर किलिंग को रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में संशोधन करने की तैयारी में है। इस मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रस्ताव को कानून मंत्रालय ने हरी झंडी दे दी है।
गृह मंत्रालय ने परिवार, जाति, धर्म और क्षेत्र के सम्मान के नाम पर होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए कानून मंत्रालय से सुझाव मांगे थे। एक अधिकारी के मुताबिक, इस तरह के जघन्य अपराध ज्यादातर प्रेम विवाह के मामलों में परिवार या पंचायतों के राजी न होने की स्थिति में सामने आते हैं और यह प्रवृत्ति देश के अलग अलग हिस्सों में लगातार बढ़ी है। दोनों मंत्रालय मिलकर आईपीसी में संशोधन का प्रारूप तय करेंगे। सूत्रों के मुताबिक, आगामी बजट सत्र में इस दिशा में ठोस कवायद सामने आ सकती है।दूसरी सामाजिक स्तर पर,जिसमें फेडरेशन ऑफ जाट इंस्टीट्यूशन भी ऑनर किलिंग की समस्या पर राष्ट्रीय स्तर पर समाधान चाहता है।करीब दर्जन भर संगठनों की ये पैतृक संस्था उसी हरियाणा से ताल्लुक रखती है जो ऑनर किलिंग के लिए सबसे ज्यादा बदनाम रहा है।उत्तर प्रदेश जाट महासभा के अध्यक्ष मेजर जनरल(सेवानिवृत) आर एस कोहली भी सरकार आईपीसी में संशोधन के फैसले का स्वागत करते हैं ।वो भी चाहते हैं कि कानूनी तौर पर कुछ ऐसी पहल हो ताकि इस समस्या का समाधान हो सके।
सरकार और समाज ही वो दो सिरे हैं,जो इस सामाजिक-आपराधिक कलंक के लिये सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं।सरकार के पास इस अपराध से निपटने के लिये कोई प्रत्यक्ष कानून नहीं है,और समाज आज भी महिला को जाति सूचक शर्म की वस्तु समझने की अंधी सोच से बाहर नहीं निकल पा रहा है।
ज्यादातर मामलों में हत्या का ये आदेश गांव की जाति पंचायत सुनाती है,जिसे खाप के नाम से जाना जाता है,खाप गांवोंमें चलने वाली समानांतर अदालत होती है,जो खुद को सारे सामाजिक क्रिया-कलापों का ठेकेदार समझती है।
ऑनर
किलिंग के इन मामलों का बुनियादी कारण औरत होती है,जिसे समुदाय की मर्यादा से जोड़कर देखा जाता है,इसलिए पुरुष प्रधान समाज में उसे खुद अपने फैसले लेने का अधिकार भी नहीं होता।खाप अपने समुदाय की स्त्रियों पर पहरा रखती है और समाज के लड़के से उसके प्रेम को अपमान मानकर उनकी हत्या के फरमान जारी कर देती है।
इन
पंचायतों पर धन और बल वालों का हाथ होता है,इसलिए अक्सर इनका फैसला भी कमज़ोर लोगों के खिलाफ ही होता है,जिसे मानना अनिवार्य होता है। गांव की चुनी हुई पंचायतें इन जाति पंचायतों के सामने गूंगी होती हैं,और प्रशासन अपंग बना रहता है।धर्म,संस्कृति और स्त्रियों के भविष्य निर्धारित करने वाले खाप के स्वयंभू पंच प्रेमी जोड़ों को निर्वस्त्र कर गांव में घुमाने,फांसी चढ़ा देने या जला कर मार देने की सज़ा सुनाते रहे हैं।
मार्च
2007 में उत्तर प्रदेश के आगरा में उन्नीस वर्षीया गुड़िया और इक्कीस वर्षीय महेश को तो दोहरी सज़ा मिली,उनकी हत्या के बाद शव को टुकड़े-टुकड़े करके जला दिया गया।इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ऐसा करके संदेश दिया गया कि अगर कोई और प्रेम करने या शादी करने की हिमाकत करे तो उसका यही हश्र होगा।हरियाणा के जींद ज़िले में,जाति पंचायत के आदेश के बाद वेदपाल मोर को उसकी नवविवाहिता पत्नी के परिजनों और गांव वालों ने डेढ़ दर्ज़न पुलिस वालों की मौज़ूदगी में ना सिर्फ बेरहमी से मार डाला बल्कि,प्रेम विवाह करने वालों को सबक सिखाने के लिये शव को सड़क पर रख उसकी नुमाइश भी की।इस घटना के 24 घंटे बाद ही झज्जर ज़िले के धारणा गांव की जाति पंचायत ने रविंद्र और शिल्पा को मौत के घाट उतारने का हुक्म जारी किया था,जो अपने परिवार सहित गांव छोड़ कर भागने पर मज़बूर हुआ,और आज भी घर वापिस नहीं लौट सका है।
ऑनर
किलिंग के लिये हरियाणा के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश सबसे ज़्यादा बदनाम रहा है,एक आंकड़े के अनुसार वर्ष 2005 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अकेले मुज़फ्फरनगर ज़िले में ही ऑनर किलिंग के नाम पर पंद्रह निर्दोष प्रेमी जोड़ों को मौत के घाट उतार दिया गया।मुज़फ्फरनगर ही वो जगह है,जहां 1990 के शुरुआती दशक में ऑनर किलिंग का पहला मामला प्रकाश में आया था ।तब से अब तक,अनुमान के मुताबिक देश के इन दो छोटे हिस्सों में ही अब तक सैकड़ों मासूम युवाओं को समाज की इस सनक का शिकार होना पड़ा है।
लेकिन
,ऑनर किलिंग की ये संकीर्णता हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है।कमोबेश पूरा देश कभी न कभी इस महामारी के दर्द से छटपटाता रहा है।2009 के जुलाई माह में जम्मू-कश्मीर के अखनूर में शहाना नाम की युवती को पहले ज़हर दिया गया और बाद में गला घोंट कर उसकी हत्या कर दी गयी,तो तामिलनाडु में मदुरै की एक एनजीओ ने पिछले साल आसपास के पांच ज़िलों में ही ऑनर किलिंग के कई मामले दर्ज़ किये हैं।ऑनर किलिंग के इन मामलों में गांव समुदाय की सहभागिता तो रहती है,लेकिन अपने बेटे-बोटियों की क्रूर हत्याएं उनका परिवार ही करता है।
सवाल
ये है,कि दशकों से जारी इस कलंक पर लगाम क्यों नहीं लग पा रही है ? इसका जवाब शायद उन सामाजिक कुरीतियों की जड़ में छिपा है,जिन्हें धर्म,जाति और समुदायों का अधिकार समझा जाता है,और जिन्हें राजनीतिक कारणों से कुरेदने की हिम्मत सरकारें नहीं कर पातीं।मासूम बेटे-बेटियों को सज़ा-ए-मौत सुनाने वाली इन जाति पंचातयों पर प्रतिबंध लगाने से सरकारें हिचकती रही हैं,और पुलिस इन गैरकानूनी सार्वजनिक अदालतों के फैसलों पर अपनी सीमित परिभाषाओं के तहत परिणामविहीन कार्रवाई करता रहा है।
हैरत
की बात नहीं,कि मई 2004 में दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बी सी पटेल और न्यायाधीश बी डी अहमद ने उत्तर प्रदेश के ग़ाजियाबाद की एक पंचायत में सुनायी गयी हत्या की ऐसी ही एक सज़ा पर सख्त हैरानी जतायी थी,और जानना चाहा था कि प्रशासन और सरकार कहां रहते हैं? इस साल जुलाई में खुद संसद में ऑनर किलिंग के मुद्दे पर खूब हंगामा हुआ,लेकिन तब नतीज़ा ढ़ाक के तीन पात ही रहा था। न तो सरकार ने इसके ख़िलाफ किसी सामाजिक अभियान की ज़रुरत समझी ,न कानून बनाने की बात की गयी।
बहरहाल
,देर से ही सही सरकार चेती है। समाज जागा है। सरकार की तरफ से कानून बनाने की बात की गयी है,और समाज इस अंधी सोच और झूठी मर्यादा के ख़िलाफ खड़े होने के संकेत दे रहा है।
प्रतिभा
खाप पंचायत
क्या नारीवादी चेतना को कुचलने में कामयाब हो जाएगा खाप पंचायत का वैज्ञानिक हथियार?
प्रस्तुतकर्ता : ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
पिछले कुछ समय से 'खाप' पंचायतें चर्चा में हैं। चर्चा में तो वे पहले भी रही हैं, प्रेमी-युगलों को मौत का फरमान जारी करने के कारण, पर इस बार चर्चा का मुद्दा ज़रा गम्भीर है। इस बार उन्होंने जिस प्रकार से सगोत्र विवाह के खिलाफ अपना तालिबानी झण्डा बुलंद किया है और जिस प्रकार चौटाला से लेकर गडकरी तक अपनी छुद्र राजनीति के कारण उनके सुर में सुर मिला रहे हैं, उससे मामला ज्यादा गम्भीर हो गया है।
खाप पंचायतों का असली चरित्र
खाप पंचायतें दरअसल प्राचीन समाज का वह रूढिवादी हिस्सा है, जो आधुनिक समाज और बदलती हुई विचारधारा से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है। इसका साक्षात प्रमाण पंचायतों के वर्तमान स्वरूप में देखा जा सकता है, जिसमें महिलाओं और युवाओं का प्रतिनिधित्व न के बराबर है। यदि इन पंचायतों की मनोवृत्ति और इनके सामाजिक ढ़ाँचे का अध्ययन किया जाए, तो आंकणे सामने आते हैं, वे काफी चिंताजनक हैं। जैसे कि सम्पूर्ण खाप पंचायतों के एरिया (हरियाणा, दिल्ली, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में महिला-पुरूष का लिंग अनुपात सबसे खराब है, जबकि इन इलाकों में कन्या भ्रूण हत्या का औसत राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है। इससे साफ जाहिर होता है कि खाप पंचायतों का मूल चरित्र नारी विरोधी है। यही कारण है कि पढ़-लिख कर आत्मनिर्भर होती महिलाएँ और उनकी मनमर्जी से होने वाली शादियाँ हमेशा से इनकी आँख का काँटा रही हैं।
कितना दम है समगोत्री विवाह विरोधी तर्क में?
