संचार क्या है
सार्थक चिन्हों द्वारा सूचनाओं को आदान -प्रदान करने की प्रक्रिया संचार है। किसी सूचना या जानकारी को दूसरों तक पहुंचाना संचार है। जब मनुष्य अपने हाव-भाव, संकेतों और वाणी के माध्यम से सूचनाओं का आदान प्रदान आपस में करता है तो वह संचार है। कम्यूनिकेशन अंग्रेजी भाषा का शब्द है जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के ``Communis´´ नामक शब्द से हुई है। इसका अर्थ समुदाय होता है। अर्थात भाईचारा, मैत्री, भाव, सहभागिता, आदि इसके अर्थ हो सकते है। इसलिए संचार का अर्थ एक-दूसरे को जानना, समझना, संबध बनाना, सूचनाओं का आदान प्रदान करना आदि है। इसके माध्यम से मनुष्य अपने विचारों, भावों, अनुभवों को एक दूसरे से बांटता है। वास्तव में विचारों की अभिव्यक्ति जिज्ञासाओं को परस्पर बांटना ही संचार का मुख्य उद्देश्य है।
संचार मनुष्यों के अलावा पशु पक्षियों में भी होता इसके लिए माध्यम का होना अति आवश्यक है। चिड़िया का चहचहाना, कुत्ते का भोंकना, सर्प का भुंकार मारना, शेर का दहाड़ना, गाय का रंभाना, मेंढ़क का टर-टर करना भी संचार है। भाषा ही संचार का पहला माध्यम है। भाषा के द्वारा ही हम अपने विचारों को समाज में आदान प्रदान करते है। इसीलिए कहा जा सकता है कि सूचनाओं, विचारों एवं भावनाओं को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक भाषा के माध्यम से ही अपने विचारों अनुभवों को समाज के सामने रख कर यथेष्ठ सूचना का प्रेषण करते है।
संचार मौखिक भी होता है और लिखित भी होता है। संचार का तीसरा चरण मुद्रण से संबध रखता है। और चौथे चरण को जनसंचार कहते है। वास्तव मे संचार एक प्रक्रिया है संदेश नहीं। इस प्रक्रिया में एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से बातचीत करता है। अपने अनुभवों को बांटता है। संचार ने ही पूरी दुनिया को एक छोटे से गांव में तब्दील कर दिया है। अमेरिकी विद्वान पसिंग ने मानव संचार के छह घटक बताऐं है।
संचार के तत्व
प्रेषक : संदेश भेजने वाला
संदेश : विचार, अनुभव, सूचना
संकेतीकरण या इकोडिंग : विचार को संकेत चिन्ह में बदलना
माध्यम : जिसके द्वारा संदेश भेजा जाता है
प्राप्तकर्ता : संदेश प्राप्त करने वाला
संकेतवाचन या डीकोडिंग : प्राप्तकर्ता संदेश को अपने मस्तिष्क में उसी अर्थ में ढ़ाल लेना
देश तथा विदेश में मनुष्य की दस्तकें बढ़ती है। इसलिए संचार-प्रक्रिया का पहला चरण प्रेषक होता है। इसको इनकोडिंग भी कहते है। एनकोडिंग के बाद विचार शब्दों, प्रतीकों, संकेतों एवं चिन्हों में बदल जाते है। इस प्रक्रिया के बाद विचार सार्थक संदेश के रूप में ढल जाता है। जब प्राप्तकर्ता अपने मस्तिष्क में उक्त संदेश को ढ़ाल लेता है तो संचार की भाषा में इसे डीकोडिंग कहते है। डीकोडिंग के बाद प्राप्तकर्ता अपनी प्रतिक्रिया भेजता है इस स्थिति को फीडबेक या प्रतिपुष्टि कहते है।
संचार की विशेषताऐं
संदेश का संप्रेषण एवं विश्लेषण करना।
संचार उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए।
प्रभावी होने के साथ-साथ सार्थक भी होना चाहिए। दो व्यक्तियों में सार्थकता का निर्माण संप्रेषण से होता है।
संप्रेषक को पहले सूचना एवं तथ्य को हृदयंगम कर लेना चाहिए।
किसी संदेश के लिए पांच प्रश्नों का उत्तर पूछना अतिआवश्यक है:-
1. कौन कहता है?
2. क्या कहता है?
3. किस माध्यम से कहता है?
4. किससे कहता है?
5. किस प्रभाव के साथ कहता है।
विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई संचार की परिभाषा
संचार एक शक्ति है जिसमें एक एकाको संप्रेषण दूसरे व्यक्तियो को व्यवहार बदलने हेतु प्रेरित करता है।
-हावलैंड
वाणी, लेखन या संकेतों के द्वारा विचारों अभिमतों अथवा सूचना का विनिमय करना संचार कहलाता है।
-रॉबर्ट एंडरसन
संचार एक पक्रिया है जिसमें सामाजिक व्यवस्था के द्वारा सूचना, निर्णय और निर्देश दिए जाते है और यह एक मार्ग है जिसमें ज्ञान, विचारों और दृष्टिकोणों को निर्मित अथवा परिवर्तित किया जाता है।
-लूमिक और बीगल
संचार समानूभूति की प्रक्रिया या श्रृंखला है जो कि एक संस्था के सदस्यों को उपर से नीचे तक और नीचे से उपर तक जोड़ती है।
-मैगीनसन
किसी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को अथवा किसी एक व्यक्ति से कई व्यक्तियों को कुछ सार्थक चिन्हों, संकेतों या प्रतीकों के सम्प्रेषण से सूचना, जानकारी, ज्ञान या मनोभाव का आदान-प्रदान करना संचार है।
-प्रो. रमेश जैन
Saturday, November 28, 2009
इलेक्ट्रानिक मीडिया क्या है?
इलेक्ट्रानिक मीडिया क्या है?
प्रकाशन, संपादन, लेखन अथवा प्रसारण के कार्य को प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक माध्यमों से आगे बढ़ाने की कला को मीडिया कहते है।
इलेक्ट्रानिक मीडिया के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों का मत
इलेक्ट्रानिक साधनों के माध्यम से जो जनसंचार होता है वह इलेक्ट्रानिक मीडिया है। (शिक्षाविद् : डॉ. प्रेमचंद पातंजलि)
श्रव्य और दृश्य विधा के माध्यम से तुरत-फुरत सूचना देने वाला माध्यम इलेक्ट्रानिक मीडिया हे। (रेडियो प्रोड्यूसर डॉ0 हरिसिंह पाल)
विशेष रूप से इलेक्ट्रानिक मीडिया से तात्पर्य ऐसी विद्या से है जिसके माध्यम से नई तकनीक के द्वारा व्यक्ति देश-विदेश की खबरों के अलावा अन्य जानकारी भी प्राप्त करता हो। (वरिष्ठ पत्रकार मोहनदास नैमिशराय)
इलेक्ट्रानिक मीडिया जनसंचार माध्यमों में प्रमुख माध्यम है। हजारों मील दूर की गतिविधियों की जीवंत जानकारी इससे पलभर में मिल जाती है।
अशांत मन ही पत्रकारिता की जननी है।
रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, इंटरनेट व मल्टीमीडिया इलेक्ट्रानिक मीडिया के अवयव है।
`नई पत्रकारिता में केवल समाचार प्रसारित करना एकमात्र उद्देश्य नहीं है, बल्कि मनोरंजन, विचार-विश्लेषण, समीक्षा, साक्षात्कार, घटना-विश्लेषण, विज्ञापन और किसी न किसी सीमा तक समाज को प्रभावित करना भी इसके उद्देश्यों में निहित है।
मीडिया समाज का आईना है और जागृति लाने का जरिया भी।
इलेक्ट्रानिक मीडिया का प्रसारण-सिद्धांत
ध्वनि -ध्वनि ही दृश्य चित्र के निर्माण में सहायक होती है। घोड़ों की टाप, युद्ध क्षेत्र का वर्णन, पशु-पक्षियों की चहचहाहट बारिश की बूदें, दरवाजे के खुलने की आवाज, जोर से चीजें पटकने, लाठी की ठक-ठक, चरम चाप की आवाज, बस व रेलगाड़ी के आने की उद्घोषणाएं, रेलवे प्लेटफार्म के दृश्य आदि का आनन्द रेडियों पर ध्वनि द्वारा ही लिया जा सकता है।
चित्रात्मकता-ध्वनियां और चित्रों का एक साथ संप्रेषण ही टेलीविजन की वास्तविक प्रक्रिया है। इसके प्रसारण में चित्रों के साथ-साथ ध्वनि के कलात्मक उपयोग पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
संगीत -संगीत ही मनोंरंजन की एक ऐसी विधा है जिससे मनुष्य ही नहीं बल्कि सर्प, हिरनजैसे पशु भी मुग्घ हो जाते है। संगीत से ही नाटकीयता उभरती है। रोचकता बढ़ती है।
कैमरा-प्रोड्यूसर को शूटिंग के समय, शूटिंग सीक्वेंस का क्रम निर्धारित करना पड़ता है। दूरदर्शन एवं फिल्म लेखन में तीन (S) का प्रयोग प्रचुर मात्राा में होता है यानी शॉट, सीन, सीक्वेंस। वही लेखक दूरदर्शन व सिनेमा में सफल हो सकता है। जिसे अभिनय, गायन, फिल्मांकन एवं संपादन का भरपूर ज्ञान हो।
भाषा :-रेडियो की भाषा आम आदमी से जुड़ी हुई भाषा है जिसे झोपड़ी से लेकर राजमहल तक सुना जाता है । जबकि टेलीविजन की भाषा एक खास वर्ग के लिए है। रेडियो पर आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया जाता है। इस भाषा में क्षेत्रीय शब्दों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। जो अपनी परम्परा, संस्कृति धर्म से जुड़े होते है। टेलविजन की भाषा में ग्लोबलाइजेशन है। विदेशी संस्कृति से जुड़े शब्दों का अधिक प्रयोग किया जाता है। आजादी के 55 साल बाद भी छोटे कस्बों में टेलीविजन की आवाज नहीं पहुंच पाई है। रेडियो वहां पहुंच गया है। वाक्य हमेश छोटे-छोटे होने चाहिए। साहित्यिक शब्द श्रोता की रूचि को नष्ट कर देते है।
संक्षिप्तता- इलेक्ट्रानिक मीडिया समयबद्ध प्रसारण है इसलिए थोड़े में बहुत कुछ कह देना इलेक्ट्रानिक मीडिया की विशेषता है।
सृजानात्मक और मीडिया
कविता, कहानी, नाटक, रिपोटाZज, साक्षात्कार, विज्ञापन, अनुवाद, कमेंट्री, फीचर, यात्रावर्णन, पुस्तक समीक्षा आदि साहित्य के सृजनात्मक पहलू है। जब इनका संबंध रेडियो व टेलीविजन से जुड़ जाता है तो ये इलेक्ट्रानिक मीडिया की श्रेणी मे आ जाते है।
सृजनशक्ति परम्परागत जनसंचार माध्यमों से आदिकाल से ही अभिव्यक्त होती रही है पर आधुनिक जनसंचार माध्यमों ने मनुष्य की सृजनशक्ति में चार चांद अवश्य लगाया है।
कठपुतली, नौटंकी, स्वांग, ढोलक आदि माध्यमोें से सृजन अभिव्यक्त होता रहा और ये माध्यम अपनी पैठ बनाते रहे। फिर मुद्रण कला का आगमन हुआ। मनुष्य की सृजनशक्ति प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया के रूप में देखी जाने लगी। दोनों का अपना-अपना घर है। शब्द-संरचना अलग-अलग है। भाषा अलग-अलग है। प्रस्तुतीकरण के तौर-तरीके एकदम भिन्न है।
कहानी कहानी होती है। इसे सुनने की ललक मनुष्य को शुरू से ही रही है। घटना-मूलकता ही पारम्परिक कहानी का प्रधान गुण माना गया है।
आगे क्या हुआ
कथानक, चरित्र, देशकाल, संवाद, भाषा-शैली, उद्देश्य कहानी के प्रमुख तत्व माने गये है।
मीडिया की गोद में आने का मतलब कहानी सर्वव्यापी होनी चाहिए। यानी बच्चे से लेकर वृद्ध उसका आनन्द ले सकें। जब कहानी टेलीविजन के लिए लिखी जाती है तो उसमें दृश्यात्मकता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
कथा के दृश्यों को फिल्मांकित करने के लिए विभिन्न लोकेशन, कोणों की योजना में एक साहित्य की विशेष प्रकार की तकनीक का प्रयोग किया जाता है जिसे वर्तमान में हम `पटकथा´ के नाम से जानते है। इस तकनीक में कथा संक्षेप रूप में लिखी जाती है। अनुवाद का अन्त ता है, ती है, ते हैं पर होता है।
कथा के प्रमुख बिन्दुओं का जिक्र करते हुए अगले चरण का संकेत किया जाता है। कथानक का क्रमश: विकास चित्रित किया जाता है। इसके बाद किाा दृश्यों में विभाजित कर दी जाती है। दृश्य-प्रति-दृश्य रूप में लिखि गई साहित्य की तकनीक ही पटकथा कहलाती है। पटकथा के अंतिम प्रारूप में कथा के साथ-साथ कैमरा, ध्वनि, अभिनय आदि का भी पूर्ण निर्देशन होता है।
पटकथा लेकक के भाषा के अलावा मीडिया संबंधी तकनीक का भरपूर ज्ञान होना आवश्यक है। प्रत्येक प्रकार के दृश्य फिल्माने के लिए पहले `मास्टर शौट´ लेना होता है। इसके बाद विषय से संबंधित शॉट लिया जाता हे। मास्टर शॉट के बाद मिड शॉट और फिर टू शॉट बाद में क्लोजअप शॉट लेना होता है।
रिपोटाZज रिपोर्ट मात्र नहीं है बल्कि लेखक का हृदय, अनुभूति, दू-दृष्टि संवेदनशील व्यक्तित्व का होना परम आवश्यक है। उक्त बातों से जो व्यक्ति ओतप्रोत नहीं होता उसे मात्र संवाददाता ही कहा जा सकता है। घटना का मार्मिक वर्णन रिपोर्ताज हैै।