खाप पंचायतों का कहना है कि किसी गोत्र में जन्मे सभी व्यक्ति एक ही आदि पुरूष की संतानें हैं, इसलिए हिन्दू धर्म में समगोत्री विवाह को वर्जित माना गया है। लेकिन अगर गहराई से देखें, तो खाप पंचायतों के इस दावे में दम नहीं है। इसका प्रमाण 1950 में मुम्बई उच्च न्यायालय दे चुका है। उस दौरान उच्च न्यायालय में श्री हरीलाल कनिया (जोकि बाद में स्वतंत्र भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश भी बने) और श्री गजेंद्रगदकर (जो 1960 में भारत के मुख्य न्यायाधीश बने) की दो सदस्यीय पीठ ने अपने चर्चित फैसले में कहा था कि सगोत्र हिन्दु विवाह वैध है। अपने फैसले में जजों ने कहा था कि पुराणों, स्मृतियों और सूत्रों में गोत्र सम्बंधी इतने अंतर्विरोध भरे पड़े हैं कि उनसे कोई एक निश्चित निष्कर्ष निकालना असम्भव है। इस सम्बंध में जजों की दो सदस्यीय पीठ ने हिन्दु धर्मशास्त्र के प्रश्चात विद्वान पी0वी0 काणे और भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ मैक्समूलर के साथ मनु और याज्ञवल्क्य के ग्रंथों का भी अध्ययन किया था। इससे स्पष्ट है कि खाप पंचायतों की समान गोत्र में विवाह को अवैध घोषित करने सम्बंधी माँग में जरा भी दम नहीं है।
क्या है विरोध का वैज्ञानिक कारण?
पहले तो खाप पंचायतों ने अपनी माँग के समर्थन में प्राचीन परम्परा की दुहाई देती रही हैं, लेकिन जबसे उनका वादा कमजोर पड़ गया है, अब वे इस सम्बंध में वैज्ञानिक कारणों को गिनाने लगी हैं। उनका कहना है कि एक गोत्र में विवाह करने से कई तरह की आनुवाँशिक बीमारियों की सम्भावना रहती है।
आनुवाँशिक विज्ञान के अनुसार इनब्रीडिंग या एक समूह में शादी करने से हानिकारक जीनों के विकसित होने की सम्भावनाएँ ज्यादा होती है, जिससे आने वाली संतानों में कई प्रकार के रोग पनप सकते हैं। लेकिन अगर इस मत को और व्यापक रूप दिया जाए, तो एक जाति अथवा उपजाति में भी विवाह करने से ऐसी सम्भावनाएँ बनी रहती हैं। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार हिन्दू समाज में एक गोत्र के लोग एक पिता के वंशज बताए गये हैं, ठीक उसी प्रकार एक जाति अथवा उपजाति के लोग भी एक आदिपुरूष की संतान माने गये हैं। इस हिसाब से देखा जाए तो अंतर्जातीय विवाह और अंतर्धार्मिक विवाह ज्यादा उचित हैं। लेकिन खाप पंचायतें अतर्जातीय विवाह और अंतर्धार्मिक विवाह की भी घोर विरोधी हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि खाप पंचायतों की इस दलील में ज़रा भी दम नहीं है कि समगोत्री विवाह पर रोक लगाई जाए। उनकी यह माँग पुरातनपंथी मानसिकता की परिचायक है, जो नारीवादी उत्थान और अपने असीमित अधीकारों को मिलने वाली चुनौतियों से परेशान है। इसीलिए वह इस तरह की मध्युगीन मानसिकता का परिचय दे रही है। जाहिर सी बात है कि इस तरह की मानसिकता को जायज ठहराना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता।
Abhimanyu Singh Tomar यह खाप पंचायत की खिलाफत करने वाले वह दो अगले जाट है जिन्हें यह नहीं पता की उनकी बहन या बेटी किसके साथ भागेगी | यह नसल की लड़ाई है| खाप System prevailing in Jats only and this is the reason why our "नसल" is best in the world. अंग्रेजो ने जाट रेजिमेंट क्यों बनाई थी क्यों नहीं उन्होने चमार और चूड़ा रेजिमेंट बनाई क्या वजे है जब कारगिल में हर रेजिमेंट फ़ैल हो गयी थी तो फिर जाट रेजिमेंट को बुलाया गया था| और जाटों ने कारगिल पर देश का झंडा फैलाया था| आज यही पूरा देश और मीडिया हमारी जाति के खिलाफ दुश्पर्चार कर रहे है क्यों? यह गोत्र सिस्टम हमारी परंपरा है और इसका एक scientific reason है | हमारी जाट नसल आज भी दुनिया की best Nasal
खाप पंचायत
(08:42:52 PM) 02, Jun, 2010, Wednesday
खाप पंचायत पहली बार महाराजा हर्षवर्धन के कल में 643 ईस्वी में अस्तित्व में आई। प्राचीन काल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले का व्यक्ति ही इस पंचायत का महामंत्री हुआ करता था। गुलामी के समय में भी सबसे बडी खाप पंचायत मुजफ्फरनगर की ही हुआ करती थी। सर्वखाप का उदय पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की खाप पंचायतों से मिलकर हुआ है। खाप पंचायतों ने देश में कई बडी पंचायतें की हैं और समाज तथा देश के हित में महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं। इन पंचायतों ने दहेज लेने और देने वालों को बिरादरी से बाहर करने और छोटी बारात लाने जैसे फरमान जारी किए तथा जेवर और पर्दा प्रथा को खत्म किए जाने जैसे सामाजिक हित के निर्णय भी लिए। युध्द के समय में भी खाप पंचायतों ने देशभक्ति की मिसाल कायम की है और प्राचीन काल में युध्द के दौरान राजाओं और बादशाहों की मदद की है। वैसे देखा जाए तो देश में परिवार की इजत के नाम पर कत्ल की पुरानी परम्परा रही है। हरियाणा. पंजाब. राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश इनमें सबसे आगे हैं। आनर किलिंग के यादातर मामलों में लडके. लडकी का एक ही गोत्र.सगोत्र. में विवाह करना एक कारण रहा। अंतरजातीय प्रेम विवाह इस अपराध की दूसरी वजह रही। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो एक गोत्र में विवाह से विकृत संतान के जन्म लेने की आशंका रहती है लेकिन इससे पंचायतों को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह अपने फरमान से प्रेमी युगल को इतना विवश कर दें कि वह आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाए या समाज उन्हें इजत के नाम पर मौत के घाट उतार दे। संवेदनशील सामाजिक मुद्दा होने के कारण सरकार इन मामलों में हस्तक्षेप करने से कतराती रही है। लेकिन अब खाप पंचायतें भी इस संदर्भ में कानून की जरूरत महसूस कर रही हैं । इसीलिए वे राजनीतिक दलों पर दबाव बनाकर सरकार से गुजारिश कर रही हैं कि वह इस संदर्भ में कानून में बदलाव लाए। हालांकि कानून के साथ जरूरत इस बात की भी है कि समाज अपनी मानसिकता में बदलाव लाए और आनर किलिंग के लिए जिम्मेदार कारणों में एक भ्रूण हत्या जैसे अपराधों पर रोक लगायी जाए. जिनकी वजह से इन क्षेत्रों में लिंग अनुपात कम होता जा रहा है।
खाप पंचायत : स्वगोत्र :वैवाहिक विवाद
खाप पंचायत : स्वगोत्र :वैवाहिक विवाद
हरियाणा राज्य से खाप पंचायत के माध्यम से जो आवाज़ उठी है कि स्वगोत्र में उत्पन्न युवक तथा युवती आपस में बहन और भाई होते है | ये मामला बिनाकिसी आधार के इतना तूल पकड गया की कानून बनाने बाले तथा सरकार चलने बाले राजनेता चाहे वह कोई मंत्री या मुख्य मंत्री है सभी वोटो की राजनीति को लेकर धर्म के ठेकेदार जो आये दिन खाप पंचयत के माध्यम से नित नई बाते उठाते रहते है | सभी उनका पक्ष करने लगे है तथा नई कानून की मांग करने लगे है | इतना ही नहीं स्व गोत्र को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट को याचिका खारिज करनी पड़ी तथा यचिका करता के सामने ये कहा की वे कोर्ट का कीमती समय नष्ट ना करे अन्यथा आर्थिक दंड देना होगा |
मैंने अपने पिछले ब्लॉग में इस पर चर्चा करी थी तथा जनता से आग्रह भी किया था कि स्वगोत्र को लेकर चल रहे विवाद में किसी भी कानून कि आवश्यकता नहीं है |यद्यपि में किसी सिद्धांत को लेकर राजनीति नहीं करना चाहता हूँ | मेरा मत मात्र इतना है की उत्पन्न विवाद किसी समस्या का हल नहीं है और नहीं इस का दार्शनिक आधार है | ये समस्या ऐसी है जिस ने समय समय पर कई रूप लिए है तथा प्रवर्तित होती रही है | जिस ने समय समय पर अनेक रूप तो बदले लेकिन कोई स्थाई हल नहीं निकला एवं बिना दर्शन के सहारा लिए समाज के स्वार्थी तत्वों द्वारा इसे अनेक इसे रूप दिए जिस ने हिन्दू समाज को दल दल में फसा दिया | जहां समाज को दर्शन के माध्यम से किसी समस्या का संयोग से हल हो सक्ता था | समाज के धार्मिक नेतायो ने बिना विचार किये तथा दर्शन के बिना सयोग के इस के रूप बदल दिए गए इस में कोई अतिश्योक्ति नहीं है |
अतः मेरा कहना यह है कि खाप पंचयत का स्व गोत्र उत्पन्न विवाद दर्शन के युक्त नहीं है बहन तथा भाई के रिश्ते की अगर बात करे एक गोत्र ही क्या ? हर युवक और युवती आपस में बहन और भाई ही है | पत्नी का अधिकार विवाहिक सनस्कार के बाद किसी लड़की द्वारा किसी पुरुष को दिया जाता है जिस से वह पत्नी बनती है |
प्रस्तुतकर्ता : ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
पिछले कुछ समय से 'खाप' पंचायतें चर्चा में हैं। चर्चा में तो वे पहले भी रही हैं, प्रेमी-युगलों को मौत का फरमान जारी करने के कारण, पर इस बार चर्चा का मुद्दा ज़रा गम्भीर है। इस बार उन्होंने जिस प्रकार से सगोत्र विवाह के खिलाफ अपना तालिबानी झण्डा बुलंद किया है और जिस प्रकार चौटाला से लेकर गडकरी तक अपनी छुद्र राजनीति के कारण उनके सुर में सुर मिला रहे हैं, उससे मामला ज्यादा गम्भीर हो गया है।
खाप पंचायतों का असली चरित्र
खाप पंचायतें दरअसल प्राचीन समाज का वह रूढिवादी हिस्सा है, जो आधुनिक समाज और बदलती हुई विचारधारा से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है। इसका साक्षात प्रमाण पंचायतों के वर्तमान स्वरूप में देखा जा सकता है, जिसमें महिलाओं और युवाओं का प्रतिनिधित्व न के बराबर है। यदि इन पंचायतों की मनोवृत्ति और इनके सामाजिक ढ़ाँचे का अध्ययन किया जाए, तो आंकणे सामने आते हैं, वे काफी चिंताजनक हैं। जैसे कि सम्पूर्ण खाप पंचायतों के एरिया (हरियाणा, दिल्ली, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में महिला-पुरूष का लिंग अनुपात सबसे खराब है, जबकि इन इलाकों में कन्या भ्रूण हत्या का औसत राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है। इससे साफ जाहिर होता है कि खाप पंचायतों का मूल चरित्र नारी विरोधी है। यही कारण है कि पढ़-लिख कर आत्मनिर्भर होती महिलाएँ और उनकी मनमर्जी से होने वाली शादियाँ हमेशा से इनकी आँख का काँटा रही हैं।
कितना दम है समगोत्री विवाह विरोधी तर्क में?
खाप पंचायतों का कहना है कि किसी गोत्र में जन्मे सभी व्यक्ति एक ही आदि पुरूष की संतानें हैं, इसलिए हिन्दू धर्म में समगोत्री विवाह को वर्जित माना गया है। लेकिन अगर गहराई से देखें, तो खाप पंचायतों के इस दावे में दम नहीं है। इसका प्रमाण 1950 में मुम्बई उच्च न्यायालय दे चुका है। उस दौरान उच्च न्यायालय में श्री हरीलाल कनिया (जोकि बाद में स्वतंत्र भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश भी बने) और श्री गजेंद्रगदकर (जो 1960 में भारत के मुख्य न्यायाधीश बने) की दो सदस्यीय पीठ ने अपने चर्चित फैसले में कहा था कि सगोत्र हिन्दु विवाह वैध है। अपने फैसले में जजों ने कहा था कि पुराणों, स्मृतियों और सूत्रों में गोत्र सम्बंधी इतने अंतर्विरोध भरे पड़े हैं कि उनसे कोई एक निश्चित निष्कर्ष निकालना असम्भव है। इस सम्बंध में जजों की दो सदस्यीय पीठ ने हिन्दु धर्मशास्त्र के प्रश्चात विद्वान पी0वी0 काणे और भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ मैक्समूलर के साथ मनु और याज्ञवल्क्य के ग्रंथों का भी अध्ययन किया था। इससे स्पष्ट है कि खाप पंचायतों की समान गोत्र में विवाह को अवैध घोषित करने सम्बंधी माँग में जरा भी दम नहीं है।
क्या है विरोध का वैज्ञानिक कारण?
पहले तो खाप पंचायतों ने अपनी माँग के समर्थन में प्राचीन परम्परा की दुहाई देती रही हैं, लेकिन जबसे उनका वादा कमजोर पड़ गया है, अब वे इस सम्बंध में वैज्ञानिक कारणों को गिनाने लगी हैं। उनका कहना है कि एक गोत्र में विवाह करने से कई तरह की आनुवाँशिक बीमारियों की सम्भावना रहती है।
आनुवाँशिक विज्ञान के अनुसार इनब्रीडिंग या एक समूह में शादी करने से हानिकारक जीनों के विकसित होने की सम्भावनाएँ ज्यादा होती है, जिससे आने वाली संतानों में कई प्रकार के रोग पनप सकते हैं। लेकिन अगर इस मत को और व्यापक रूप दिया जाए, तो एक जाति अथवा उपजाति में भी विवाह करने से ऐसी सम्भावनाएँ बनी रहती हैं। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार हिन्दू समाज में एक गोत्र के लोग एक पिता के वंशज बताए गये हैं, ठीक उसी प्रकार एक जाति अथवा उपजाति के लोग भी एक आदिपुरूष की संतान माने गये हैं। इस हिसाब से देखा जाए तो अंतर्जातीय विवाह और अंतर्धार्मिक विवाह ज्यादा उचित हैं। लेकिन खाप पंचायतें अतर्जातीय विवाह और अंतर्धार्मिक विवाह की भी घोर विरोधी हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि खाप पंचायतों की इस दलील में ज़रा भी दम नहीं है कि समगोत्री विवाह पर रोक लगाई जाए। उनकी यह माँग पुरातनपंथी मानसिकता की परिचायक है, जो नारीवादी उत्थान और अपने असीमित अधीकारों को मिलने वाली चुनौतियों से परेशान है। इसीलिए वह इस तरह की मध्युगीन मानसिकता का परिचय दे रही है। जाहिर सी बात है कि इस तरह की मानसिकता को जायज ठहराना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता।
Abhimanyu Singh Tomar यह खाप पंचायत की खिलाफत करने वाले वह दो अगले जाट है जिन्हें यह नहीं पता की उनकी बहन या बेटी किसके साथ भागेगी | यह नसल की लड़ाई है| खाप System prevailing in Jats only and this is the reason why our "नसल" is best in the world. अंग्रेजो ने जाट रेजिमेंट क्यों बनाई थी क्यों नहीं उन्होने चमार और चूड़ा रेजिमेंट बनाई क्या वजे है जब कारगिल में हर रेजिमेंट फ़ैल हो गयी थी तो फिर जाट रेजिमेंट को बुलाया गया था| और जाटों ने कारगिल पर देश का झंडा फैलाया था| आज यही पूरा देश और मीडिया हमारी जाति के खिलाफ दुश्पर्चार कर रहे है क्यों? यह गोत्र सिस्टम हमारी परंपरा है और इसका एक scientific reason है | हमारी जाट नसल आज भी दुनिया की best Nasal
खाप पंचायत
(08:42:52 PM) 02, Jun, 2010, Wednesday
खाप पंचायत पहली बार महाराजा हर्षवर्धन के कल में 643 ईस्वी में अस्तित्व में आई। प्राचीन काल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले का व्यक्ति ही इस पंचायत का महामंत्री हुआ करता था। गुलामी के समय में भी सबसे बडी खाप पंचायत मुजफ्फरनगर की ही हुआ करती थी। सर्वखाप का उदय पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की खाप पंचायतों से मिलकर हुआ है। खाप पंचायतों ने देश में कई बडी पंचायतें की हैं और समाज तथा देश के हित में महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं। इन पंचायतों ने दहेज लेने और देने वालों को बिरादरी से बाहर करने और छोटी बारात लाने जैसे फरमान जारी किए तथा जेवर और पर्दा प्रथा को खत्म किए जाने जैसे सामाजिक हित के निर्णय भी लिए। युध्द के समय में भी खाप पंचायतों ने देशभक्ति की मिसाल कायम की है और प्राचीन काल में युध्द के दौरान राजाओं और बादशाहों की मदद की है। वैसे देखा जाए तो देश में परिवार की इजत के नाम पर कत्ल की पुरानी परम्परा रही है। हरियाणा. पंजाब. राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश इनमें सबसे आगे हैं। आनर किलिंग के यादातर मामलों में लडके. लडकी का एक ही गोत्र.सगोत्र. में विवाह करना एक कारण रहा। अंतरजातीय प्रेम विवाह इस अपराध की दूसरी वजह रही। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो एक गोत्र में विवाह से विकृत संतान के जन्म लेने की आशंका रहती है लेकिन इससे पंचायतों को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह अपने फरमान से प्रेमी युगल को इतना विवश कर दें कि वह आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाए या समाज उन्हें इजत के नाम पर मौत के घाट उतार दे। संवेदनशील सामाजिक मुद्दा होने के कारण सरकार इन मामलों में हस्तक्षेप करने से कतराती रही है। लेकिन अब खाप पंचायतें भी इस संदर्भ में कानून की जरूरत महसूस कर रही हैं । इसीलिए वे राजनीतिक दलों पर दबाव बनाकर सरकार से गुजारिश कर रही हैं कि वह इस संदर्भ में कानून में बदलाव लाए। हालांकि कानून के साथ जरूरत इस बात की भी है कि समाज अपनी मानसिकता में बदलाव लाए और आनर किलिंग के लिए जिम्मेदार कारणों में एक भ्रूण हत्या जैसे अपराधों पर रोक लगायी जाए. जिनकी वजह से इन क्षेत्रों में लिंग अनुपात कम होता जा रहा है।
खाप पंचायत : स्वगोत्र :वैवाहिक विवाद
खाप पंचायत : स्वगोत्र :वैवाहिक विवाद
हरियाणा राज्य से खाप पंचायत के माध्यम से जो आवाज़ उठी है कि स्वगोत्र में उत्पन्न युवक तथा युवती आपस में बहन और भाई होते है | ये मामला बिनाकिसी आधार के इतना तूल पकड गया की कानून बनाने बाले तथा सरकार चलने बाले राजनेता चाहे वह कोई मंत्री या मुख्य मंत्री है सभी वोटो की राजनीति को लेकर धर्म के ठेकेदार जो आये दिन खाप पंचयत के माध्यम से नित नई बाते उठाते रहते है | सभी उनका पक्ष करने लगे है तथा नई कानून की मांग करने लगे है | इतना ही नहीं स्व गोत्र को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट को याचिका खारिज करनी पड़ी तथा यचिका करता के सामने ये कहा की वे कोर्ट का कीमती समय नष्ट ना करे अन्यथा आर्थिक दंड देना होगा |
मैंने अपने पिछले ब्लॉग में इस पर चर्चा करी थी तथा जनता से आग्रह भी किया था कि स्वगोत्र को लेकर चल रहे विवाद में किसी भी कानून कि आवश्यकता नहीं है |यद्यपि में किसी सिद्धांत को लेकर राजनीति नहीं करना चाहता हूँ | मेरा मत मात्र इतना है की उत्पन्न विवाद किसी समस्या का हल नहीं है और नहीं इस का दार्शनिक आधार है | ये समस्या ऐसी है जिस ने समय समय पर कई रूप लिए है तथा प्रवर्तित होती रही है | जिस ने समय समय पर अनेक रूप तो बदले लेकिन कोई स्थाई हल नहीं निकला एवं बिना दर्शन के सहारा लिए समाज के स्वार्थी तत्वों द्वारा इसे अनेक इसे रूप दिए जिस ने हिन्दू समाज को दल दल में फसा दिया | जहां समाज को दर्शन के माध्यम से किसी समस्या का संयोग से हल हो सक्ता था | समाज के धार्मिक नेतायो ने बिना विचार किये तथा दर्शन के बिना सयोग के इस के रूप बदल दिए गए इस में कोई अतिश्योक्ति नहीं है |
अतः मेरा कहना यह है कि खाप पंचयत का स्व गोत्र उत्पन्न विवाद दर्शन के युक्त नहीं है बहन तथा भाई के रिश्ते की अगर बात करे एक गोत्र ही क्या ? हर युवक और युवती आपस में बहन और भाई ही है | पत्नी का अधिकार विवाहिक सनस्कार के बाद किसी लड़की द्वारा किसी पुरुष को दिया जाता है जिस से वह पत्नी बनती है |
क्या है खाप पंचायत, क्यों है उसका दबदबा?