नाटकीयता, रोचकता, उत्सुकता आदि गुण रखने वाला व्यक्ति ही एक अच्छा रिपोर्ताज हो सकता है।
शहर, पहाड़, झील, सम्मेलन आदि विषयों पर अच्छे रिपोर्ताज लिखे जाते है।
विषय विशेषज्ञ, साहित्कार, कलाकार, राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक आदि का अक्सर साक्षात्कार प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में प्रचुर मात्रा में लिखा जाता है।
दो व्यक्तियों की मानसिकता इस विधा के द्वारा पढ़ी, सुनी व देखी जा सकती है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से बात कहलवाकर सच्चाई की तर तक पहुंचता है।
पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी, राष्ट्रीय नेता की शवयात्रा, खेलों का आंखों-देखा हाल जब हम रेडियो व टेलीविजन पर सुनते हैं तो उसे कमेंट्री कहते है।
कमेंट्रीकर्ता को घटना की प्रत्येक चीज का वर्णन करना पड़ता है। खेल कमेंट्री उत्तेजक व रोमांचक होतीह है जबकि शवयात्रा की भावविह्वलता पूर्ण।
कमेंत्री चाहे रेडियों के लिए हो या टेलीविजन के लिए पर कमेंत्रीकर्ता का स्वर घटना के अनुकूल ही होना चाहिए।
सामग्री को पहले अच्छी तरह से पढ़ लेना चाहिए।
उच्चारण इस विधा में पहला गुण है। तकनीक ज्ञान भी होना चाहिए।
समाचार लेखन
रेडियो-समाचार बुलेटिन एवं समाचार दर्शन रेडियो समाचार के दो रूप है। बुलेटिन में देशी व विदेशी समाचार रखा जाता है। देशी व विदेशी समाचार का मतलब होता है कि जब समाचार पूरे देश से संबंध रखता है तो उसे राष्ट्रीय स्तर का समाचार कहते है, पर जहां समाचार का स्वर राष्ट्रीय स्तर का न होकर राज्य स्तर का हो तो प्रसारित होता है। रेडियो पर प्रसारित समाचार को हम बुलेटिन कहते है। जबकि समाचार दर्शन से अभिप्राय उस समाचार से है जिसमें खेल प्रतियोगित, दुघZटना स्थल, बाढ़ का आँखों देखा हाल, साक्षात्कार, व्याख्यान, रोचक घटनाओं का वर्णन आता है।
बोलने से पहले समाचार कागज पर छोटे व सरल वाक्यों में लिखा जाता है। इस लिखे हुए रूप को रेडियो-िस्क्रप्ट कहते है। श्रोता को हमेशा यही लगे कि समाचार वाचक कंठस्थ बोल रहा है।
रेडियो समाचार की भाषा सरल होनी चाहिए। साहित्यिक भाषा का पुट कदापि न होना चाहिए। यह मानकर लिखना चाहिए कि मुझे समाचार अनपढ़ व्यक्ति को सुनाना है। समाचार में दैनिक भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
वाक्य में उतने शब्द होने चाहिए जितने एक सांस में बोले जा सकें। क्या, क्यों, कब, कहाँ, किसने तथा कैसे आदि छह शब्द रेडियो समाचार के मुख्य अवयव है अत: इन छह अवयवों को ध्यान में रख कर समाचार तैयार करना चाहिए।
रेडियो समाचार लेखन में तारीख के स्थान पर दिन का प्रयोग होता है। महीने व साल का नाम देने के स्थान पर `आज´, रविवार, सोमवार या यूँ कहिए कि `इस सप्ताह´, `इस महिने´, अगले महीने, पिछले वर्ष, अगले वर्ष आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। उपयुZक्त क्रमश: पर्वोक्त, अप्रसन्नता, साधन अपर्याप्त आदि शब्दों का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए।
स्क्रप्ट लिखते समय पंक्ति स्पष्ट, शब्द अलग-अलग, कागज के दोनों ओर समान हाशिया के अलावा पृष्ठ समाप्त होने से पहले वाक्य समाप्त कर देना चाहिए।
छोटी संख्या को हमेश अंकों में तथा बड़ी संख्या को शब्दों में लिखना चाहिए। इसके भी दो तरीके है-पहला तो यह है कि बारह हजार चार सौ पच्चीस, दूसरा तरीका है 12 हजार 4 सौ पच्चीस (12425)
मुख्य समाचारों को सदैव बोल्ड किया जाता है जिसे समाचार वाचक उस पर जोर देकर पढ़ सके।
रेडियो पर अक्सर, 5,10,15 मिनट का समाचार बुलेटिन होता है। 2 मिनट का समाचार संक्षिप्त में दिया जाता है जब कि दस व पन्द्रह मिनट का समाचार तीन चरणों में बांटा जाता है। पहले चरण में मुख्य समाचार तथा दूसरे चरण में विस्तरपूर्वक समाचार तथा अंतिम चरण में पुन: मुख्य समाचार बोले जाते है।
रेडियो पत्रकारिता समय सीमा के अन्तर्गत चलती है इसलिए इस पत्रकारिता की खूबी है कि 20 या 30 शब्दों में समाचार तैयार करें।
10 मिनट के बुलेटिन में चार से छह तथा 15 मिनट के बुलेटिन में छह से आठ तक हेड लाइन्स होती है।
15 हजार शब्दों का एक बुलेटिन होता है।
टेलिविजन
टेलिविजन के लिए लिखने वाला व्यक्ति दृश्य व बिम्बों पर सोचता है। टेलीविजन समाचार के दो पक्ष होते हैं। पहले पक्ष में समाचार लेखन, समाचार संयोजन के अलावा दृश्य संयोजन एवं सम्पादन-कार्य आता है। वाचन कार्य दूसरे पक्ष में रखा गया है।
समाचार तैयार करते समय समाचार से संबंधित दृश्यात्मकता पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
ग्राफ्स, रेखाचित्र एवं मानचित्रों का भी संयोजन एक तरीकेबद्ध किया जाता है। समय-सीमा का भी पूर्ण ध्यान रखना पड़ता है।
टेलिविजन समाचार सम्पादक का काम बड़ा चुनौतीपूर्ण होता है। समाचार के साथ दृश्य संलग्न करना। समाचार व दृश्य सामग्री की समय-सीमा भी निर्धारित करनी होती है। टेलीविजन पर समाचार संवाददाता ही समाचार वाचक भी हो सकता है और नहीं भी।
चित्रों का सम्पादन -क्रम में समाचार वाचन करना होता है।
टेलीविजन समाचार को रेडियो की भांति तीन चरणों में विभाजित किया जाता है। पहले और तीसरे चरण को मुख्य समाचार कहते हैं। दूसरा चरण विस्तारपूर्वक समाचारों का होता है। प्रत्येक बुलेटिन मे छ: या आठ मुख्य समाचार होते है। मुख्य समाचार संक्षिप्त होते है। सम्पादक समाचारों की चार प्रतियां तैयार करता है। फ्लोर मैनेजरर, वाचक एवं प्रोड्यूसर को एक-एक प्रति दी जाती है। चौधी प्रति वह स्वयं अपने पास रखता है।
नवीनता, स्पष्टता, संक्षिप्ता एवं भाषा का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए।
इसलिए टेलिविजन समाचारों में घटनाक्रम, चित्रात्मकता, संक्षिप्तता, संभाषणशीलता, समय-सीमा के अलावा रोचकता विशेष गुण माने गये है।
समाचार वाचन
रेडियो वाचन
रेडियो प्रस्तुतीकरण के लिए स्वाभाविकता, आत्मीयता एवं विविधता का हमेशा ध्यान रखना चाहिए।
प्रिंट मीडिया हमें 24 घंटे बाद समाचार देता है जबकि रेडियो से हमें तुरन्त समाचार उपलब्ध हो जाता है। रेडियो से हम प्रति घंटे देश-विदेश की नवीनतम घटनाओं से अवगत होते हैं पर ऐसा संचार के अन्य माध्यमों से संभव नहीं है।
रेडियो समाचार के तीन चरण है-पहले चरण में समाचार विभिन्न स्रोतों से संकलित किया जाता है। दूसरे चरण में समाचारों का चयन होता है तथा तीसरे चरण में समाचार लेखन आता है।
समाचार जनहित एवं राष्ट्रहित होना चाहिए। समाचार सम्पादक मान्यता प्राप्त माध्यमों से ही समाचार स्वीकार करता है।
समाचार छोटे वाक्य एवं सरल भाषा में लिखा जाता है। समाचार संक्षिप्त एवं पूर्ण लिखा जाता है। समाचार में आंकड़ों को कम ही स्थान दिया जाता है। समाचार लिखने के बाद समाचार सम्पादक एक बार पुन: समाचार का अवलोकन करता है। इसके बाद समाचार को `पूल´ में रखा जाता है। पूल का मतलब होता है जहां से समाचार वाचक को समाचार पढ़ने को दिया जाता है। पूल को तीन भागों में रखा गया है-पहले भाग में देशी समाचार रखे जाते है। राजनीतिक समाचार भी इस पूल में रखे जाते है। दूसरे भाग में विदेशी समाचार को रखा जाता है। खेल समाचार तीसरे पूल में रखे जाते है। प्रत्येक बुलेटिन के लिए अलग-अलग पूल होता है। संसद समाचारों के लिए अलग पूल की व्यवस्था होती है।
बुलेटिन की जीवंतता, सफलता और प्रभावपूर्णता सम्पादक की कुशलता की परिचायक होती है। समाचारों में विराम की भी व्यवस्था है। इस अवसर पर समाचार वाचक कहता है-`ये समाचार आप आकाशवाणी से सुन रहे हैं, या ये समाचार आकाशवाणी से प्रसारित किये जा रहे है।
प्रकाशन, संपादन, लेखन अथवा प्रसारण के कार्य को प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक माध्यमों से आगे बढ़ाने की कला को मीडिया कहते है।
इलेक्ट्रानिक मीडिया के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों का मत
इलेक्ट्रानिक साधनों के माध्यम से जो जनसंचार होता है वह इलेक्ट्रानिक मीडिया है। (शिक्षाविद् : डॉ. प्रेमचंद पातंजलि)
श्रव्य और दृश्य विधा के माध्यम से तुरत-फुरत सूचना देने वाला माध्यम इलेक्ट्रानिक मीडिया हे। (रेडियो प्रोड्यूसर डॉ0 हरिसिंह पाल)
विशेष रूप से इलेक्ट्रानिक मीडिया से तात्पर्य ऐसी विद्या से है जिसके माध्यम से नई तकनीक के द्वारा व्यक्ति देश-विदेश की खबरों के अलावा अन्य जानकारी भी प्राप्त करता हो। (वरिष्ठ पत्रकार मोहनदास नैमिशराय)
इलेक्ट्रानिक मीडिया जनसंचार माध्यमों में प्रमुख माध्यम है। हजारों मील दूर की गतिविधियों की जीवंत जानकारी इससे पलभर में मिल जाती है।
अशांत मन ही पत्रकारिता की जननी है।
रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, इंटरनेट व मल्टीमीडिया इलेक्ट्रानिक मीडिया के अवयव है।
`नई पत्रकारिता में केवल समाचार प्रसारित करना एकमात्र उद्देश्य नहीं है, बल्कि मनोरंजन, विचार-विश्लेषण, समीक्षा, साक्षात्कार, घटना-विश्लेषण, विज्ञापन और किसी न किसी सीमा तक समाज को प्रभावित करना भी इसके उद्देश्यों में निहित है।
मीडिया समाज का आईना है और जागृति लाने का जरिया भी।
इलेक्ट्रानिक मीडिया का प्रसारण-सिद्धांत
ध्वनि -ध्वनि ही दृश्य चित्र के निर्माण में सहायक होती है। घोड़ों की टाप, युद्ध क्षेत्र का वर्णन, पशु-पक्षियों की चहचहाहट बारिश की बूदें, दरवाजे के खुलने की आवाज, जोर से चीजें पटकने, लाठी की ठक-ठक, चरम चाप की आवाज, बस व रेलगाड़ी के आने की उद्घोषणाएं, रेलवे प्लेटफार्म के दृश्य आदि का आनन्द रेडियों पर ध्वनि द्वारा ही लिया जा सकता है।
चित्रात्मकता-ध्वनियां और चित्रों का एक साथ संप्रेषण ही टेलीविजन की वास्तविक प्रक्रिया है। इसके प्रसारण में चित्रों के साथ-साथ ध्वनि के कलात्मक उपयोग पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
संगीत -संगीत ही मनोंरंजन की एक ऐसी विधा है जिससे मनुष्य ही नहीं बल्कि सर्प, हिरनजैसे पशु भी मुग्घ हो जाते है। संगीत से ही नाटकीयता उभरती है। रोचकता बढ़ती है।
कैमरा-प्रोड्यूसर को शूटिंग के समय, शूटिंग सीक्वेंस का क्रम निर्धारित करना पड़ता है। दूरदर्शन एवं फिल्म लेखन में तीन (S) का प्रयोग प्रचुर मात्राा में होता है यानी शॉट, सीन, सीक्वेंस। वही लेखक दूरदर्शन व सिनेमा में सफल हो सकता है। जिसे अभिनय, गायन, फिल्मांकन एवं संपादन का भरपूर ज्ञान हो।
भाषा :-रेडियो की भाषा आम आदमी से जुड़ी हुई भाषा है जिसे झोपड़ी से लेकर राजमहल तक सुना जाता है । जबकि टेलीविजन की भाषा एक खास वर्ग के लिए है। रेडियो पर आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया जाता है। इस भाषा में क्षेत्रीय शब्दों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। जो अपनी परम्परा, संस्कृति धर्म से जुड़े होते है। टेलविजन की भाषा में ग्लोबलाइजेशन है। विदेशी संस्कृति से जुड़े शब्दों का अधिक प्रयोग किया जाता है। आजादी के 55 साल बाद भी छोटे कस्बों में टेलीविजन की आवाज नहीं पहुंच पाई है। रेडियो वहां पहुंच गया है। वाक्य हमेश छोटे-छोटे होने चाहिए। साहित्यिक शब्द श्रोता की रूचि को नष्ट कर देते है।