अतुल संगर
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
विशेषज्ञ कहते हैं कि परंपरा-रिवायतें निभाने का बोझ केवल लड़कियों पर डाल दिया गया है
जब भी गाँव, जाति, गोत्र, परिवार की 'इज़्ज़त' के नाम पर होने वाली हत्याओं की बात होती है तो जाति पंचायत या खाप पंचायत का ज़िक्र बार-बार होता है.
शादी के मामले में यदि खाप पंचायत को कोई आपत्ति हो तो वे युवक और युवती को अलग करने, शादी को रद्द करने, किसी परिवार का समाजाकि बहिष्कार करने या गाँव से निकाल देने और कुछ मामलों में तो युवक या युवती की हत्या तक का फ़ैसला करती है.
लेकिन क्या है ये खाप पंचायत और देहात के समाज में इसका दबदबा क्यों कायम है? हमने इस विषय पर और जानकारी पाने के लिए बात की डॉक्टर प्रेम चौधरी से, जिन्होंने इस पूरे विषय पर गहन शोध किया है. प्रस्तुत हैं उनके साथ बातचीत के कुछ अंश:
खाप पंचायतों का 'सम्मान' के नाम पर फ़ैसला लेने का सिलसिला कितना पुराना है?
ऐसा चलन उत्तर भारत में ज़्यादा नज़र आता है. लेकिन ये कोई नई बात नहीं है. ये ख़ासे बहुत पुराने समय से चलता आया है....जैसे जैसे गाँव बसते गए वैसे-वैसे ऐसी रिवायतें बनतीं गई हैं. ये पारंपरिक पंचायतें हैं. ये मानना पड़ेगा कि हाल-फ़िलहाल में इज़्ज़त के लिए हत्या के मामले बहुत बढ़ गए है.
ये खाप पंचायतें हैं क्या? क्या इन्हें कोई आधिकारिक या प्रशासनिक स्वीकृति हासिल है?
रिवायती पंचायतें कई तरह की होती हैं. खाप पंचायतें भी पारंपरिक पंचायते है जो आजकल काफ़ी उग्र नज़र आ रही हैं. लेकिन इन्हें कोई आधिकारिक मान्यता प्राप्त नहीं है.
खाप पंचायतों में प्रभावशाली लोगों या गोत्र का दबदबा रहता है. साथ ही औरतें इसमें शामिल नहीं होती हैं, न उनका प्रतिनिधि होता है. ये केवल पुरुषों की पंचायत होती है और वहीं फ़ैसले लेते हैं. इसी तरह दलित या तो मौजूद ही नहीं होते और यदि होते भी हैं तो वे स्वतंत्र तौर पर अपनी बात किस हद तक रख सकते हैं, हम जानते हैं. युवा वर्ग को भी खाप पंचायत की बैठकों में बोलने का हक नहीं होता...
डॉक्टर प्रेस चौधरी
एक गोत्र या फिर बिरादरी के सभी गोत्र मिलकर खाप पंचायत बनाते हैं. ये फिर पाँच गाँवों की हो सकती है या 20-25 गाँवों की भी हो सकती है. मेहम बहुत बड़ी खाप पंचायत और ऐसी और भी पंचायतें हैं.
जो गोत्र जिस इलाक़े में ज़्यादा प्रभावशाली होता है, उसी का उस खाप पंचायत में ज़्यादा दबदबा होता है. कम जनसंख्या वाले गोत्र भी पंचायत में शामिल होते हैं लेकिन प्रभावशाली गोत्र की ही खाप पंचायत में चलती है. सभी गाँव निवासियों को बैठक में बुलाया जाता है, चाहे वे आएँ या न आएँ...और जो भी फ़ैसला लिया जाता है उसे सर्वसम्मति से लिया गया फ़ैसला बताया जाता है और ये सभी पर बाध्य होता है.
सबसे पहली खाप पंचायतें जाटों की थीं. विशेष तौर पर पंजाब-हरियाणा के देहाती इलाक़ों में जाटों के पास भूमि है, प्रशासन और राजनीति में इनका ख़ासा प्रभाव है, जनसंख्या भी काफ़ी ज़्यादा है... इन राज्यों में ये प्रभावशाली जाति है और इसीलिए इनका दबदबा भी है.
हाल-फ़िलहाल में खाप पंचायतों का प्रभाव और महत्व घटा है, क्योंकि ये तो पारंपरिक पंचायते हैं और संविधान के मुताबिक अब तो निर्वाचित पंचायतें आ गई हैं. खाप पंचायत का नेतृत्व गाँव के बुज़ुर्गों और प्रभावशाली लोगों के पास होता है.
खाप पंचायतों के लिए गए फ़ैसलों को कहाँ तक सर्वसम्मति से लिए गए फ़ैसले कहा जाए?
लोकतंत्र के बाद जब सभी लोग समान हैं. इस हालात में यदि लड़का लड़की ख़ुद अपने फ़ैसले लें तो उन्हें क़ानून तौर पर अधिकार तो है लेकिन रिवायती तौर पर नहीं है.
खाप पंचायतों में प्रभावशाली लोगों या गोत्र का दबदबा रहता है. साथ ही औरतें इसमें शामिल नहीं होती हैं, न उनका प्रतिनिधि होता है. ये केवल पुरुषों की पंचायत होती है और वहीं फ़ैसले लेते हैं.
एक गाँव जहाँ पाँच गोत्र थे, आज वहाँ 15 या 20 गोत्र वाले लोग हैं. छोटे गाँव बड़े गाँव बन गए हैं. पुरानी पद्धति के अनुसार जातियों के बीच या गोत्रों के बीच संबंधों पर जो प्रतिबंध लगाए गए थे, उन्हें निभाना अब मुश्किल हो गया है. जब लड़कियों की जनसंख्या पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले से ही कम है और लड़कों की संख्या ज़्यादा है, तो समाज में तनाव पैदा होना स्वभाविक है..
डॉक्टर प्रेम चौधरी
इसी तरह दलित या तो मौजूद ही नहीं होते और यदि होते भी हैं तो वे स्वतंत्र तौर पर अपनी बात किस हद तक रख सकते हैं, वह हम सभी जानते हैं. युवा वर्ग को भी खाप पंचायत की बैठकों में बोलने का हक नहीं होता. उन्हें कहा जाता है कि - 'तुम क्यों बोल रहे हो, तुम्हारा ताऊ, चाचा भी तो मौजूद है.'
क्योंकि ये आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त पंचायतें नहीं हैं बल्कि पारंपरिक पंचायत हैं, इसलिए इसलिए आधुनिक भारत में यदि किसी वर्ग को असुरक्षा की भावना महसूस हो रही है या वह अपने घटते प्रभाव को लेकर चिंतित है तो वह है खाप पंचायत....
इसीलिए खाप पंचायतें संवेदनशील और भावुक मुद्दों को उठाती हैं ताकि उन्हें आम लोगों का समर्थन प्राप्त हो सके और इसमें उन्हें कामयाबी भी मिलती है.
पिछले कुछ वर्षों में इन पंचायतों से संबंधित हिंसा और हत्या के इतने मामले क्यों सामने आ रहे हैं?
स्वतंत्रता के बाद एक राज्य से दूसरे राज्य में और साथ ही एक ही राज्य के भीतर भी बड़ी संख्या में लोगों का आना-जाना बढ़ा है. इससे किसी भी क्षेत्र में जनसंख्या का स्वरूप बदला है.
एक गाँव जहाँ पाँच गोत्र थे, आज वहाँ 15 या 20 गोत्र वाले लोग हैं. छोटे गाँव बड़े गाँव बन गए हैं. पुरानी पद्धति के अनुसार जातियों के बीच या गोत्रों के बीच संबंधों पर जो प्रतिबंध लगाए गए थे, उन्हें निभाना अब मुश्किल हो गया है.
यदि पहले पाँच गोत्रों में शादी-ब्याह करने पर प्रतिबंध था तो अब इन गोत्रों की संख्या बढ़कर 20-25 हो गई है. आसपास के गाँवों में भी भाईचारे के तहत शादी नहीं की जाती है.