संक्षिप्तता- इलेक्ट्रानिक मीडिया समयबद्ध प्रसारण है इसलिए थोड़े में बहुत कुछ कह देना इलेक्ट्रानिक मीडिया की विशेषता है।
सृजानात्मक और मीडिया
कविता, कहानी, नाटक, रिपोटाZज, साक्षात्कार, विज्ञापन, अनुवाद, कमेंट्री, फीचर, यात्रावर्णन, पुस्तक समीक्षा आदि साहित्य के सृजनात्मक पहलू है। जब इनका संबंध रेडियो व टेलीविजन से जुड़ जाता है तो ये इलेक्ट्रानिक मीडिया की श्रेणी मे आ जाते है।
सृजनशक्ति परम्परागत जनसंचार माध्यमों से आदिकाल से ही अभिव्यक्त होती रही है पर आधुनिक जनसंचार माध्यमों ने मनुष्य की सृजनशक्ति में चार चांद अवश्य लगाया है।
कठपुतली, नौटंकी, स्वांग, ढोलक आदि माध्यमोें से सृजन अभिव्यक्त होता रहा और ये माध्यम अपनी पैठ बनाते रहे। फिर मुद्रण कला का आगमन हुआ। मनुष्य की सृजनशक्ति प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया के रूप में देखी जाने लगी। दोनों का अपना-अपना घर है। शब्द-संरचना अलग-अलग है। भाषा अलग-अलग है। प्रस्तुतीकरण के तौर-तरीके एकदम भिन्न है।
कहानी कहानी होती है। इसे सुनने की ललक मनुष्य को शुरू से ही रही है। घटना-मूलकता ही पारम्परिक कहानी का प्रधान गुण माना गया है।
आगे क्या हुआ
कथानक, चरित्र, देशकाल, संवाद, भाषा-शैली, उद्देश्य कहानी के प्रमुख तत्व माने गये है।
मीडिया की गोद में आने का मतलब कहानी सर्वव्यापी होनी चाहिए। यानी बच्चे से लेकर वृद्ध उसका आनन्द ले सकें। जब कहानी टेलीविजन के लिए लिखी जाती है तो उसमें दृश्यात्मकता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
कथा के दृश्यों को फिल्मांकित करने के लिए विभिन्न लोकेशन, कोणों की योजना में एक साहित्य की विशेष प्रकार की तकनीक का प्रयोग किया जाता है जिसे वर्तमान में हम `पटकथा´ के नाम से जानते है। इस तकनीक में कथा संक्षेप रूप में लिखी जाती है। अनुवाद का अन्त ता है, ती है, ते हैं पर होता है।
कथा के प्रमुख बिन्दुओं का जिक्र करते हुए अगले चरण का संकेत किया जाता है। कथानक का क्रमश: विकास चित्रित किया जाता है। इसके बाद किाा दृश्यों में विभाजित कर दी जाती है। दृश्य-प्रति-दृश्य रूप में लिखि गई साहित्य की तकनीक ही पटकथा कहलाती है। पटकथा के अंतिम प्रारूप में कथा के साथ-साथ कैमरा, ध्वनि, अभिनय आदि का भी पूर्ण निर्देशन होता है।
पटकथा लेकक के भाषा के अलावा मीडिया संबंधी तकनीक का भरपूर ज्ञान होना आवश्यक है। प्रत्येक प्रकार के दृश्य फिल्माने के लिए पहले `मास्टर शौट´ लेना होता है। इसके बाद विषय से संबंधित शॉट लिया जाता हे। मास्टर शॉट के बाद मिड शॉट और फिर टू शॉट बाद में क्लोजअप शॉट लेना होता है।
रिपोटाZज रिपोर्ट मात्र नहीं है बल्कि लेखक का हृदय, अनुभूति, दू-दृष्टि संवेदनशील व्यक्तित्व का होना परम आवश्यक है। उक्त बातों से जो व्यक्ति ओतप्रोत नहीं होता उसे मात्र संवाददाता ही कहा जा सकता है। घटना का मार्मिक वर्णन रिपोर्ताज हैै।
नाटकीयता, रोचकता, उत्सुकता आदि गुण रखने वाला व्यक्ति ही एक अच्छा रिपोर्ताज हो सकता है।
शहर, पहाड़, झील, सम्मेलन आदि विषयों पर अच्छे रिपोर्ताज लिखे जाते है।
विषय विशेषज्ञ, साहित्कार, कलाकार, राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक आदि का अक्सर साक्षात्कार प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में प्रचुर मात्रा में लिखा जाता है।
दो व्यक्तियों की मानसिकता इस विधा के द्वारा पढ़ी, सुनी व देखी जा सकती है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से बात कहलवाकर सच्चाई की तर तक पहुंचता है।
पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी, राष्ट्रीय नेता की शवयात्रा, खेलों का आंखों-देखा हाल जब हम रेडियो व टेलीविजन पर सुनते हैं तो उसे कमेंट्री कहते है।
कमेंट्रीकर्ता को घटना की प्रत्येक चीज का वर्णन करना पड़ता है। खेल कमेंट्री उत्तेजक व रोमांचक होतीह है जबकि शवयात्रा की भावविह्वलता पूर्ण।
कमेंत्री चाहे रेडियों के लिए हो या टेलीविजन के लिए पर कमेंत्रीकर्ता का स्वर घटना के अनुकूल ही होना चाहिए।
सामग्री को पहले अच्छी तरह से पढ़ लेना चाहिए।
उच्चारण इस विधा में पहला गुण है। तकनीक ज्ञान भी होना चाहिए।
समाचार लेखन
रेडियो-समाचार बुलेटिन एवं समाचार दर्शन रेडियो समाचार के दो रूप है। बुलेटिन में देशी व विदेशी समाचार रखा जाता है। देशी व विदेशी समाचार का मतलब होता है कि जब समाचार पूरे देश से संबंध रखता है तो उसे राष्ट्रीय स्तर का समाचार कहते है, पर जहां समाचार का स्वर राष्ट्रीय स्तर का न होकर राज्य स्तर का हो तो प्रसारित होता है। रेडियो पर प्रसारित समाचार को हम बुलेटिन कहते है। जबकि समाचार दर्शन से अभिप्राय उस समाचार से है जिसमें खेल प्रतियोगित, दुघZटना स्थल, बाढ़ का आँखों देखा हाल, साक्षात्कार, व्याख्यान, रोचक घटनाओं का वर्णन आता है।
बोलने से पहले समाचार कागज पर छोटे व सरल वाक्यों में लिखा जाता है। इस लिखे हुए रूप को रेडियो-िस्क्रप्ट कहते है। श्रोता को हमेशा यही लगे कि समाचार वाचक कंठस्थ बोल रहा है।
रेडियो समाचार की भाषा सरल होनी चाहिए। साहित्यिक भाषा का पुट कदापि न होना चाहिए। यह मानकर लिखना चाहिए कि मुझे समाचार अनपढ़ व्यक्ति को सुनाना है। समाचार में दैनिक भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
वाक्य में उतने शब्द होने चाहिए जितने एक सांस में बोले जा सकें। क्या, क्यों, कब, कहाँ, किसने तथा कैसे आदि छह शब्द रेडियो समाचार के मुख्य अवयव है अत: इन छह अवयवों को ध्यान में रख कर समाचार तैयार करना चाहिए।
रेडियो समाचार लेखन में तारीख के स्थान पर दिन का प्रयोग होता है। महीने व साल का नाम देने के स्थान पर `आज´, रविवार, सोमवार या यूँ कहिए कि `इस सप्ताह´, `इस महिने´, अगले महीने, पिछले वर्ष, अगले वर्ष आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। उपयुZक्त क्रमश: पर्वोक्त, अप्रसन्नता, साधन अपर्याप्त आदि शब्दों का प्रयोग कभी नहीं करना चाहिए।
स्क्रप्ट लिखते समय पंक्ति स्पष्ट, शब्द अलग-अलग, कागज के दोनों ओर समान हाशिया के अलावा पृष्ठ समाप्त होने से पहले वाक्य समाप्त कर देना चाहिए।
छोटी संख्या को हमेश अंकों में तथा बड़ी संख्या को शब्दों में लिखना चाहिए। इसके भी दो तरीके है-पहला तो यह है कि बारह हजार चार सौ पच्चीस, दूसरा तरीका है 12 हजार 4 सौ पच्चीस (12425)
मुख्य समाचारों को सदैव बोल्ड किया जाता है जिसे समाचार वाचक उस पर जोर देकर पढ़ सके।
रेडियो पर अक्सर, 5,10,15 मिनट का समाचार बुलेटिन होता है। 2 मिनट का समाचार संक्षिप्त में दिया जाता है जब कि दस व पन्द्रह मिनट का समाचार तीन चरणों में बांटा जाता है। पहले चरण में मुख्य समाचार तथा दूसरे चरण में विस्तरपूर्वक समाचार तथा अंतिम चरण में पुन: मुख्य समाचार बोले जाते है।
रेडियो पत्रकारिता समय सीमा के अन्तर्गत चलती है इसलिए इस पत्रकारिता की खूबी है कि 20 या 30 शब्दों में समाचार तैयार करें।
10 मिनट के बुलेटिन में चार से छह तथा 15 मिनट के बुलेटिन में छह से आठ तक हेड लाइन्स होती है।
15 हजार शब्दों का एक बुलेटिन होता है।
टेलिविजन
टेलिविजन के लिए लिखने वाला व्यक्ति दृश्य व बिम्बों पर सोचता है। टेलीविजन समाचार के दो पक्ष होते हैं। पहले पक्ष में समाचार लेखन, समाचार संयोजन के अलावा दृश्य संयोजन एवं सम्पादन-कार्य आता है। वाचन कार्य दूसरे पक्ष में रखा गया है।
समाचार तैयार करते समय समाचार से संबंधित दृश्यात्मकता पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
ग्राफ्स, रेखाचित्र एवं मानचित्रों का भी संयोजन एक तरीकेबद्ध किया जाता है। समय-सीमा का भी पूर्ण ध्यान रखना पड़ता है।
टेलिविजन समाचार सम्पादक का काम बड़ा चुनौतीपूर्ण होता है। समाचार के साथ दृश्य संलग्न करना। समाचार व दृश्य सामग्री की समय-सीमा भी निर्धारित करनी होती है। टेलीविजन पर समाचार संवाददाता ही समाचार वाचक भी हो सकता है और नहीं भी।
चित्रों का सम्पादन -क्रम में समाचार वाचन करना होता है।
टेलीविजन समाचार को रेडियो की भांति तीन चरणों में विभाजित किया जाता है। पहले और तीसरे चरण को मुख्य समाचार कहते हैं। दूसरा चरण विस्तारपूर्वक समाचारों का होता है। प्रत्येक बुलेटिन मे छ: या आठ मुख्य समाचार होते है। मुख्य समाचार संक्षिप्त होते है। सम्पादक समाचारों की चार प्रतियां तैयार करता है। फ्लोर मैनेजरर, वाचक एवं प्रोड्यूसर को एक-एक प्रति दी जाती है। चौधी प्रति वह स्वयं अपने पास रखता है।
नवीनता, स्पष्टता, संक्षिप्ता एवं भाषा का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए।
इसलिए टेलिविजन समाचारों में घटनाक्रम, चित्रात्मकता, संक्षिप्तता, संभाषणशीलता, समय-सीमा के अलावा रोचकता विशेष गुण माने गये है।
समाचार वाचन
रेडियो वाचन
रेडियो प्रस्तुतीकरण के लिए स्वाभाविकता, आत्मीयता एवं विविधता का हमेशा ध्यान रखना चाहिए।
प्रिंट मीडिया हमें 24 घंटे बाद समाचार देता है जबकि रेडियो से हमें तुरन्त समाचार उपलब्ध हो जाता है। रेडियो से हम प्रति घंटे देश-विदेश की नवीनतम घटनाओं से अवगत होते हैं पर ऐसा संचार के अन्य माध्यमों से संभव नहीं है।
रेडियो समाचार के तीन चरण है-पहले चरण में समाचार विभिन्न स्रोतों से संकलित किया जाता है। दूसरे चरण में समाचारों का चयन होता है तथा तीसरे चरण में समाचार लेखन आता है।
समाचार जनहित एवं राष्ट्रहित होना चाहिए। समाचार सम्पादक मान्यता प्राप्त माध्यमों से ही समाचार स्वीकार करता है।
समाचार छोटे वाक्य एवं सरल भाषा में लिखा जाता है। समाचार संक्षिप्त एवं पूर्ण लिखा जाता है। समाचार में आंकड़ों को कम ही स्थान दिया जाता है। समाचार लिखने के बाद समाचार सम्पादक एक बार पुन: समाचार का अवलोकन करता है। इसके बाद समाचार को `पूल´ में रखा जाता है। पूल का मतलब होता है जहां से समाचार वाचक को समाचार पढ़ने को दिया जाता है। पूल को तीन भागों में रखा गया है-पहले भाग में देशी समाचार रखे जाते है। राजनीतिक समाचार भी इस पूल में रखे जाते है। दूसरे भाग में विदेशी समाचार को रखा जाता है। खेल समाचार तीसरे पूल में रखे जाते है। प्रत्येक बुलेटिन के लिए अलग-अलग पूल होता है। संसद समाचारों के लिए अलग पूल की व्यवस्था होती है।
बुलेटिन की जीवंतता, सफलता और प्रभावपूर्णता सम्पादक की कुशलता की परिचायक होती है। समाचारों में विराम की भी व्यवस्था है। इस अवसर पर समाचार वाचक कहता है-`ये समाचार आप आकाशवाणी से सुन रहे हैं, या ये समाचार आकाशवाणी से प्रसारित किये जा रहे है।
इस टेलीविजन पत्रकार से सीखिए भाषा
यूँ तो कल से ही सभी चैनलों पर 26/11 के एक बरस पूरे होने पर खास शो चल रहे थे. लेकिन आजतक के शम्स ताहिर खान की स्टोरी अपने आप में सबसे जुदा थी. ऐसे मौके पर अपनी बातों को किस तरह से कोई एंकर रखे उसका एक शानदार नमूना था.
वैसे शम्स का अपना एक अलग अंदाज़ हमेशा से रहा है जो उन्हें दूसरों से अलग करता है. खोजी पत्रकारिता और अपराध से जुड़े मानवीय पहलू के विशेषज्ञ शम्स ताहिर खान अपराध की खबरों को आजतक के क्राइम शो 'जुर्म' और 'वारदात' के जरिए बड़े ही रोचक अंदाज में पेश करते रहे हैं.
'जुर्म' और 'वारदात' जैसे क्राईम शो करने के बाद भी उनकी छवि अपराध पत्रकारिता करने वाले दूसरे पत्रकारों से अलग हैं और दर्शकों में उनकी स्वीकार्यता व्यापक तौर पर है. इसकी सबसे बड़ी वजह उनकी प्रस्तुतीकरण की शैली और स्टोरी में मानवीयता के पुट का होना है.
यही सबकुछ २६/११ पर उनके द्वारा एंकर किये गए शो "मेरे मातम का कोई नाम नहीं" में भी देखने को मिला. कल के विशेष में ९.३० से १०.०० बजे के बीच प्रसारित हुआ. अपने शायराना अंदाज़ में वे सारी बातों को जैसे रख रहे थे वह दर्शकों को उनके शो पर ठहरें रहने पर मजबूर कर देता है.
२६/११ पर आधारित दूसरे चैनलों का शो जहाँ बम के धमाके के विजुअल और उसके शोर में दबती नज़र आ रही थी वहीँ शम्स का शांत और शायरना अंदाज़ बेहद प्रभावशाली लग रहा था. कल डिस्कवरी पर भी २६/११ पर एक डाक्यूमेंट्री प्रसारित हुई. डाक्यूमेंट्री अच्छी थी. लेकिन दिल को छूती नहीं. शम्स का शो दिल को छूने वाला रहा.
शम्स ताहिर खान के इस शो के बारे में चर्चित मीडिया विशेषज्ञ विनीत कुमार कहते है - मेरे मातम का कोई नाम नहीं में शम्स ताहिर को जिन शब्दों का प्रयोग करते देखा तो मेरे दिमाग में अचानक से एक लाइन आयी- टेलीविजन में अब भी ज़िंदा है शायर.
26/11 पर दुनिया भर की स्टोरी और स्पेशल पैकेज से ये कार्यक्रम अलग रहा। ये कहीं भी हायपरबॉलिक नहीं होता। किसी भी तरह का मैलोड्रामा पैदा नहीं करता. बल्कि एक मातमी सच को संवेदना के स्तर पर ताजा करता है और बहुत ही तल्खी से बताता जाता है कि क्यों इसे हमेशा के लिए ताजा बने रहना जरुरी है.
स्टोरी की लाइनें कुछ इस तरह से है- मेरे पूछने पर उसने कहा कि हां मैं मुंबई हूं..उदास मुंबई.....काली रात के बाद मुंबई को जो मिला वो था सुबह का सूरज। कोई किसी के रिश्ते को उसकी अंगूठी से पहचान रहा है,कोई किसी को उसके ऐनक से। मरनेवाले तो बेबस हैं लेकिन जीनेवाले कमाल करते हैं.
न्यूज चैनलों पर इस तरह की लाइनें मय्यसर नहीं होती. इस तरह की स्क्रिप्ट टेलीविजन की भाषा को समृद्ध करती है,खोयी हुई संभावना को फिर से वापस लाती है. टेलीविजन को एक संवेदनशील माध्यम बनाती है। विजुअल के स्तर पर सरोकार झलकता है,न्यूज चैनलों से अलग की मैच्योरिटी दिखती है.
निदा फाजली औऱ शहरयार की बातों और शायरी बीच ये शब्द और एक्सप्रेशन ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि लगता ही नहीं कि एक टीवी पत्रकार की सोच और बयान करने का अंदाज इन शायरों से अलग है. हमें और टेलीविजन के बाकी लोगों को ऐसी भाषा सीखने और बरतने की जरुरत है.
सच कहूं कल शम्स जितने अपने चैनल आजतक के लिए अपने नहीं लगे होंगे उससे कहीं ज्यादा हमारे अपने लगे. ऑडिएंस और टीवी पत्रकार के बीच के बेगानेपन को कम करने के लिए इस तरह के कार्यक्रमों का लगातार प्रसारित होते रहना अनिवार्य है
वैसे शम्स का अपना एक अलग अंदाज़ हमेशा से रहा है जो उन्हें दूसरों से अलग करता है. खोजी पत्रकारिता और अपराध से जुड़े मानवीय पहलू के विशेषज्ञ शम्स ताहिर खान अपराध की खबरों को आजतक के क्राइम शो 'जुर्म' और 'वारदात' के जरिए बड़े ही रोचक अंदाज में पेश करते रहे हैं.
'जुर्म' और 'वारदात' जैसे क्राईम शो करने के बाद भी उनकी छवि अपराध पत्रकारिता करने वाले दूसरे पत्रकारों से अलग हैं और दर्शकों में उनकी स्वीकार्यता व्यापक तौर पर है. इसकी सबसे बड़ी वजह उनकी प्रस्तुतीकरण की शैली और स्टोरी में मानवीयता के पुट का होना है.
यही सबकुछ २६/११ पर उनके द्वारा एंकर किये गए शो "मेरे मातम का कोई नाम नहीं" में भी देखने को मिला. कल के विशेष में ९.३० से १०.०० बजे के बीच प्रसारित हुआ. अपने शायराना अंदाज़ में वे सारी बातों को जैसे रख रहे थे वह दर्शकों को उनके शो पर ठहरें रहने पर मजबूर कर देता है.
२६/११ पर आधारित दूसरे चैनलों का शो जहाँ बम के धमाके के विजुअल और उसके शोर में दबती नज़र आ रही थी वहीँ शम्स का शांत और शायरना अंदाज़ बेहद प्रभावशाली लग रहा था. कल डिस्कवरी पर भी २६/११ पर एक डाक्यूमेंट्री प्रसारित हुई. डाक्यूमेंट्री अच्छी थी. लेकिन दिल को छूती नहीं. शम्स का शो दिल को छूने वाला रहा.
शम्स ताहिर खान के इस शो के बारे में चर्चित मीडिया विशेषज्ञ विनीत कुमार कहते है - मेरे मातम का कोई नाम नहीं में शम्स ताहिर को जिन शब्दों का प्रयोग करते देखा तो मेरे दिमाग में अचानक से एक लाइन आयी- टेलीविजन में अब भी ज़िंदा है शायर.
26/11 पर दुनिया भर की स्टोरी और स्पेशल पैकेज से ये कार्यक्रम अलग रहा। ये कहीं भी हायपरबॉलिक नहीं होता। किसी भी तरह का मैलोड्रामा पैदा नहीं करता. बल्कि एक मातमी सच को संवेदना के स्तर पर ताजा करता है और बहुत ही तल्खी से बताता जाता है कि क्यों इसे हमेशा के लिए ताजा बने रहना जरुरी है.
स्टोरी की लाइनें कुछ इस तरह से है- मेरे पूछने पर उसने कहा कि हां मैं मुंबई हूं..उदास मुंबई.....काली रात के बाद मुंबई को जो मिला वो था सुबह का सूरज। कोई किसी के रिश्ते को उसकी अंगूठी से पहचान रहा है,कोई किसी को उसके ऐनक से। मरनेवाले तो बेबस हैं लेकिन जीनेवाले कमाल करते हैं.
न्यूज चैनलों पर इस तरह की लाइनें मय्यसर नहीं होती. इस तरह की स्क्रिप्ट टेलीविजन की भाषा को समृद्ध करती है,खोयी हुई संभावना को फिर से वापस लाती है. टेलीविजन को एक संवेदनशील माध्यम बनाती है। विजुअल के स्तर पर सरोकार झलकता है,न्यूज चैनलों से अलग की मैच्योरिटी दिखती है.
निदा फाजली औऱ शहरयार की बातों और शायरी बीच ये शब्द और एक्सप्रेशन ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि लगता ही नहीं कि एक टीवी पत्रकार की सोच और बयान करने का अंदाज इन शायरों से अलग है. हमें और टेलीविजन के बाकी लोगों को ऐसी भाषा सीखने और बरतने की जरुरत है.
सच कहूं कल शम्स जितने अपने चैनल आजतक के लिए अपने नहीं लगे होंगे उससे कहीं ज्यादा हमारे अपने लगे. ऑडिएंस और टीवी पत्रकार के बीच के बेगानेपन को कम करने के लिए इस तरह के कार्यक्रमों का लगातार प्रसारित होते रहना अनिवार्य है
Friday, November 27, 2009
गाँधी जी, पत्रकारिता और स्वतंत्रता आंदोलन
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विद्या विनोद गुप्त
स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है - इसे हम लेकर रहेंगे, का नारा देने वाले स्वंतत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक का निधन जब 31 जुलाई 1920 को हुआ तो मोहनदास करमचंद गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ली और असहयोग आंदोलन का शुभारंभ हुआ । हंदर आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप कार्यवाही पर देश भर में जो आजादी की लहर चली उससे उनके आंदोलन को बल मिला। गांधी जी अपने कार्यक्रम को राष्ट्रव्यापी बनाने में समाचार पत्रों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे। कलकत्ता से भारत मित्र, कलकत्ता समाचार और विश्व बंधु का प्रकाशन होता था। कानपुर से प्रताप का और इलाहाबाद से भविष्य का।
गांधी जी के अहिंसा त्याग और सत्याग्रह के सिद्धांत की सफलता ने भारत का मन मोह लिया था - सारा जनमत गांधी जी के साथ था और अनेक नए शक्तिशाली समाचार पत्रों का प्रकाशन भी आरंभ हुआ। जबलपुर, खंडवा से कर्मवीर का कलकत्ता से स्वतंत्र का, काशी से आज का और कानपुर से वर्तमान का। इसी बीच पंजाब में अमृतसर, लाहौर और गुजरावाला में कलकत्ता में गुजरात के अहमदाबाद, वीरम गांव, नडियाड में जो हिंसक घटनाएं हुई जिनसे गांधी जी को अत्यधिक दुख हुआ। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ समाचार छापने पर अधिकांश समाचार पत्र जप्त कर दिए गये। प्रेस बंद कर दिए गए। उन पर जुर्माना कर दिया गया । जुर्माना न पटाने पर जेल की सजा दी गई। अनेक पत्र पत्रिकाएं भूमिगत हो गई । उस समय जितना महत्व गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादन में कानपुर से निकलने वाले पत्र प्रताप का था उतना ही महत्व मध्य प्रांत में कर्मवीर का था। कर्मवीर के संपादक थे पं. माखनलाल चतुर्वेदी एक भारतीय आत्मा। उन्होंने मातृभूमि और मनुष्यता पर बलि होने का आव्हान किया और राजद्रोह के अपराध में उन्हें सजा हो गई । कर्मवीर के नाम के प्रेरणा उन्हें उस नाम से मिली जिसके द्वारा उस समय की जनता गांधी जी को संबोधित करती थी। कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा । 63 बार उनके घर और समाचार के दफ्तर की तलाशी ली गई। वर्धा के सुमति और नागपुर के संकल्प के संपादकों को परेशान किया गया धमकी दी गई। फिर दिल्ली से अर्जुन निकला, कलकत्ता से मतवाला और नागपुर से प्रणवीर और श्री शारदा।
महात्मागांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाने का समर्थन करने के लिए मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी प्रारंभ हुआ जिससे गांधी जी के आंदोलन को बल मिला साथ ही हिंदी की श्री वृद्धि हुई। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित सरस्वती, दुलारे लाल भार्गव द्वारा लखनऊ से प्रकाशित माधुरी रामरख सिंह सहगल द्वारा इलाहाबाद से प्रकाशित चांद तथा उपन्सास सम्राट मुंशी प्रेमचंद द्वारा वाराणसी से प्रकाशित हंस ने गांधी के सत्य और अहिंसा पर हिंदी का अभिषेक किया। भार्गव ने एक दूसरी पत्रिका सुधा निकाली और रामवृक्ष बेनीपुरी ने वीणा । कुछ पत्रिकाएं सरस्वती की परंपरा से हटकर राजनीतिक विषयों पर भी टिप्पणियां तथा साहित्यिक कृतियां जैसे कविताएं, कहानियां, लेख, निबंध, नाटक आदि भी प्रकाशित करती थीं।