ऐसे हालात में जब लड़कियों की जनसंख्या पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले से ही कम है और लड़कों की संख्या ज़्यादा है, तो शादी की संस्था पर ख़ासा दबाव बन गया है.
ये आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त पंचायतें नहीं हैं बल्कि पारंपरिक पंचायत हैं, इसलिए इसलिए आधुनिक भारत में यदि किसी वर्ग को असुरक्षा की भावना महसूस हो रही है या वह अपने घटते प्रभाव को लेकर चिंतित है तो वह है खाप पंचायत...इसीलिए खाप पंचायतें संवेदनशील और भावुक मुद्दों को उठाती हैं ताकि उन्हें आम लोगों का समर्थन प्राप्त हो सके और इसमें उन्हें कामयाबी भी मिलती है
डॉक्टर प्रेम चौधरी
दूसरी ओर अब ज़्यादा बच्चे शिक्षा पा रहे हैं. लड़के-लड़कियों के आपस में मिलने के अवसर भी बढ़ रहे हैं. कहा जा सकता है कि जब आप गाँव की सीमा से निकलते हैं तो आपको ये ख़्याल नहीं होता कि आप से मिलना वाल कौन व्यक्ति किस जाति या गोत्र का है और अनेक बार संबंध बन जाते हैं. ऐसे में पुरानी परंपरा और पद्धति के मुताबिक लड़कियों पर नियंत्रण कायम रखना संभव नहीं. लड़के तो काफ़ी हद तक ख़ुद ही अपने फ़ैसले करते हैं.
पिछले कुछ वर्षों में जो किस्से सामने आए हैं वो केवल भागकर शादी करने के नहीं हैं. उनमें से अनेक मामले तो माता-पिता की रज़ामंदी के साथ शादी के भी है पर पंचायत ने गोत्र के आधार पर इन्हें नामंज़ूर कर दिया. खाप पंचायतों का रवैया तो ये है - 'छोरे तो हाथ से निकल गए, छोरियों को पकड़ कर रखो.' इसीलिए लड़कियाँ को ही परंपराओं, प्रतिष्ठा और सम्मान का बोझ ढोने का ज़रिया बना दिया गया है.
ये बहुत विस्फोटक स्थिति है.
इस पूरे प्रकरण में प्रशासन और सरकार लाचार से क्यों नज़र आते हैं?
प्रशासन और सरकार में वहीं लोग बैठे हैं जो इसी समाज में पैदा और पले-बढ़े हैं. यदि वे समझते हैं कि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को औरत को नियंत्रण में रखकर ही आगे बढ़ाया जा सकता है तो वे भी इन पंचायतों का विरोध नहीं करेंगे. देहात में जाऊँ तो मुझे बार-बार सुनने को मिलता है कि ये तो सामाजिक समस्या है, लड़की के बारे में उसका कुन्बा ही बेहतर जानता है. जब तक क़ानून व्यवस्था की समस्या पैदा न हो जाए तब तक ये लोग इन मामलों से दूर रहते हैं.
आधुनिकता और विकास के कई पैमाने हो सकते हैं लेकिन देहात में ये प्रगति जो आपको नज़र आ रही है, वो कई मायनों में सतही है.
छोरे तो हाथ से निकल गए, छोरियों को पकड़ लो.
संवाद
इंसान खाप पंचायत का समर्थन करेंगे
महेंद्र सिंह टिकैत से रेयाज़ उल हक़ की बातचीत
किसान यूनियन के अध्यक्ष और बालियान खाप के चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत खाप पंचायतों में किसी भी तरह के हस्तक्षेप के खिलाफ हैं. प्रेम विवाह को लेकर उनकी राय है कि इसमें लाज-लिहाज कुछ रह ही नहीं जाता. विवाह अधिनियम में संशोधन को लेकर उनका मानना है कि जो इंसान हैं, वो समर्थन करेंगे और जो राक्षस हैं, वो इसका विरोध करेंगे. उनसे की गई इस बातचीत के कुछ अंश तहलका में प्रकाशित हुये हैं. यहां पेश है पूरी बातचीत.
• अब तो केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि वह हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन करने की मांग पर गौर नहीं करेगी. खाप पंचायतें अब क्या करेंगी?
सरकार ने तो बोल दिया है, लेकिन जनता न तो चुप बैठेगी, न भय खाएगी. जो आदमी मान-सम्मान, प्रतिष्ठा और मर्यादा के साथ जिंदगी जीना चाहे उसे जीने दिया जाए, हम यह चाहते हैं. सरकार को या किसी को भी जनता को ऐसा करने से रोकने का क्या अधिकार है? इस देश में गरीब और असहाय लोगों की प्रतिष्ठा को ही सब लूटना चाहते हैं. 'द्वार बंद होंगे नादार (गरीब) के लिए, द्वार खुलेंगे दिलदार के लिए'. आदमी इज्जत के लिए ही तो सब कुछ करता है. चाहे कोई भी इंसान हो, इज्जत से रहना चाहता है.
• लेकिन समाज बदलता भी तो है. प्रतिष्ठा और मर्यादा के पुराने मानक हमेशा नहीं बने रहते. आप इस बदलाव को क्यों रोकना चाहते हैं?
तबदीली तो होती है, बहुत होती है. हमारे यहां भी बहुत तबदीली हुई. हमारी संस्कृति खत्म हो गई. हमारी देशी गाएं अब नहीं रहीं. हमारी जमीन बंजर हो गई. बस इनसान की नस्ल बची हुई है, उस पर भी धावा बोल दिया गया. अपनी नस्ल को भूल कर और उसे खत्म कर के कोई कैसे रह सकता है? और यह सारी बुराई रेडियो-टीवी ने पैदा की है.
• रेडियो-टीवी ने क्या-क्या असर डाले हैं?
बहुत ही खराब. जहां बहन-भाई का भी रिश्ता सुरक्षित नहीं बना रहेगा, वहां इज्जत कैसे बचेगी? महर्षि दयानंद ने कहा था- सात पीढ़ियों को छोड़ कर रिश्ता होना चाहिए. लेकिन राजनीतिक पचड़ा इन बातों को बरबाद कर रहा है. हमारा मानना है कि इनसान का जीवन इनसान की तरह होना चाहिए. पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश के इलाकों में लोग इन नियमों का उल्लंघन बरदाश्त नहीं किया जाएगा.
• आप प्रेम विवाह के इतने खिलाफ क्यों हैं?
लाज-लिहाज तो इसमें कुछ रह ही नहीं जाता. शादी मां-बाप की रजामंदी से हो, परिवार की रजामंदी से हो तो सब ठीक रहता है.
• लेकिन लोगों को अपनी मरजी से जीने और साथी चुनने का अधिकार तो है?
अधिकार तो जरूर है. पशुओं से भी बदतर जिंदगी बना लो इनसान की, इसका अधिकार तो है आपको. लेकिन हम इसे बरदाश्त नहीं करेंगे कि हमारे रिवाजों और मर्यादा पर इस तरह हमला किया जाए.
• और यह मर्यादा के ये पुराने मानक इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनके लिए हत्या तक जायज है?
लज्जा, मान, धर्म रक्षा और प्राण रक्षा के लिए तो युधिष्ठिर तक ने कहा था कि झूठ बोलना जायज है. हम अपनी मर्यादा की रक्षा करना चाहते हैं और इसके लिए हम 23 मई को महापंचायत में बैठ रहे हैं जींद में. इसके बाद दिल्ली की लड़ाई होगी.
• आपकी इस लड़ाई में कितने लोग आपके साथ आएंगे? कितने समर्थन की उम्मीद कर रहे हैं आप?
मुझे नहीं पता. मुझे कुछ पता नहीं.
• नवीन जिंदल और ओम प्रकाश चौटाला ने विवाह अधिनियम में संशोधन की मांग का समर्थन किया है. और कौन-कौन से लोग आपके साथ हैं?
इंसान तो इसका समर्थन करेंगे. जो राक्षस हैं, वही हमारी ऐसी मांगों का विरोध करेंगे. इस माहौल में कोई भी हो, चाहे गूजर हो, ठाकुर हो, वाल्मीकि हो, ब्राह्मण हो या हरिजन हो- ऐसी शादियों को कोई भी मंजूर नहीं करेगा. कोई भी इसे बरदाश्त करने को तैयार नहीं है. इतने सब लोग एक साथ हैं.
• किसी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी ने अब तक आपको समर्थन नहीं दिया है. कोई पार्टी आपके संपर्क में है? आप किससे उम्मीद कर रहे हैं?
पार्टी की बात नहीं है. यह राजनीतिक मुद्दा नहीं है. यह एक सामाजिक मुद्दा है और इसमें सब साथ आएंगे. वैसे हम किसी (पार्टी) के समर्थन के भरोसे नहीं बैठे हैं. हम आजाद हैं और सरकार को हमारी सुननी पड़ेगी.
• लेकिन अब तक तो सरकार आपसे सहमत नहीं दिखती. अगर उसने नहीं सुना तो आपकी आगे की रणनीति क्या होगी?
वह नहीं मानेगी तो हम देखेंगे. हमारी क्षमता है लड़ाई लड़ने की और हम लड़ेंगे. मरते दम तक लड़ेंगे. (प्रधानमंत्री) मनमोहन सिंह का भी तो कोई गोत्र है. (हरियाणा के मुख्यमंत्री) हुड्डा का भी तो गोत्र है. क्या वे इसे मान लेंगे कि गोत्र में शादी करना जायज है?
• देश के उन इलाकों में भी जहां गोत्र में शादी पर रोक रही है, अब यह उतना संवेदनशील मामला नहीं रह गया है. वहां से एसी कोई मांग नहीं उठी है. फिर खाप पंचायतें इसे लेकर इतने संवेदनशील क्यों हैं?
तमिलनाडू और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में तो भांजी के साथ शादी जायज है. हम उसके खिलाफ नहीं हैं. हमारा कहना है कि जहां जैसा चलन है वहां वैसा चलने दो. जहां नहीं है, वहां नई बात नहीं चल सकती. बिना काम के किसी बात को छेड़ना, कान को छेड़ना और मशीन के किसी पुरजे को छेड़ना नुकसानदायक है.