भारत मित्र के संपादक लक्ष्मण नारायण गर्दें ने गांधी जी द्वारा लिखित पुस्तक हिंदू स्वराज्य का पहला हिंदी रूपांन्तर अपने पत्र में प्रकाशित किया । उन्होंने गांधी जी की अनुमति लेकर ऐसा प्रबंध किया कि गांधी जी के यंग इंडिया में प्रकाशित होने वाले लेख की अग्रिम प्रति उन्हें उपलब्ध हो जाती थी इस व्यवस्था के कारण गांधी जी का लेख अंग्रेजी समाचार पत्रों से एक दिन पूर्व हिंदी समाचार पत्रों में छप जाता था । 7 मई 1922 के आज के अंक में जब छपा कि हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सब प्रकार से स्वतंत्रता उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं । हमारा लक्ष्य यह है कि हम अपने देश का गौरव बढ़ावें । अपने देशवासियों में स्वाभिमान का संचार करें, उनको ऐसा बनावे कि भारतीय होने का उन्हें अभिमान हो इसमें तनिक भी संकोच नहीं। गांधी जी के इस उद्बोधन से देश के चारों ओर से गांधी जी जय-जयकार गूंजने लगी । नरम-गरम दल के सभी लोग गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस के ही मंच पर आ गए। मोतीलाल नेहरू,पं. जवाहरलाल नेहरू, राजगोपालचार्य, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मौलाना आजाद, डॉ. अंबेडकर, विपिन चंद्र पाल, लाला लाजपतराय, विजय लक्ष्मी पंडित, डॉ. राधाकृष्णन, अब्दुल गफ्फार खां, मोरारजी देसाई, पं. रविशंकर शुक्ला, पं. द्वारिका प्रसाद मिश्रा, रवींद्र नाथ टैगोर, पुरुषोत्तम दास दंडन, सुभाष चंद्र बोस, ठा. छेदीलाल बैरिस्टर, ठा. प्यारेलाल सिंह, मदन मोहन मालवीय, ईश्वर चंद्र विद्या सागर, सरोजनी नायडू, इंदिरा गांधी, जय प्रकाश नारायण, भूलाभाई देसाई, सरदार पटेल, गोविंद वल्लभ पंत, कृपलानी, जगजीवनराम, अरविंद घोष, राजकुमारी अमृत कौर, गोपाल कृष्ण गोखले, गुलजारी लाल नंदा, देशबधु चितरंजनदास, भगिनी निवेदिता दास, जमुना लाल बजाज, बिड़ला तेज बहादुर, वीरसावरकर, सुहरा वर्दी, शेख अब्दुला, अरूणा आसफ अली, आदि लाखों की संख्या में स्वतंत्रता सेनानियों ने स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी का मनोयोग से साथ दिया तथा इस आंदोलन को आगे बढाने में समाचार पत्रों की भूमिका महत्वपूर्ण रही ।
क्रांतिकारियों के दमन तथा खुदीराम बोस, सरदार भगत सिंह को फांसी की सजा, आजाद की हत्या के कारण समाचार पत्र क्रांतिकारियों के साहस और वीरता के गीत गा रहे थे । फांसी पर चढ़ने वाले युवकों के गुण गा रहे थे । स्वराज ने अपने संपादकीय लेख में शंखनाद किया कि देशवासी निद्रा से जागें और देखें कि कितनी बुरी तरह से विदेशी अंग्रेजी ने इस देश का शोषण किया है ।
गांधी जी द्वारा लिखित हिंद स्वराज, सर्वोदय आत्मकथा, सत्याग्रह समाचार और हरिजन नामक पत्र में गांधी जी ने जो दिशा निर्देश दिए थे बिलकुल नए ढंग के थे । जनता ने उन्हें अवतार के रुप में देखती थी । वे राजनैतिक और सामाजिक वातावरण पर छा गए थे जैसे देशवासियों पर जादू कर दिया हो। उस समय स्थान-स्थान और गली-गली में अधनंगे बच्चे भी गांधी जी की जय के नारे लगाते दौड़ते दिखाई देते थे । इसका परिणाम यह हुआ कि हर शहर और ग्राम में जहां समाचार पत्र नहीं पहुंच सकते थे नए बुलेटिन और पाम्पलेट बांटे जाने लगे ।
मध्यप्रांत में भी कर्मवीर ही नहीं श्री शारदा, प्रणवीर, साहस, देहाती दुनिया, छात्र सहोदर, महाकौशल आदि का प्रकाशन आरंभ हुआ और राष्ट्रीय आंदोलन को आगे बढ़ाया । कलकत्ता समाचार ने लिखा - सारे देश की निगाह महात्मा गांधी पर केंद्रित है तो नागपुर के श्री शारदा के लिखा - जेल जाना भारत को स्वाधीन कराने का मार्ग है और कलकत्ता से साप्ताहिक मतवाला ने लिखा गांधी विहीन स्वराज यदि स्वर्ग से भी सुंदर हो तो वह नरक के समान त्याज्य है । उस एक महात्मा पर शत शत स्वराज न्यौछार कर देने योग्य है । यदि अपने देशमें स्वराज की प्रतिष्ठा चाहते हैं तो तन मन धन से अपने नेता महात्मा गांधी के आदेशों का पालन करना आरंभ कीजिए । समाचार पत्रों में संपादकीय लेख लिखे जाने लगे- रोलेट एक्ट पर, पंजाब की दमन नीति पर, जलिया वाला बाग पर, खिलाफत आंदोलन पर, अली बंधुओं एवं अन्य की गिरफ्तारी पर, अहिंसात्मक सत्याग्रह पर, गांधी जी की जेल यात्रा पर, उनकी प्रार्थना सभाओं पर, विदेशी वस्त्रों की होली जलाने पर, चौरा चौरी कांड पर, नमक सत्याग्रह पर, युवराज प्रिंस आफ वेल्स के आगमन के बहिष्कार पर, इस तरह समाचार पत्र राष्ट्रीयता के प्रतीक बन गए ।
भूमिगत समाचार पत्रों के नाम भी खूब थे- चिंगारी, बवंडर, चंद्रिका, रणडंका, शंखनाद, ज्वालामुखी, तूफान, रण चंद्रिका, जन संग्राम बोल दे धावा आदि । उन दिनों पायनियर और लीडर आदि एक-एक आने में, आज आदि दो-दो पैसे में बिकते थे । हाकर चिल्लाता था- ब्रिटिश सरकार की छाती कूटने वाला अखबार इनडिपेंडेंस डे लो । अंतिम चरण में 1942 के भारत छोड़ो करो या मरो आंदोलन के समय प्रेस इमरजेंसी अधिनियम के अंतर्गत समाचार पत्रों को कुचलने का भरसक प्रयास किया गया । दिल्ली के हिंदुस्तान और कितने ही अन्य समाचार पत्र बंद हो गए । देश के प्रस्तावित विभाजन के साथ 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली और समाचार पत्रों का गांधी जी को भरपूर समर्थन मिला उस समय चार प्रमुख दैनिक समाचार पत्र थे, विश्व मित्र, आर्यावर्त, हिन्दुस्तान और राज । सभी ने उस दिन के अपने अग्रलेख में सारे देशवासियों की भावनाओं को चित्रित करते हुए लिखा-अब वह दिन दूर नहीं जब भारत सभी दिशाओं में उन्नति करता हुआ विश्व का महानतम लोकतंत्र बन जाएगा और विश्व में उसका महत्वपूर्ण स्थान होगा ।
30 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा मे एक उत्तेजक युवक की गोली से गांधी की हत्या हो गयी । अंतिम समय भी हे राम कहते हुए प्राण छोड़ा और अनंत में विलीन हो गये । कौन कहता है गांधी जी मर गए- लोग भले ही गांधी जी को भूल जावें पर जब तक समाचार पत्र रहेंगे गांधी जी अमर रहेंगे ।
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विद्या विनोद गुप्त
स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है - इसे हम लेकर रहेंगे, का नारा देने वाले स्वंतत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक का निधन जब 31 जुलाई 1920 को हुआ तो मोहनदास करमचंद गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ली और असहयोग आंदोलन का शुभारंभ हुआ । हंदर आयोग की सिफारिशों के फलस्वरूप कार्यवाही पर देश भर में जो आजादी की लहर चली उससे उनके आंदोलन को बल मिला। गांधी जी अपने कार्यक्रम को राष्ट्रव्यापी बनाने में समाचार पत्रों की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे। कलकत्ता से भारत मित्र, कलकत्ता समाचार और विश्व बंधु का प्रकाशन होता था। कानपुर से प्रताप का और इलाहाबाद से भविष्य का।
गांधी जी के अहिंसा त्याग और सत्याग्रह के सिद्धांत की सफलता ने भारत का मन मोह लिया था - सारा जनमत गांधी जी के साथ था और अनेक नए शक्तिशाली समाचार पत्रों का प्रकाशन भी आरंभ हुआ। जबलपुर, खंडवा से कर्मवीर का कलकत्ता से स्वतंत्र का, काशी से आज का और कानपुर से वर्तमान का। इसी बीच पंजाब में अमृतसर, लाहौर और गुजरावाला में कलकत्ता में गुजरात के अहमदाबाद, वीरम गांव, नडियाड में जो हिंसक घटनाएं हुई जिनसे गांधी जी को अत्यधिक दुख हुआ। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ समाचार छापने पर अधिकांश समाचार पत्र जप्त कर दिए गये। प्रेस बंद कर दिए गए। उन पर जुर्माना कर दिया गया । जुर्माना न पटाने पर जेल की सजा दी गई। अनेक पत्र पत्रिकाएं भूमिगत हो गई । उस समय जितना महत्व गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादन में कानपुर से निकलने वाले पत्र प्रताप का था उतना ही महत्व मध्य प्रांत में कर्मवीर का था। कर्मवीर के संपादक थे पं. माखनलाल चतुर्वेदी एक भारतीय आत्मा। उन्होंने मातृभूमि और मनुष्यता पर बलि होने का आव्हान किया और राजद्रोह के अपराध में उन्हें सजा हो गई । कर्मवीर के नाम के प्रेरणा उन्हें उस नाम से मिली जिसके द्वारा उस समय की जनता गांधी जी को संबोधित करती थी। कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा । 63 बार उनके घर और समाचार के दफ्तर की तलाशी ली गई। वर्धा के सुमति और नागपुर के संकल्प के संपादकों को परेशान किया गया धमकी दी गई। फिर दिल्ली से अर्जुन निकला, कलकत्ता से मतवाला और नागपुर से प्रणवीर और श्री शारदा।
महात्मागांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाने का समर्थन करने के लिए मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी प्रारंभ हुआ जिससे गांधी जी के आंदोलन को बल मिला साथ ही हिंदी की श्री वृद्धि हुई। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित सरस्वती, दुलारे लाल भार्गव द्वारा लखनऊ से प्रकाशित माधुरी रामरख सिंह सहगल द्वारा इलाहाबाद से प्रकाशित चांद तथा उपन्सास सम्राट मुंशी प्रेमचंद द्वारा वाराणसी से प्रकाशित हंस ने गांधी के सत्य और अहिंसा पर हिंदी का अभिषेक किया। भार्गव ने एक दूसरी पत्रिका सुधा निकाली और रामवृक्ष बेनीपुरी ने वीणा । कुछ पत्रिकाएं सरस्वती की परंपरा से हटकर राजनीतिक विषयों पर भी टिप्पणियां तथा साहित्यिक कृतियां जैसे कविताएं, कहानियां, लेख, निबंध, नाटक आदि भी प्रकाशित करती थीं।
भारत मित्र के संपादक लक्ष्मण नारायण गर्दें ने गांधी जी द्वारा लिखित पुस्तक हिंदू स्वराज्य का पहला हिंदी रूपांन्तर अपने पत्र में प्रकाशित किया । उन्होंने गांधी जी की अनुमति लेकर ऐसा प्रबंध किया कि गांधी जी के यंग इंडिया में प्रकाशित होने वाले लेख की अग्रिम प्रति उन्हें उपलब्ध हो जाती थी इस व्यवस्था के कारण गांधी जी का लेख अंग्रेजी समाचार पत्रों से एक दिन पूर्व हिंदी समाचार पत्रों में छप जाता था । 7 मई 1922 के आज के अंक में जब छपा कि हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सब प्रकार से स्वतंत्रता उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं । हमारा लक्ष्य यह है कि हम अपने देश का गौरव बढ़ावें । अपने देशवासियों में स्वाभिमान का संचार करें, उनको ऐसा बनावे कि भारतीय होने का उन्हें अभिमान हो इसमें तनिक भी संकोच नहीं। गांधी जी के इस उद्बोधन से देश के चारों ओर से गांधी जी जय-जयकार गूंजने लगी । नरम-गरम दल के सभी लोग गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस के ही मंच पर आ गए। मोतीलाल नेहरू,पं. जवाहरलाल नेहरू, राजगोपालचार्य, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मौलाना आजाद, डॉ. अंबेडकर, विपिन चंद्र पाल, लाला लाजपतराय, विजय लक्ष्मी पंडित, डॉ. राधाकृष्णन, अब्दुल गफ्फार खां, मोरारजी देसाई, पं. रविशंकर शुक्ला, पं. द्वारिका प्रसाद मिश्रा, रवींद्र नाथ टैगोर, पुरुषोत्तम दास दंडन, सुभाष चंद्र बोस, ठा. छेदीलाल बैरिस्टर, ठा. प्यारेलाल सिंह, मदन मोहन मालवीय, ईश्वर चंद्र विद्या सागर, सरोजनी नायडू, इंदिरा गांधी, जय प्रकाश नारायण, भूलाभाई देसाई, सरदार पटेल, गोविंद वल्लभ पंत, कृपलानी, जगजीवनराम, अरविंद घोष, राजकुमारी अमृत कौर, गोपाल कृष्ण गोखले, गुलजारी लाल नंदा, देशबधु चितरंजनदास, भगिनी निवेदिता दास, जमुना लाल बजाज, बिड़ला तेज बहादुर, वीरसावरकर, सुहरा वर्दी, शेख अब्दुला, अरूणा आसफ अली, आदि लाखों की संख्या में स्वतंत्रता सेनानियों ने स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी का मनोयोग से साथ दिया तथा इस आंदोलन को आगे बढाने में समाचार पत्रों की भूमिका महत्वपूर्ण रही ।