ये सूरत बदलनी चाहिये
दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आजादी के 6 दषक बाद भी भारतीय लोकतंत्र में समानान्तर न्यायिक प्रक्रिया ‘खाप पंचायत’ के तहत चल रही है जिसके पिछे एक पूरा इतिहास है। ‘खाप पंचायत’ एक पुरानी सामाजिक प्रषासनिक व्यवस्था है जिसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है, जहां पर जाति या गौत्र का मुखिया चुना जाता था, जिसे ‘चैधरी’ कहा जाता था। पुरूषप्रधान समाज होने के कारण इस पंचायत में स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं दिया गया है। मगर कालान्तर में इस व्यवस्था का ‘चैधरी’ का पद जन्मगत हो गया। द्वितिय विष्व युद्ध में इन चैधरीयों ने अंगे्रजों की खूब मदद की तो अंग्रेजों ने जागीरें दे दी। हर गांव में 5-7 गौत्रों के लोग रहते थे जिन्हें ‘भाईचारे का रूप देकर आपस में शादी नहीं करते थे और ये ही पंचायते अब ‘खाप पंचायत’ के तहत युवाओं की स्वतंत्रता पर नकेल कसी जा रही है। यह सब मामला ‘इज्जत’ बचाने के नाम पर किया जा रहा है, जब दुनियां चांद पर बसने के प्लान बना रही है तो भारत में पांच सौ साल पीछे जाने की बात हो रही है। इसके पीछे एक सबसे बढ़ा कारण है कि समाज में स्त्रियों को एक उपभोग की वस्तु के रूप में देखा जाता है। ‘खाप पंचायत’ के अंतर्गत पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मघ्यप्रदेष और पष्चिमी उतर प्रदेष आदी वही इलाका है, जहां पर भ्रूण हत्या एक फैषन बन गया था। इसके कोई लिखित नियम भी नही है, ‘चैधरी’ तय कर देता है वो सर्वमान्य है। स्त्रियों भागीदारी की बात करें तो पर्दाप्रथा के तहत उन्हें तो बोलने का भी अधिकार नहीं है, चाहे कितना ही जुल्म हो। शायद दुनियां कि एकमात्र बिना गवाह की अदालत होगी- खाप पंचायत। अब मामला यह है कि देष में हर व्यस्क नागरिक को फैसला लेने कर अधिकार है और अगर दो व्यस्क स्त्री पुरूष अपनी ज़िदगी के बारे में साथ रहने का फैसला करते है तो कानूनी रूप से वैध है। लेकिन जाति पंचायतों को यह मंजूर नहीं अगर अपने ही गौत्र में कोई शादी करता है तो उसके खिलाफ यह तर्क देते है कि इनके बीच तो भाई बहन का रिष्ता है और अंर्तजातिय विवाह करते है तो ‘इज्जत’ का सवाल खड़ा कर देते है। अब बताये कि किससे शादी करें? दरअसल इस देष में जरति व्यवस्था की जड़े इतनी गहरी है कि अभी भी राजनीति से लेकर सामाजिक ढ़ंाचा इसके चक्कर लगाता हुआ नजर आ रहा है। इसी के कारण आज खाप पंचायते न केवल अस्तित्व में हैं बल्कि धड़ले से रोज फैसले सुनकार बेगुनाहों की ज़िंदगीयों को तबाह भी कर रही हंै। पंचायती राज के तहत चुने हुए पदाधिकारी भी असमर्थ दिखाई देते है क्योंकि या तो वो भी ऐसी मान्यताओं को मानते है या फिर वोट बैंक के डर से कुछ करते नही। अभी तो खाप पंचायतें इसलिये चर्चा में है क्योंकि मीडिया ने इस को मुद्दा बना रखा है वरना ये पहले भी अस्तित्व में थी और इनसे अमानवीय फैसले देती थी। यही वोट बैंक की राजनीति सता के ऊंचे गलियारों की है, वो भी कुर्सी के डर से मूकदर्षक बना रहता है। अगर बात करें न्याय प्रणाली की तो पहली बात तो धन और बाहुबल के कारण बहुत से मामले अदालत के दरवाजे तक जाते ही नहीं, अगर कोई किसी तरह अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो वहां भी इंसाफ की कम ही उम्मीद रहती है क्याकि अदालत सबूत और गवाह मागंती है लेकिन पूरी जाति व बिरादरी के सामने गवाही देने के लिये कोई भी तैयार नहीं होता और इस तरह मामला रफा दफा हो जाता है। इन खाप पंचायतों का प्रभाव इतना अधिक है कि एक पंचायत 84 गांवों को देखती है यानी अपने स्तर पर एक दूसरी शासन व्यवस्था जिसका समाज में वैधानिक आधार नहीं है। लेकिन मौत तक फैसले सुना देती और समाज को उन्हें मानना भी पड़ता है जबकि देष में सवैधानिक रूप से लोकतंत्र है। इसके पीछे मुख्य कारण है कि जातिव्यवस्था हमारे समाज की रगो में खून की तरह बह रह है, षिक्षा के अभाव में लोगों का दिमाग सामन्तवादी सोच और अंधविष्वास से बाहर निकलने की कोषिष भी नही करता। सामाजिक स्तर पर इतनी विद्रुपताएं आ गई है कि जो लोग प्रषासन और न्यायिक प्रक्रिया में है वो भी रूढ़ीवादी मानसिकता में घिरे हुए होने के कारण ऐसे लोगों को शह मिलती है। दूसरी और वोट बैंक के कारण राजनीतिक महत्व के लोग भी चुपि साधे हुये रहते है। अब सवाल उठता है कि समाज को ऐसी स्थिति से कैसे बाहर निकाला जाये, सबसे पहले तो षिक्षा के स्तर को लगातार बढ़ाना पड़ेगा और स्त्री सशक्तिकरण को बढ़ावा देकर लिंग के आधार पर समाज में बराबरी लानी होगी और उसके साथ ही जाति व्यवस्था को सिरे से समाप्त करना होगा।
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अतुल संगर
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
विशेषज्ञ कहते हैं कि परंपरा-रिवायतें निभाने का बोझ केवल लड़कियों पर डाल दिया गया है
जब भी गाँव, जाति, गोत्र, परिवार की 'इज़्ज़त' के नाम पर होने वाली हत्याओं की बात होती है तो जाति पंचायत या खाप पंचायत का ज़िक्र बार-बार होता है.
शादी के मामले में यदि खाप पंचायत को कोई आपत्ति हो तो वे युवक और युवती को अलग करने, शादी को रद्द करने, किसी परिवार का समाजाकि बहिष्कार करने या गाँव से निकाल देने और कुछ मामलों में तो युवक या युवती की हत्या तक का फ़ैसला करती है.
लेकिन क्या है ये खाप पंचायत और देहात के समाज में इसका दबदबा क्यों कायम है? हमने इस विषय पर और जानकारी पाने के लिए बात की डॉक्टर प्रेम चौधरी से, जिन्होंने इस पूरे विषय पर गहन शोध किया है. प्रस्तुत हैं उनके साथ बातचीत के कुछ अंश:
खाप पंचायतों का 'सम्मान' के नाम पर फ़ैसला लेने का सिलसिला कितना पुराना है?
ऐसा चलन उत्तर भारत में ज़्यादा नज़र आता है. लेकिन ये कोई नई बात नहीं है. ये ख़ासे बहुत पुराने समय से चलता आया है....जैसे जैसे गाँव बसते गए वैसे-वैसे ऐसी रिवायतें बनतीं गई हैं. ये पारंपरिक पंचायतें हैं. ये मानना पड़ेगा कि हाल-फ़िलहाल में इज़्ज़त के लिए हत्या के मामले बहुत बढ़ गए है.
ये खाप पंचायतें हैं क्या? क्या इन्हें कोई आधिकारिक या प्रशासनिक स्वीकृति हासिल है?
रिवायती पंचायतें कई तरह की होती हैं. खाप पंचायतें भी पारंपरिक पंचायते है जो आजकल काफ़ी उग्र नज़र आ रही हैं. लेकिन इन्हें कोई आधिकारिक मान्यता प्राप्त नहीं है.
खाप पंचायतों में प्रभावशाली लोगों या गोत्र का दबदबा रहता है. साथ ही औरतें इसमें शामिल नहीं होती हैं, न उनका प्रतिनिधि होता है. ये केवल पुरुषों की पंचायत होती है और वहीं फ़ैसले लेते हैं. इसी तरह दलित या तो मौजूद ही नहीं होते और यदि होते भी हैं तो वे स्वतंत्र तौर पर अपनी बात किस हद तक रख सकते हैं, हम जानते हैं. युवा वर्ग को भी खाप पंचायत की बैठकों में बोलने का हक नहीं होता...
डॉक्टर प्रेस चौधरी
एक गोत्र या फिर बिरादरी के सभी गोत्र मिलकर खाप पंचायत बनाते हैं. ये फिर पाँच गाँवों की हो सकती है या 20-25 गाँवों की भी हो सकती है. मेहम बहुत बड़ी खाप पंचायत और ऐसी और भी पंचायतें हैं.
जो गोत्र जिस इलाक़े में ज़्यादा प्रभावशाली होता है, उसी का उस खाप पंचायत में ज़्यादा दबदबा होता है. कम जनसंख्या वाले गोत्र भी पंचायत में शामिल होते हैं लेकिन प्रभावशाली गोत्र की ही खाप पंचायत में चलती है. सभी गाँव निवासियों को बैठक में बुलाया जाता है, चाहे वे आएँ या न आएँ...और जो भी फ़ैसला लिया जाता है उसे सर्वसम्मति से लिया गया फ़ैसला बताया जाता है और ये सभी पर बाध्य होता है.
सबसे पहली खाप पंचायतें जाटों की थीं. विशेष तौर पर पंजाब-हरियाणा के देहाती इलाक़ों में जाटों के पास भूमि है, प्रशासन और राजनीति में इनका ख़ासा प्रभाव है, जनसंख्या भी काफ़ी ज़्यादा है... इन राज्यों में ये प्रभावशाली जाति है और इसीलिए इनका दबदबा भी है.
हाल-फ़िलहाल में खाप पंचायतों का प्रभाव और महत्व घटा है, क्योंकि ये तो पारंपरिक पंचायते हैं और संविधान के मुताबिक अब तो निर्वाचित पंचायतें आ गई हैं. खाप पंचायत का नेतृत्व गाँव के बुज़ुर्गों और प्रभावशाली लोगों के पास होता है.
खाप पंचायतों के लिए गए फ़ैसलों को कहाँ तक सर्वसम्मति से लिए गए फ़ैसले कहा जाए?
लोकतंत्र के बाद जब सभी लोग समान हैं. इस हालात में यदि लड़का लड़की ख़ुद अपने फ़ैसले लें तो उन्हें क़ानून तौर पर अधिकार तो है लेकिन रिवायती तौर पर नहीं है.
खाप पंचायतों में प्रभावशाली लोगों या गोत्र का दबदबा रहता है. साथ ही औरतें इसमें शामिल नहीं होती हैं, न उनका प्रतिनिधि होता है. ये केवल पुरुषों की पंचायत होती है और वहीं फ़ैसले लेते हैं.
एक गाँव जहाँ पाँच गोत्र थे, आज वहाँ 15 या 20 गोत्र वाले लोग हैं. छोटे गाँव बड़े गाँव बन गए हैं. पुरानी पद्धति के अनुसार जातियों के बीच या गोत्रों के बीच संबंधों पर जो प्रतिबंध लगाए गए थे, उन्हें निभाना अब मुश्किल हो गया है. जब लड़कियों की जनसंख्या पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले से ही कम है और लड़कों की संख्या ज़्यादा है, तो समाज में तनाव पैदा होना स्वभाविक है..
डॉक्टर प्रेम चौधरी
इसी तरह दलित या तो मौजूद ही नहीं होते और यदि होते भी हैं तो वे स्वतंत्र तौर पर अपनी बात किस हद तक रख सकते हैं, वह हम सभी जानते हैं. युवा वर्ग को भी खाप पंचायत की बैठकों में बोलने का हक नहीं होता. उन्हें कहा जाता है कि - 'तुम क्यों बोल रहे हो, तुम्हारा ताऊ, चाचा भी तो मौजूद है.'
क्योंकि ये आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त पंचायतें नहीं हैं बल्कि पारंपरिक पंचायत हैं, इसलिए इसलिए आधुनिक भारत में यदि किसी वर्ग को असुरक्षा की भावना महसूस हो रही है या वह अपने घटते प्रभाव को लेकर चिंतित है तो वह है खाप पंचायत....
इसीलिए खाप पंचायतें संवेदनशील और भावुक मुद्दों को उठाती हैं ताकि उन्हें आम लोगों का समर्थन प्राप्त हो सके और इसमें उन्हें कामयाबी भी मिलती है.
पिछले कुछ वर्षों में इन पंचायतों से संबंधित हिंसा और हत्या के इतने मामले क्यों सामने आ रहे हैं?
स्वतंत्रता के बाद एक राज्य से दूसरे राज्य में और साथ ही एक ही राज्य के भीतर भी बड़ी संख्या में लोगों का आना-जाना बढ़ा है. इससे किसी भी क्षेत्र में जनसंख्या का स्वरूप बदला है.
एक गाँव जहाँ पाँच गोत्र थे, आज वहाँ 15 या 20 गोत्र वाले लोग हैं. छोटे गाँव बड़े गाँव बन गए हैं. पुरानी पद्धति के अनुसार जातियों के बीच या गोत्रों के बीच संबंधों पर जो प्रतिबंध लगाए गए थे, उन्हें निभाना अब मुश्किल हो गया है.
यदि पहले पाँच गोत्रों में शादी-ब्याह करने पर प्रतिबंध था तो अब इन गोत्रों की संख्या बढ़कर 20-25 हो गई है. आसपास के गाँवों में भी भाईचारे के तहत शादी नहीं की जाती है.
ऐसे हालात में जब लड़कियों की जनसंख्या पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले से ही कम है और लड़कों की संख्या ज़्यादा है, तो शादी की संस्था पर ख़ासा दबाव बन गया है.
ये आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त पंचायतें नहीं हैं बल्कि पारंपरिक पंचायत हैं, इसलिए इसलिए आधुनिक भारत में यदि किसी वर्ग को असुरक्षा की भावना महसूस हो रही है या वह अपने घटते प्रभाव को लेकर चिंतित है तो वह है खाप पंचायत...इसीलिए खाप पंचायतें संवेदनशील और भावुक मुद्दों को उठाती हैं ताकि उन्हें आम लोगों का समर्थन प्राप्त हो सके और इसमें उन्हें कामयाबी भी मिलती है
डॉक्टर प्रेम चौधरी
दूसरी ओर अब ज़्यादा बच्चे शिक्षा पा रहे हैं. लड़के-लड़कियों के आपस में मिलने के अवसर भी बढ़ रहे हैं. कहा जा सकता है कि जब आप गाँव की सीमा से निकलते हैं तो आपको ये ख़्याल नहीं होता कि आप से मिलना वाल कौन व्यक्ति किस जाति या गोत्र का है और अनेक बार संबंध बन जाते हैं. ऐसे में पुरानी परंपरा और पद्धति के मुताबिक लड़कियों पर नियंत्रण कायम रखना संभव नहीं. लड़के तो काफ़ी हद तक ख़ुद ही अपने फ़ैसले करते हैं.
पिछले कुछ वर्षों में जो किस्से सामने आए हैं वो केवल भागकर शादी करने के नहीं हैं. उनमें से अनेक मामले तो माता-पिता की रज़ामंदी के साथ शादी के भी है पर पंचायत ने गोत्र के आधार पर इन्हें नामंज़ूर कर दिया. खाप पंचायतों का रवैया तो ये है - 'छोरे तो हाथ से निकल गए, छोरियों को पकड़ कर रखो.' इसीलिए लड़कियाँ को ही परंपराओं, प्रतिष्ठा और सम्मान का बोझ ढोने का ज़रिया बना दिया गया है.
ये बहुत विस्फोटक स्थिति है.
इस पूरे प्रकरण में प्रशासन और सरकार लाचार से क्यों नज़र आते हैं?
प्रशासन और सरकार में वहीं लोग बैठे हैं जो इसी समाज में पैदा और पले-बढ़े हैं. यदि वे समझते हैं कि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को औरत को नियंत्रण में रखकर ही आगे बढ़ाया जा सकता है तो वे भी इन पंचायतों का विरोध नहीं करेंगे. देहात में जाऊँ तो मुझे बार-बार सुनने को मिलता है कि ये तो सामाजिक समस्या है, लड़की के बारे में उसका कुन्बा ही बेहतर जानता है. जब तक क़ानून व्यवस्था की समस्या पैदा न हो जाए तब तक ये लोग इन मामलों से दूर रहते हैं.
आधुनिकता और विकास के कई पैमाने हो सकते हैं लेकिन देहात में ये प्रगति जो आपको नज़र आ रही है, वो कई मायनों में सतही है.
छोरे तो हाथ से निकल गए, छोरियों को पकड़ लो.
संवाद
इंसान खाप पंचायत का समर्थन करेंगे
महेंद्र सिंह टिकैत से रेयाज़ उल हक़ की बातचीत
किसान यूनियन के अध्यक्ष और बालियान खाप के चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत खाप पंचायतों में किसी भी तरह के हस्तक्षेप के खिलाफ हैं. प्रेम विवाह को लेकर उनकी राय है कि इसमें लाज-लिहाज कुछ रह ही नहीं जाता. विवाह अधिनियम में संशोधन को लेकर उनका मानना है कि जो इंसान हैं, वो समर्थन करेंगे और जो राक्षस हैं, वो इसका विरोध करेंगे. उनसे की गई इस बातचीत के कुछ अंश तहलका में प्रकाशित हुये हैं. यहां पेश है पूरी बातचीत.
• अब तो केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि वह हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन करने की मांग पर गौर नहीं करेगी. खाप पंचायतें अब क्या करेंगी?
सरकार ने तो बोल दिया है, लेकिन जनता न तो चुप बैठेगी, न भय खाएगी. जो आदमी मान-सम्मान, प्रतिष्ठा और मर्यादा के साथ जिंदगी जीना चाहे उसे जीने दिया जाए, हम यह चाहते हैं. सरकार को या किसी को भी जनता को ऐसा करने से रोकने का क्या अधिकार है? इस देश में गरीब और असहाय लोगों की प्रतिष्ठा को ही सब लूटना चाहते हैं. 'द्वार बंद होंगे नादार (गरीब) के लिए, द्वार खुलेंगे दिलदार के लिए'. आदमी इज्जत के लिए ही तो सब कुछ करता है. चाहे कोई भी इंसान हो, इज्जत से रहना चाहता है.
• लेकिन समाज बदलता भी तो है. प्रतिष्ठा और मर्यादा के पुराने मानक हमेशा नहीं बने रहते. आप इस बदलाव को क्यों रोकना चाहते हैं?
तबदीली तो होती है, बहुत होती है. हमारे यहां भी बहुत तबदीली हुई. हमारी संस्कृति खत्म हो गई. हमारी देशी गाएं अब नहीं रहीं. हमारी जमीन बंजर हो गई. बस इनसान की नस्ल बची हुई है, उस पर भी धावा बोल दिया गया. अपनी नस्ल को भूल कर और उसे खत्म कर के कोई कैसे रह सकता है? और यह सारी बुराई रेडियो-टीवी ने पैदा की है.
• रेडियो-टीवी ने क्या-क्या असर डाले हैं?
बहुत ही खराब. जहां बहन-भाई का भी रिश्ता सुरक्षित नहीं बना रहेगा, वहां इज्जत कैसे बचेगी? महर्षि दयानंद ने कहा था- सात पीढ़ियों को छोड़ कर रिश्ता होना चाहिए. लेकिन राजनीतिक पचड़ा इन बातों को बरबाद कर रहा है. हमारा मानना है कि इनसान का जीवन इनसान की तरह होना चाहिए. पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश के इलाकों में लोग इन नियमों का उल्लंघन बरदाश्त नहीं किया जाएगा.