क्रांतिकारियों के दमन तथा खुदीराम बोस, सरदार भगत सिंह को फांसी की सजा, आजाद की हत्या के कारण समाचार पत्र क्रांतिकारियों के साहस और वीरता के गीत गा रहे थे । फांसी पर चढ़ने वाले युवकों के गुण गा रहे थे । स्वराज ने अपने संपादकीय लेख में शंखनाद किया कि देशवासी निद्रा से जागें और देखें कि कितनी बुरी तरह से विदेशी अंग्रेजी ने इस देश का शोषण किया है ।
गांधी जी द्वारा लिखित हिंद स्वराज, सर्वोदय आत्मकथा, सत्याग्रह समाचार और हरिजन नामक पत्र में गांधी जी ने जो दिशा निर्देश दिए थे बिलकुल नए ढंग के थे । जनता ने उन्हें अवतार के रुप में देखती थी । वे राजनैतिक और सामाजिक वातावरण पर छा गए थे जैसे देशवासियों पर जादू कर दिया हो। उस समय स्थान-स्थान और गली-गली में अधनंगे बच्चे भी गांधी जी की जय के नारे लगाते दौड़ते दिखाई देते थे । इसका परिणाम यह हुआ कि हर शहर और ग्राम में जहां समाचार पत्र नहीं पहुंच सकते थे नए बुलेटिन और पाम्पलेट बांटे जाने लगे ।
मध्यप्रांत में भी कर्मवीर ही नहीं श्री शारदा, प्रणवीर, साहस, देहाती दुनिया, छात्र सहोदर, महाकौशल आदि का प्रकाशन आरंभ हुआ और राष्ट्रीय आंदोलन को आगे बढ़ाया । कलकत्ता समाचार ने लिखा - सारे देश की निगाह महात्मा गांधी पर केंद्रित है तो नागपुर के श्री शारदा के लिखा - जेल जाना भारत को स्वाधीन कराने का मार्ग है और कलकत्ता से साप्ताहिक मतवाला ने लिखा गांधी विहीन स्वराज यदि स्वर्ग से भी सुंदर हो तो वह नरक के समान त्याज्य है । उस एक महात्मा पर शत शत स्वराज न्यौछार कर देने योग्य है । यदि अपने देशमें स्वराज की प्रतिष्ठा चाहते हैं तो तन मन धन से अपने नेता महात्मा गांधी के आदेशों का पालन करना आरंभ कीजिए । समाचार पत्रों में संपादकीय लेख लिखे जाने लगे- रोलेट एक्ट पर, पंजाब की दमन नीति पर, जलिया वाला बाग पर, खिलाफत आंदोलन पर, अली बंधुओं एवं अन्य की गिरफ्तारी पर, अहिंसात्मक सत्याग्रह पर, गांधी जी की जेल यात्रा पर, उनकी प्रार्थना सभाओं पर, विदेशी वस्त्रों की होली जलाने पर, चौरा चौरी कांड पर, नमक सत्याग्रह पर, युवराज प्रिंस आफ वेल्स के आगमन के बहिष्कार पर, इस तरह समाचार पत्र राष्ट्रीयता के प्रतीक बन गए ।
भूमिगत समाचार पत्रों के नाम भी खूब थे- चिंगारी, बवंडर, चंद्रिका, रणडंका, शंखनाद, ज्वालामुखी, तूफान, रण चंद्रिका, जन संग्राम बोल दे धावा आदि । उन दिनों पायनियर और लीडर आदि एक-एक आने में, आज आदि दो-दो पैसे में बिकते थे । हाकर चिल्लाता था- ब्रिटिश सरकार की छाती कूटने वाला अखबार इनडिपेंडेंस डे लो । अंतिम चरण में 1942 के भारत छोड़ो करो या मरो आंदोलन के समय प्रेस इमरजेंसी अधिनियम के अंतर्गत समाचार पत्रों को कुचलने का भरसक प्रयास किया गया । दिल्ली के हिंदुस्तान और कितने ही अन्य समाचार पत्र बंद हो गए । देश के प्रस्तावित विभाजन के साथ 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली और समाचार पत्रों का गांधी जी को भरपूर समर्थन मिला उस समय चार प्रमुख दैनिक समाचार पत्र थे, विश्व मित्र, आर्यावर्त, हिन्दुस्तान और राज । सभी ने उस दिन के अपने अग्रलेख में सारे देशवासियों की भावनाओं को चित्रित करते हुए लिखा-अब वह दिन दूर नहीं जब भारत सभी दिशाओं में उन्नति करता हुआ विश्व का महानतम लोकतंत्र बन जाएगा और विश्व में उसका महत्वपूर्ण स्थान होगा ।
30 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा मे एक उत्तेजक युवक की गोली से गांधी की हत्या हो गयी । अंतिम समय भी हे राम कहते हुए प्राण छोड़ा और अनंत में विलीन हो गये । कौन कहता है गांधी जी मर गए- लोग भले ही गांधी जी को भूल जावें पर जब तक समाचार पत्र रहेंगे गांधी जी अमर रहेंगे ।
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वेब-पत्रकारिता, ब्लॉग और पत्रकार
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जयप्रकाश मानस
ब्लॉग(Blog) इंटरनेट पर केवल निजी अभिव्यक्ति या स्वयं को अभिव्यक्त करने या भड़ास उतारने मात्र का स्वतंत्र साधन नहीं रहा वह धीरे-धीरे सायबर जर्नलिज्म या ऑनलाइन जर्नलिज्म या इंटरनेट जर्नलिज्म का शक्ल भी धारण करने लगा है । चाहे इसे एक ही व्यक्ति या पत्रकार द्वारा संचालित किया जाय या फिर समूह में । जिस तरह विभिन्न स्थानों का प्रतिनिधित्व करने वाले संवाददाताओं की टीम के सहयोग से किसी अखबार का प्रकाशन किया जाता है ठीक उसी तरह भी ब्लॉगों का संचालन संभव है । विश्व की विभिन्न आईटी आधारित कंपनियों द्वारा मुफ्त उपलब्ध ब्लाग सुविधा एवं समानधर्मा किन्तु न्यूनतम – वांछित तकनीक में दक्ष पत्रकारों के द्वारा भी किसी ऑनलाइन अखबार का संचालन अब संभव हो चुका है । यद्यपि ब्लॉग लेखन या ब्लॉगिंग की मूल प्रकृति निहायत व्यक्तिवादी है जहाँ कोई भी अपने विचार, भाव, मन का उमड़न-घुमड़न लिख कर उसे विश्वव्यापी बना सकता है, बकायदा उस पर वैश्विक प्रतिक्रिया भी प्राप्त कर सकता है तथापि इस तकनीक का फायदा उठाकर वहाँ अखबार के नेट संस्करण की तरह सामूहिक लेखन भी किया जा सकता है, वह भी प्रोफेशनल पत्रकारों की तरह । कहने का आशय है कि ब्लॉगिंग पत्रकारिता जैसे सामूहिक बोध का ज़रिया भी बन सकता है ।
ऑनलाइन पत्रकारिता के प्रकल्प के रूप में ब्लॉग तकनीक की सबसे बड़ी विशेषता है - सामूहिक अभिव्यक्ति का माध्यम अर्थात् समूह बोध यानी कि प्रजातांत्रिक पत्रकारिता जहाँ लिखने वाले और बाँचने वाले के मध्य किसी तरह की कोई दलाली नहीं। एक तरह से यह अभिव्यक्ति, सूचना, संचार और जानकारी का स्वतंत्र और मर्यादित माध्यम सिद्ध हो सकता है जहाँ नियमित लिखने वाले सूचनादाता या संवाददाता या पत्रकारों को न तो अखबार-प्रबंधन के निहित स्वार्थों और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ सकता है और न ही वहाँ अभिव्यक्त होने वाले पत्रकारों को मिठलबरे संपादक की धारदार कैंची के सामना करने से उत्पन्न कुंठा और मानसिक तनाव झेलने की विवशता। आत्मानुशासन और पूर्व लक्ष्यित उद्देश्यों और शर्तों के सामूहिक अनुपालन से यह प्रबंधक की निरकुंशता मुक्त पत्रकारिता भी बन सकता है । प्रकारांतर से यह बाजारवादी दबाबों का काट और मीडिया में संपादक नामक (पत्रकार सहित) संस्था की वापसी की शुरूआत भी सिद्ध हो सकती है । जैसे-जैसे-जैसे देश में इंटरनेट, बिजली, तकनीकी ज्ञान और पाठकों का रूझान स्वस्थ और निहायत तटस्थ पत्रकारिता की ओर उन्मुख होता चला जायेगा वैसे-वैसे ब्लॉग आधारित पत्रकारिता भी विश्वसनीयता के नये प्रतिमान गढ़ सकती है । संक्षेप में कहें तो यह अंतरजाल पर यानी वेब-पत्रकारिता का सहकारी उद्यम हो सकता है । परस्पर विश्वास से इसे समाचार या फीचर सर्विस की एंजेसी की तरह भी संचालित किया जा सकता है ।
जैसा कि हम जानते हैं ब्लॉग संचालन के लिए किसी डोमेन रजिस्टर कराने, वेब-स्पेस खरीदने की कोई आवश्यकता नहीं होती, सामूहिक ब्लॉग लेखन यानी ब्लॉग आधारित आनलाइन पत्रकारिता भी शून्य बजट से प्रारंभ की जा सकती है । बशर्ते की इस तरह की ऑनलाइन पत्रकारिता के लिए कटिबद्ध सभी पत्रकार, संवाददाता या लेखक यूनिकोड़ित फोंट केंद्रित टायपिंग कार्य जानते हों और ब्लॉगिंग की न्यूतम और वांछित तकनीक से भली भाँति परिचित हों । इसके अलावा उन सभी के पास पर्याप्त गति वाली इंटरनेट सुविधा भी हो तो सहकारी वेब-पत्र या पत्रिका संचालन में उन्हें कोई अड़चन नहीं हो सकती भले ही उस समूह के सदस्य किसी अंचल के हो या किसी दूर महाद्वीप से । यहाँ तक कि मुद्रित अखबार की तरह उसे आरएनआई (RNI) से पंजीयन और नियमित रूप से शासकीय नियमों के पालन में सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने की भी कोई आवश्यकता नहीं होगी ।
व्यावसायिक वेब पोर्टल बनाम ब्लॉग पत्रकारिता
कंटेट और तकनीकी रूप से यूँ तो बड़े घरानों की पत्रकारिता केंद्रित वेब पोर्टल ब्लॉग के सामने ठीक वैसे नज़र आते हैं जैसे चूहे के सामने हाथी । ऐसे वेब पोर्टलों में नियमित रूप से काम करने वाली एक प्रोफेशनल्स टीम होती है जो दैनिक या प्रतिघंटे वेब पोर्टलों को अपडेट करती रहती है । वहाँ ई-संस्करण संचालन की सुविधा भी होती है । ऐसे साइट कलात्मक ढंग से अधिक सौंदर्यबोधी हुआ करती हैं । उनका अपना स्पष्ट आर्थिक तंत्र भी होता है । फिर भी सामग्री की नियमित उपलब्धता की दृष्टि से यदि ऐसे सामूहिक ब्लाग को भी सहकारिता और समूह के सदस्यों के द्वारा सुनिश्चित अनुशासन की परिधि से संचालित किया जाय तो कोई दो मत नहीं कि वहाँ पाठकों का जमावड़ा न हो, लोग उस ब्लॉग पर न जायें या वह विश्वसनीय जाल स्थल न बन सके । अब ब्लॉगों के रूप में भी काफी परिवर्तन और उनका विकास हो चुका है । ऐसे ब्लॉगों पर टैक्स्ट के साथ ही फोटो, आडियो, वीडियो आदि भी सजाया जा सकता है । आम वेब पोर्टलों और समाचार पत्रों से हटकर यदि कंटेट की मौलिकता, रोचकता, उत्कृष्टता और विश्वसनीयता पर ध्यानस्थ हुआ जा सके तो संभव है कि कई मायने में ऐसे सहकारी ब्लाग ज्यादा लोकप्रिय भी हो सकते हैं बनिस्पत किसी सामान्य नेट अखबार के । ऐसे विश्वसनीय ब्लॉगों की बहुतायत का एक ऑनलाइन पत्रकारिता के माध्यम से उस मिशन की पुनर्वापसी भी संभव हो सकती है जो पत्रकारिता की मूल आत्मा है । वह दिन दूर नहीं जब भारत में भी बिलकुल पश्चिम दुनिया की तरह यानी कि अंग्रेजी पत्रकारिता की तरह अभिव्यक्ति के चरम उदात्त मूल्यों को स्थापित होते देखा जा सकेगा । तब आज की तरह पत्रकारिता का ध्येय व्यवसायिकता नहीं बल्कि सेवा कर्म ही होगा तथा जहाँ हर नागरिक एक पत्रकार की तरह अपनी आवाज़ सारी दुनिया में पहुँचा सकेगा । और यदि यह हुआ तो उसमें ऐसे ब्लॉगों की भूमिका सर्वोपरि साबित होगी क्योंकि तब प्रसिद्ध वेब पत्र या पोर्टल के या उसके संवाददाता का मुँह भी ताकना नहीं पडेगा और पलक झलकते ही किसी चित –परिचित ब्लॉग केंद्रित मीडियामैन के माध्यम से अपनी आवाज़ बुलंद किया जा सकेगा । इतना ही नहीं, एकला चलो रे की शैली में स्वयं एक अकेला ब्लॉगर भी अपने ब्लॉग के माध्यम से दुष्यंत की तरह गा उठेगा-
कौन कहता है कि आसमान में सूराख नही हो सकता
तबियत से एक पत्थर उछालो तो यारो ।
ब्लॉग, पत्रकार और पत्र-पत्रिकाएं
ब्लॉग तकनीक के विकसित होने से भाषायी चिट्ठाकारिता के साथ-साथ पत्रकारिता की नई दिशाएं खुलने लगी हैं । इधर भारतीय भाषाओं में काम करने की आवश्यक सुविधा से ऑनलाइन पत्रकारिता में प्रिंट मीडिया के अनुभवी पत्रकार सहित नये-नये लोग या गैर पत्रकार भी नज़र आने लगे हैं । वैसे भारत में और खास कर हिंदी में ब्लॉग प्रौद्योगिकी केंद्रित ऑनलाइन पत्रकारिता का यह निहायत प्रारंभिक दौर है फिर भी इंटरनेट पर मौजूद इस श्रृंखला को देखने से नया विश्वास भी मन पर उमगता है । इस श्रृंखला में कुछ उन लोकप्रिय ब्लॉगों की चर्चा प्रासंगिक होगी, जिन्हें विशुद्ध रूप से ऑनलाइन पत्रकारिता की श्रेणी में रखा जाना चाहिए –
www.rachnakar.blogspot.com
रवि रतलामी मूलतः इंजीनियर और इंटरनेट विशेषज्ञ हैं और ब्लॉग को भारतीय पृष्ठभूमि में लोकप्रिय बनाने वालों में से एक और अतिसक्रिय ब्लॉगर हैं । रचनाकार नामक उनका ब्लॉग वेब-पत्र की तरह ही विगत कई वर्षों से संचालित है तथा जिसे माइक्रोसॉफ्ट जैसे विश्वस्तरीय कंपनी का विशिष्ट पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है । इस जाल-स्थल पर प्रतिदिन कला, साहित्य, संस्कृति, इंटरनेट, नयी तकनीक, की जानकारी दी जाती है । यद्यपि वे इसे अकेले संचालित करते हैं किन्तु यह उन सभी लोगों को समर्थन देता है जो अंतरजाल पर लेखन में दक्ष नहीं हैं ।
www.kalpana.it/hindi/blog/
सुनील दीपक का जो कह न सके जैसे जाल-स्थल को वेब-पत्रकारिता का खास उदाहरण माना जा सकता है । वैसे वे छायाचित्रकार (www.kalpana.it/photo/blog/) नाम से एक फोटो ब्लॉग भी नियमित रचते हैं जो मूलतः विदेशी भूगोल पर अभिकेंद्रित फोटो पत्रकारिता पर केंद्रित है ।
www.malwa.wordpress.com/
जैसा कि डोमेन नेम से ही स्पष्ट है, यहाँ मालवा अंचल जैसे इदौर, धार, झाबुआ, खंड़वा खरगौन आदि क्षेत्रों के सभी प्रकार के समाचार पढ़े जा सकते हैं । यह ब्लॉग पर निर्मित ऑनलाइन आंचलिक पत्रकारिता का एक सशक्त मिसाल हो सकता है खासकर उन क्षेत्रों के पत्रकारों के लिए जो स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता करना चाहते हैं ।
www.wahmoney.blogspot.com
कमल शर्मा मूलतः ऐसे पत्रकार हैं जो लंबे समय से पहले प्रिंट फिर वेबमीडिया से जुड़े रहे हैं । मुंबई निवासी श्री कमल शर्मा फिलहाल इलेक्ट्रानिक टीवी एट्टीन इंडिया लिमिटेड़ समूह की कमोडिटीज कंट्रोल डॉट कॉम के संपादक हैं और उसके अलावा वाह मनी और www.journalistkamal.blogspot.com नामक ब्लॉग के माध्यम से अपनी पत्रकारिता धर्म का निर्वहन विश्व में फैले हिंदी समूदाय के लिए कर रहे हैं । इसमें से वाह मनी मुद्रा, बाजार, उद्योग और कार्पोरेट जगत् के विश्लेषित समाचार के लिए लगातार अपनी पाठक संख्या बढ़ाता जा रहा है ।
www.sampadkmahoday.blogspot.com
वैसे तो यह प्रत्यक्षतः पत्रकारिता पर केंद्रित नहीं है किन्तु यहाँ पत्रकारिता के शीर्षस्थ पुरूषों जैसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि पर लिखे गये शोध कृतियों को हरिभूमि रायपुर के स्थानीय संपादक संजय द्विवेदी द्वारा संजोया जा रहा है । वे बताते हैं कि भविष्य में उनके द्वारा विभिन्न अखबारों में समय-समय पर की गई खास और महत्वपूर्ण शताधिक टिप्पणियों को भी सम्मिलित किया जा रहा है । इसे इस मायने में पत्रकारों की नयी पीढ़ी और पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए महत्वपूर्ण जाल-स्थल कह सकते हैं ।
चंबल के दो ऑनलाइन अखबार
अंतरजाल पर इन दो ई-समाचार पत्रों को देख कर इतना तो कहा ही जा सकता है कि कंप्यूटर और इंटरनेट की ब्लॉग प्रौद्योगिकी पत्रकारिता को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वालों को अपने प्रोफेशन में कम लागत और कम समय में सफल होना सिखा रही है । ये दो ई-पत्र हैं – चंबल की आवाज़ और राजपुत इंडिया। दोनों समाचार पत्र एमएसएन द्वारा संचालित माय स्पेस में बनाये गये हैं । दोनों ही समाचार पत्र अपने अंचल के भ्रष्ट्राचारियों की पोल खोल रहे हैं । सिर्फ इतना ही नहीं यहाँ विकास के साथ-साथ कला, साहित्य, संस्कृति, व्यापार, राजनीति आदि सभी प्रकल्पों के समाचार प्रतिदिन प्रकाशित होते हैं और बाकायदा ये समाचार इन क्षेत्रों ही नहीं बल्कि समूचे विश्व में पढे जाते हैं । राजपुत इंडिया फरवरी 2005 से कारगर ढंग से संचालित है जबकि चंबल की आवाज 2005 के जुलाई माह से संचालित हो रहा है । यदि आप चंबल की आवाज़ सुनना चाहते हैं तो http://chambal.spaces.live.com/ पर लॉग ऑन कर सकते हैं और राजपुत इंडिया के लिए http://rajputaindia.spaces.live.com/
http://mohalla.blogspot.com/
यह एनडीटीव्ही के पत्रकार अविनाश का हिंदी ब्लॉग है जिस पर कई विषयों के माहिर लोग नियमित रूप से लिखते हैं ।
http://paryavaran-digest.blogspot.com/
यह ब्लॉग की ही महिमा है जिसकी बदौलत 1987 से निरंतर प्रकाशित पर्यावरण पर पहली राष्ट्रीय मासिक पत्रिका पर्यावरण डाइजेस्ट ऑनलाइन पढ़ी जा सकती है । जो रतलाम के पर्यावरणविद् पत्रकार डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के संपादन एवं रवि रतलामी के तकनीकी सहयोग में प्रकाशित हो रही है ।
इसी तरह के अन्य खास हिंदी ब्लॉगों में रवीश कुमार का कस्बा को शामिल किया जा सकता है जिसका यूआरएल है - http://naisadak.blogspot.com/ । सृजन-सम्मान के पहल पर छत्तीसगढ़ में शुरू पहली ब्लागजीन- सृजनगाथा का जिक्र भी आत्मप्रशंसा की बात नहीं होगी जिसे कई स्थानीय कवि- लेखक मिलकर संचालित करते हैं तथा जिसे www.srijansamman.blogspot.com पर लॉग ऑन किया जा सकता है । यह मूलतः छत्तीसगढ़ के हिंदी रचनाकारों का साहित्यिक जाल स्थल ही है । सृजन-सम्मान की पहल पर शुरू हुई ई-छत्तीसगढ़ भी इलेक्ट्रानिक पत्रकार जेड. कुरैशी द्वारा संचालित पत्रकारिता केंद्रित ब्लॉग है ।
http://merekavimitra.blogspot.com
वैसे तो इस श्रेणी में कई चिट्ठों को रखा जा सकता है किन्तु हिंदी युग्म और चिट्ठा चर्चा को सहकारी चिट्ठों का नायाब नमूना माना जा सकता है । हिंदी युग्म की विषय वस्तु इंजीनियरिंग के छात्र शैलेष भारतवासी की मस्तिष्क की उपज है जहाँ नितांत नये और सीधे आनलाइन या इंटरनेट पर पधारे कवियों की कविताये प्रकाशित हो रही हैं । एक तरह से यह युवा कविता का घर है जहाँ प्रति माह सृजन-सम्मान द्वारा प्रतियोगिता के आधार पर सफल रचनाकारों को उपहार में कृतियाँ भी भेंट की जा रही है । इन पंक्तियों का लेखक भी माह भर में पोस्टिंग की गई कविताओं पर अपनी टिप्पणी देता है । इसके अलावा ये कवि आपस में एक दूसरे की कविताओं पर टिप्पणी भी करके भी एक दूसरे को कविता कर्म का पाठ देते हैं । चिट्ठा चर्चा का पता है - http://chitthacharcha.blogspot.com । इसे फिलहाल 19 लेखक मिलकर संचालित कर रहे हैं ।
यूँ तो हिंदी ब्लॉगिंग सहित ब्लॉग आधारित विशुद्ध पत्रकारिता प्रारंभिक दौर से गुजर रहा है । उसे हम डॉट कॉम और ओआरजी जैसे व्यवसायिक पोर्टलों के मुकाबले आज खड़े नहीं कर सकते । क्योंकि उपलब्ध ब्लॉग में वह सारी सुविधाएं भी नहीं है जो एक वेब पोर्टल में सामान्यतः होती हैं । वेब पोर्टल का सौदंर्यशास्त्र भी इन ब्लॉगों को कुछ पल के लिए कमजोर साबित कर सकता है किन्तु जिन्हें समाचार, विचार और सूचना मात्र पर विश्वास होगा वे इन ब्लॉगों पर प्रदत्त सुविधाओं से मूँह नहीं मोड़ सकते । ब्लॉगरों की दुनिया का विश्लेषण करें और खास तौर पर समाचार लेखन की भाषा पर विचार करें तो अभी वहाँ पत्रकारिता का कॉमन आचरण संहिता का दबाब नज़र नहीं आता जो वेब पत्रकारिता के लिए भी अपरिहार्य होगी । भविष्य में उच्छृंखल भाषा से इन ब्लॉग लेखक-पत्रकारों स्वयं को बचाना होगा । अच्छा होगा कि वे स्वयं ही आत्मानुशासन का नया शास्त्र तैयार करें जो भविष्य में ब्लॉग आधारित पत्रकारिता के साथ-साथ समकालीन अन्य ब्लॉग लेखकों को भी अनुशासित होने के लिए प्रेरित और बाध्य कर सके । जहाँ तक समाचार और विचार चयन का प्रश्न है वहाँ भी चौंथे स्तम्भ की मर्यादाओं का अनुपालन स्वतः स्फूर्त आवश्यक है ताकि प्रजातांत्रिक मूल्यों और संस्कारों को कहीं से खरोंच न लगे । आज जबकि बड़ों घरानों के समाचार पोर्टल दनदनाते हुए अंतरजाल पर नित-प्रतिदिन कोने कगरे से समाचार परोस रहे हैं से टक्कर लेने में और उनके बरक्स अपनी पठनीयता और विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए ब्लॉग पत्रकारों को जरूरी है कि वे समाचार संकलन की सर्वसुलभ प्रविधियों से हटकर उन जगहों पर समाचार तलाशें जहाँ एक प्रोफेशनल पत्रकार लगभग नहीं जाता या उसे वहाँ जाने बिना भी पगार मिल जाया करता है या उसे वहाँ समाचार जैसा कुछ दिखाई नहीं देता । इस दृष्टि से ब्लॉग आधारित पत्रकारिता उपेक्षित विषयों पर लेखन के लिए पतित पावनी गंगा सिद्ध हो सकती है । इसे हम बाजारवादी और उपभोक्तावादी पत्रकारिता के विरूद्ध एक कारगर अस्त्र के रूप में भी देखें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । जिस तरह से समकालीन भारतीय परिस्थितियाँ गवाही दे रही हैं, उसे परीक्षित कर कहा जा सकता है कि भविष्य में वंचित, शोषित, पीड़ित और उपेक्षित मनुष्यता की चीखों, पुकारों, आवाज़ों को नज़रअंदाज करने वाली विद्रपताओं के विरूद्ध एक शसक्त विकल्प के रूप में भी इन ब्लॉगों को कारगर बनाया जा सकता है । तब ये ब्लॉग-पत्र सबसे ताकतवर मीडिया के रूप में जानी पहचानी जा सकेंगी । सिर्फ़ इतना ही नहीं इस माध्यम से भाषायी पत्रकारिता की दिशा में भी काफी कुछ किया जा सकेगा ।