• आप प्रेम विवाह के इतने खिलाफ क्यों हैं?
लाज-लिहाज तो इसमें कुछ रह ही नहीं जाता. शादी मां-बाप की रजामंदी से हो, परिवार की रजामंदी से हो तो सब ठीक रहता है.
• लेकिन लोगों को अपनी मरजी से जीने और साथी चुनने का अधिकार तो है?
अधिकार तो जरूर है. पशुओं से भी बदतर जिंदगी बना लो इनसान की, इसका अधिकार तो है आपको. लेकिन हम इसे बरदाश्त नहीं करेंगे कि हमारे रिवाजों और मर्यादा पर इस तरह हमला किया जाए.
• और यह मर्यादा के ये पुराने मानक इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनके लिए हत्या तक जायज है?
लज्जा, मान, धर्म रक्षा और प्राण रक्षा के लिए तो युधिष्ठिर तक ने कहा था कि झूठ बोलना जायज है. हम अपनी मर्यादा की रक्षा करना चाहते हैं और इसके लिए हम 23 मई को महापंचायत में बैठ रहे हैं जींद में. इसके बाद दिल्ली की लड़ाई होगी.
• आपकी इस लड़ाई में कितने लोग आपके साथ आएंगे? कितने समर्थन की उम्मीद कर रहे हैं आप?
मुझे नहीं पता. मुझे कुछ पता नहीं.
• नवीन जिंदल और ओम प्रकाश चौटाला ने विवाह अधिनियम में संशोधन की मांग का समर्थन किया है. और कौन-कौन से लोग आपके साथ हैं?
इंसान तो इसका समर्थन करेंगे. जो राक्षस हैं, वही हमारी ऐसी मांगों का विरोध करेंगे. इस माहौल में कोई भी हो, चाहे गूजर हो, ठाकुर हो, वाल्मीकि हो, ब्राह्मण हो या हरिजन हो- ऐसी शादियों को कोई भी मंजूर नहीं करेगा. कोई भी इसे बरदाश्त करने को तैयार नहीं है. इतने सब लोग एक साथ हैं.
• किसी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी ने अब तक आपको समर्थन नहीं दिया है. कोई पार्टी आपके संपर्क में है? आप किससे उम्मीद कर रहे हैं?
पार्टी की बात नहीं है. यह राजनीतिक मुद्दा नहीं है. यह एक सामाजिक मुद्दा है और इसमें सब साथ आएंगे. वैसे हम किसी (पार्टी) के समर्थन के भरोसे नहीं बैठे हैं. हम आजाद हैं और सरकार को हमारी सुननी पड़ेगी.
• लेकिन अब तक तो सरकार आपसे सहमत नहीं दिखती. अगर उसने नहीं सुना तो आपकी आगे की रणनीति क्या होगी?
वह नहीं मानेगी तो हम देखेंगे. हमारी क्षमता है लड़ाई लड़ने की और हम लड़ेंगे. मरते दम तक लड़ेंगे. (प्रधानमंत्री) मनमोहन सिंह का भी तो कोई गोत्र है. (हरियाणा के मुख्यमंत्री) हुड्डा का भी तो गोत्र है. क्या वे इसे मान लेंगे कि गोत्र में शादी करना जायज है?
• देश के उन इलाकों में भी जहां गोत्र में शादी पर रोक रही है, अब यह उतना संवेदनशील मामला नहीं रह गया है. वहां से एसी कोई मांग नहीं उठी है. फिर खाप पंचायतें इसे लेकर इतने संवेदनशील क्यों हैं?
तमिलनाडू और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में तो भांजी के साथ शादी जायज है. हम उसके खिलाफ नहीं हैं. हमारा कहना है कि जहां जैसा चलन है वहां वैसा चलने दो. जहां नहीं है, वहां नई बात नहीं चल सकती. बिना काम के किसी बात को छेड़ना, कान को छेड़ना और मशीन के किसी पुरजे को छेड़ना नुकसानदायक है.
ये सूरत बदलनी चाहिये
दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आजादी के 6 दषक बाद भी भारतीय लोकतंत्र में समानान्तर न्यायिक प्रक्रिया ‘खाप पंचायत’ के तहत चल रही है जिसके पिछे एक पूरा इतिहास है। ‘खाप पंचायत’ एक पुरानी सामाजिक प्रषासनिक व्यवस्था है जिसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है, जहां पर जाति या गौत्र का मुखिया चुना जाता था, जिसे ‘चैधरी’ कहा जाता था। पुरूषप्रधान समाज होने के कारण इस पंचायत में स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं दिया गया है। मगर कालान्तर में इस व्यवस्था का ‘चैधरी’ का पद जन्मगत हो गया। द्वितिय विष्व युद्ध में इन चैधरीयों ने अंगे्रजों की खूब मदद की तो अंग्रेजों ने जागीरें दे दी। हर गांव में 5-7 गौत्रों के लोग रहते थे जिन्हें ‘भाईचारे का रूप देकर आपस में शादी नहीं करते थे और ये ही पंचायते अब ‘खाप पंचायत’ के तहत युवाओं की स्वतंत्रता पर नकेल कसी जा रही है। यह सब मामला ‘इज्जत’ बचाने के नाम पर किया जा रहा है, जब दुनियां चांद पर बसने के प्लान बना रही है तो भारत में पांच सौ साल पीछे जाने की बात हो रही है। इसके पीछे एक सबसे बढ़ा कारण है कि समाज में स्त्रियों को एक उपभोग की वस्तु के रूप में देखा जाता है। ‘खाप पंचायत’ के अंतर्गत पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मघ्यप्रदेष और पष्चिमी उतर प्रदेष आदी वही इलाका है, जहां पर भ्रूण हत्या एक फैषन बन गया था। इसके कोई लिखित नियम भी नही है, ‘चैधरी’ तय कर देता है वो सर्वमान्य है। स्त्रियों भागीदारी की बात करें तो पर्दाप्रथा के तहत उन्हें तो बोलने का भी अधिकार नहीं है, चाहे कितना ही जुल्म हो। शायद दुनियां कि एकमात्र बिना गवाह की अदालत होगी- खाप पंचायत। अब मामला यह है कि देष में हर व्यस्क नागरिक को फैसला लेने कर अधिकार है और अगर दो व्यस्क स्त्री पुरूष अपनी ज़िदगी के बारे में साथ रहने का फैसला करते है तो कानूनी रूप से वैध है। लेकिन जाति पंचायतों को यह मंजूर नहीं अगर अपने ही गौत्र में कोई शादी करता है तो उसके खिलाफ यह तर्क देते है कि इनके बीच तो भाई बहन का रिष्ता है और अंर्तजातिय विवाह करते है तो ‘इज्जत’ का सवाल खड़ा कर देते है। अब बताये कि किससे शादी करें? दरअसल इस देष में जरति व्यवस्था की जड़े इतनी गहरी है कि अभी भी राजनीति से लेकर सामाजिक ढ़ंाचा इसके चक्कर लगाता हुआ नजर आ रहा है। इसी के कारण आज खाप पंचायते न केवल अस्तित्व में हैं बल्कि धड़ले से रोज फैसले सुनकार बेगुनाहों की ज़िंदगीयों को तबाह भी कर रही हंै। पंचायती राज के तहत चुने हुए पदाधिकारी भी असमर्थ दिखाई देते है क्योंकि या तो वो भी ऐसी मान्यताओं को मानते है या फिर वोट बैंक के डर से कुछ करते नही। अभी तो खाप पंचायतें इसलिये चर्चा में है क्योंकि मीडिया ने इस को मुद्दा बना रखा है वरना ये पहले भी अस्तित्व में थी और इनसे अमानवीय फैसले देती थी। यही वोट बैंक की राजनीति सता के ऊंचे गलियारों की है, वो भी कुर्सी के डर से मूकदर्षक बना रहता है। अगर बात करें न्याय प्रणाली की तो पहली बात तो धन और बाहुबल के कारण बहुत से मामले अदालत के दरवाजे तक जाते ही नहीं, अगर कोई किसी तरह अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो वहां भी इंसाफ की कम ही उम्मीद रहती है क्याकि अदालत सबूत और गवाह मागंती है लेकिन पूरी जाति व बिरादरी के सामने गवाही देने के लिये कोई भी तैयार नहीं होता और इस तरह मामला रफा दफा हो जाता है। इन खाप पंचायतों का प्रभाव इतना अधिक है कि एक पंचायत 84 गांवों को देखती है यानी अपने स्तर पर एक दूसरी शासन व्यवस्था जिसका समाज में वैधानिक आधार नहीं है। लेकिन मौत तक फैसले सुना देती और समाज को उन्हें मानना भी पड़ता है जबकि देष में सवैधानिक रूप से लोकतंत्र है। इसके पीछे मुख्य कारण है कि जातिव्यवस्था हमारे समाज की रगो में खून की तरह बह रह है, षिक्षा के अभाव में लोगों का दिमाग सामन्तवादी सोच और अंधविष्वास से बाहर निकलने की कोषिष भी नही करता। सामाजिक स्तर पर इतनी विद्रुपताएं आ गई है कि जो लोग प्रषासन और न्यायिक प्रक्रिया में है वो भी रूढ़ीवादी मानसिकता में घिरे हुए होने के कारण ऐसे लोगों को शह मिलती है। दूसरी और वोट बैंक के कारण राजनीतिक महत्व के लोग भी चुपि साधे हुये रहते है। अब सवाल उठता है कि समाज को ऐसी स्थिति से कैसे बाहर निकाला जाये, सबसे पहले तो षिक्षा के स्तर को लगातार बढ़ाना पड़ेगा और स्त्री सशक्तिकरण को बढ़ावा देकर लिंग के आधार पर समाज में बराबरी लानी होगी और उसके साथ ही जाति व्यवस्था को सिरे से समाप्त करना होगा।
Posted by skmeel at
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