आंकड़ों से उभरते संकेत
एक टैक्नोरति नामक वेब साइट के एक विश्वसनीय आंकडे के अनुसार आज विश्व भर में कम से कम साढ़े सात करोड़ चिट्ठे हैं और जाहिर है कि ये केवल अंग्रेजी में नहीं है प्रत्युत जापानी, रूसी, फ्रेंच स्पेनिश फारसी, हिंदी(विभिन्न लोकभाषाओं सहित), मलयालम, मराठी, बंगाली, उडिया, आदि अनेक भाषाओं मे चिट्ठे लिखे जा रहे हैं । यहाँ उस आम गलतफहमी का भी जिक्र करना उचित होगा, जिसमें इंटरनेट की भाषा केवल अंग्रेजी को माना जातात है । इसके ठीक विपरीत दुनियाभर से प्रकाशित चिट्ठों में से केवल 30% सामग्री ही अंग्रेजी में है। सच तो यह है कि जो हिंदी चिट्ठाकारी देवनागरी लिपि में लिखने पढ़ने की बुनियादी और शुरुआती अड़चनों से मंथर गति से पनप सकी थी अब नित-प्रतिदिन अपनी संख्या में गुणोत्तर वृद्धि दर्शा रही है । जाहिर है इसके साथ-साथ पत्रकारिता में अभिरूचि संपन्न लोग भी इसका वरण करते चले जायेंगे और तब ब्लॉग आधारित वेब मीडिया जैसे महत्वपूर्ण जाल स्थलों की संख्या भी बढ़ती चली जायेगी । मात्र चार वर्षीया हिन्दी चिट्ठाकारिता की दिशा को देखते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है और वह इसलिए भी कि पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं ।
भारतीय डिजीटल न्यूज मानिटरिंग कार्य में सक्रिय संस्था ContentSutra रिपोर्ट और इकॉनामिक्स टाइम्स के सर्वेक्षण पर गौर करें तो जुलाई 2006 में कुल 25 मिलियन भारतीय इंटरनेट उपभोक्ताओं में से 86 प्रतिशत नियमित रूप से ब्लॉग देखते व चयन कर पढ़ते हैं । सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि 41 प्रतिशत ऑनलाइन यूजर्स भाषायी सामग्री की फिराक में रहते हैं जिसमें से 17 प्रतिशत मात्र हिंदी की सामग्री चाहते हैं । यह रूझान ब्लॉग्स के माध्यम से इंटरनेट पर स्वतंत्र पत्रकारिता की स्वस्थ संभावनाओं की ओर भी इशारा करता है ।
ब्लॉग आधारित पत्रकारिता और उसका अर्थशास्त्र
यह सर्वमान्य तथ्य है कि जो कुछ मुफ़्त में दुनिया को देगा तो वह उसकी क़ीमत कहीं न कहीं से वसुलेगा ही । आज जितनी भी प्रतिष्ठित ब्लाग प्रोवाडर्स कंपनियाँ है उनकी की कमाई का जरिया भी बाजार से प्राप्त विज्ञापन है। ब्लॉग क्रियेटर्स के माध्यम से ऐसी कंपनियों की मुख्य साइटें करोड़ों की संख्या में नित देखी पढ़ी जाती हैं जिससे उनका अर्थशास्त्र को पुख्ता होता है । यह ठीक है कि ब्लॉग आधारित वेब-पत्रकारिता से संबंद्ध पत्रकारों के लिए पूर्णकालिक रोजी-रोटी की व्यवस्था होने के रूझान अभी परिलक्षित नहीं हुए हैं और न ही उसे पूर्णतः व्यवसाय के रूप में अपनाया जा सकता है । यह दीगर बात है कि इस प्रविधि में खर्च न के बराबर है तथापि बड़े पोर्टलों और प्रिंट मीडिया की तरह यहाँ भी स्थानीय विज्ञापन सजाकर जेब खर्च निकालने में कोई खास कठिनाई नहीं होगी । वैसे इसके लिए मझोले व्यवसायिक प्रतिष्ठानों को इस ओर मोड़ने की चुनौती भी है जो इन दिनों वेब मीडिया में अपने उत्पाद के विज्ञापन में अपना फायदा नहीं देखने की मानसिकता में हैं, पर यह चुनौती इतनी खतरनाक नहीं है कि मुँह मोड़कर पत्रकार हाथ डाल दे । इस दिशा में गूगल ऐडसेंस (www.google.com/adsense/)का सहारा भी लिया जा सकता है जो विज्ञापन देकर कुछ राशि दे सकती है लेकिन यह काफी कुछ निर्भर करेगा गूगल ऐडसेंस की सेवा की शर्तों पर, इसके अलावा हिन्दी मे लिखे पन्नों पर ज्यादातर पीऍसए (जन सेवा विज्ञापन) ही आते है, जिसमें क्लिक के बावजूद कुछ भी नही मिलता। क्योंकि गूगल ऐडसेंस जालपृष्ठ के विषय-वस्तु और मुख्य-शब्द (कीवर्ड्स) पर निर्भर करता है, और हिन्दी में लिखे विषय-वस्तु के समकक्ष विज्ञापन मिलना लगभग असम्भव ही है। फिर भी भविष्य में कुछ आशा तो की ही जा सकती है।
ऐसे ब्लॉगों के माध्यम से लाभ अर्जित करने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि ऐसे जाल-स्थल को किसी समाचार या फीचर्स सेवा की तरह संचालित किया जाय और छोटे-मझोले समाचार पत्र प्रतिष्ठानों एवं वेबसाइटों की सदस्यता से उन्हें वांछित समाचार और विचारात्मक आलेख उपलब्ध कराकर नियमित रूप से कुछ निश्चित राशि प्राप्त की जाय । क्योंकि लाख प्रतिष्ठित समाचार एंजेसी होने के बावजूद भी स्थानीय महत्व के मुद्दे अक्सर छूट ही जाते हैं और प्रतिदिन प्रकाशित होने वाले ऐसे समाचार पत्रों को नियमित रूप से समाचार और आलेखों की आवश्यकता होती है । आये दिन जिस तरह से आंचलिक अखबारों का प्रकाशन दर बढ़ रहा है और पूर्व संचालित अखबारों में पेजों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है उसे देखकर कहा जा सकता है कि आंचलिक स्तर पर भी ऐसे सामूहिक ब्लाग व्यवसाय का रूप ग्रहण कर सकते हैं ।
भाषायी ब्लागिंग के माध्यम से पत्रकारिता को पेशा बनाने से पहले अंग्रेजी ब्लॉगिंग की दुनिया को खंगालना ज्यादा फायदेमंद होगा जहाँ सैकड़ो-हजारों ब्लॉगर नियमित रुप से पत्र- पत्रिकाओं के लिये काम करते हैं । वहाँ ऐसे बहुतों को देखा जा सकता है जिनके लिए ब्लॉगिंग किसी पेशा नियमित आमदनी का ज़रिया भी है। सच तो यह है कि कई अंग्रेजी ब्लॉगर अपनी रोजी रोटी के लिए मुद्रा ब्लॉगिंग से ही जुटाते हैं । अंग्रेजी ब्लॉगिंग की भाँति यदि हिन्दी ब्लॉगिंग भी उन्नत पायदान पर पहुँच सके तो कोई दो मत नहीं कि उसे वहाँ नियमित रूप से मुद्रा का दर्शन न हो । इसके लिए जरूरी होगा कि ऐसे ब्लॉग दोष रहित और गुणवत्ता मूलक भी हों ।
ब्लॉग कैसे शुरु करें
ब्लॉग लिखने के लिये सबसे अच्छी चीज यह है कि इसके लिये आपको खास तकनीकी ज्ञान की जरूरत नही है । जरूरत है तो इच्छा शक्ति की, विचारों के प्रवाह की और थोड़े से समय की। यूँ तो अब विश्व की लगभग सभी बड़ी और आईटी आधारित कंपनियाँ यथा एमएसएन, याहू, रेडिफ आदि हिंदी सहित विश्व की कई भाषाओं में मुफ्त ब्लॉग लेखन हेतु सुविधायें उपलब्ध करा रही हैं । ये बड़ी कंपनियाँ मुफ्त स्पेस उपलब्ध कराने की होड़ में युद्ध स्तर पर सम्मलित हो चुकी है किन्तु गूगल का ब्लॉगस्पॉट नये उपयोगकर्ताओं के लेखन के लिये सबसे सुगम और सरलतम साधन है। बस अपना एकाउन्ट बनाइये और शुरु हो जाइये…किसी समस्या के आने पर आपके अनेक मददगार मौजूद हैं चिट्ठाकार गूगल समूह में, जिसके आप तुरत-फुरत सदस्य बन सकते हैं ।
उचित तो यही होगा कि ब्लॉग पर आप यूनिकोड हिन्दी का ही प्रयोग करें। यूनिकोड के प्रयोग से न केवल आपका ब्लॉग फाँट विशेष पर निर्भरता से मुक्त हो सकेगा बल्कि गूगल जैसे खोज इंजनों से आपके ब्लॉग की सामग्री भी आसानी से खोजी जा सकती है। फाँट के उपर निर्भरता दूर होने का कारण पाठकों के कंप्यूटर पर बस एक अदद यूनिकोड फाँट की आवश्यकता है । यह नहीं कि हर जालस्थल को पढ़ने के लिये अलग-अलग फाँट डाउनलोड करना पड़े। वैसे आजकल कई बेहतरीन यूनिकोड हिन्दी फाँट उपलब्ध हैं जिन्हें भारत सरकार के साइट से भी मुफ्त में डाऊनलोड़ कर सकते हैं । यदि उपयोगकर्ता यानी कि ब्लॉग-लेखक का कंप्यूटर पर आपरेटिंग सिस्टम विंडोज एक्सपी पर हैं तो कोई अड़चन ही नहीं, क्योंकि यह मंगल नामक यूनिकोड हिन्दी फाँट से लैस होता है। कहने का आशय यह है कि आपके कंप्यूटर पर कम से कम एक यूनिकोड हिन्दी फाँट होना चाहिए। बेहतर हो कि आप के पास हो विंडोज एक्सपी या नवीनतम लिनक्स तथा ब्राउज़र हो इंटरनेट एक्सप्लोरर 6। एक बार यूनिकोड हिन्दी के लिए मशीन सेटअप हो जाने के उपरांत तो ब्लॉग लिखना ई-मेल लिखने जितना ही आसान है। एक खास बात यह कि हिंदी यूनिकोड सिर्फ विंडोज 2000 या एक्सपी या उसके बाद के संस्करणों तथा लिनक्स में 2003 के बाद वाले संस्करणों में ही क्रियाशील है ।
गूगल समूह की www.blogger.com का चयन हिंदी वालों के लिए ज्यादा सरल और पूर्ण हिंदी समर्थित वेबसाइट है । नयी शुरूआत करने वाले इसका चयन कर सकते हैं । ब्लॉग की शुरूआत करने के लिए सर्वप्रथम इस साइट पर जायें । अपना नाम यानी उपयोग कर्ता का नाम, अपने ब्लॉग का वांछित नाम, कूट शब्द (पासवर्ड) डालें । फिर दिये गये टेम्पलेट में से पसंदीदा टेम्पलेट का चयन करें । इसके तुरंत बाद आपको लेखन शुरू करने हेतु आपका अपना पेज आमंत्रण देने लगेगा । एक शीर्षक दीजिए और लिखते जाइये- लिखते जाइये । यहाँ आप अपनी सामग्री को विभिन्न रंगों, आकृतियों में वांछित चित्रों के साथ सजा सकते हैं । बस्स । काम पूरा हुआ तो संबंधित पृष्ठ को प्रकाशित कर दीजिए । जाने-अनजाने में कोई त्रुटि हो गया तो भी चिंता की दरकार नहीं, एडिट पर जाइये और संपादित करते हुए पुनः प्रकाशित कर दीजिए ।
जिन्हें माइक्रोसॉफ्ट का हिंदी आफिस या देवनागरी कुंजीपटल में काम करना आता है उन्हें हिंदी ब्लॉग रचने में कोई दिक्कत नहीं। वे अपनी सामग्री को कट-पेस्ट कर वहाँ सजा सकते हैं । परंतु जिनके पास विंडोज 98 या कोई अन्य पिछडा संस्करण वाला आपरेटिंग सिस्टम हैं उन्हें थोड़ी सी समस्या जरूर होगी । इंटरनेट या अंतरजाल पर हिंदी लेखन के लिए जरूरी है कि आप आई.एम.ई संस्करण 5 इस्तेमाल करें। इसमें गोदरेज से लेकर रेमिंगटन, इनस्क्रिप्ट, फ़ोनेटिक सभी तरह के कुंजी पट हैं। यदि आपके कंप्यूटर पर आपरेटिंग सिस्टम (ओ.एस) विंडोज 98 काम कर रहा है तो आपको तख्ती का उपयोग करना होगा । यह तख्ती बेहद आसान और फोनेटिक तंत्रांश है। जिसे आप सर्च कर आसानी से अपने मशीन पर डाउनलोड़ कर सकते हैं । परंतु इसमें आप केवल लिख सकते हैं । इसके सहारे आप अपने विंडोज 98 वाले कंप्यूटर में किसी ब्लाग को पढ नहीं सकते । इसके लिए आपको यूनिकोड़ मंगल फोंट्स डाउनलोड़ कर अपने कंप्यूटर में रखना होगा ।
वैसे ब्लागिंग की तकनीक में पारंगत होने के लिए अंतरजाल पर संचालित सर्वज्ञ नामक जाल स्थल पर लॉग ऑन कर सकते हैं जहाँ मुफ्त में ब्लांगिक की संपूर्ण प्रकिया से अवगत कराने वाली व्यवहारिक सामग्री हिंदी में है । तो तैयार हैं आप सामूहिक बोध से ऑनलाइन पत्रकारिता का नया संसार रचने के लिए ? यदि हाँ तो आपके जीवन में वह सुखद दिन भी आ सकता है जब आपको विश्व की सबसे बड़ी आईटी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट भाषा इंडिया और उसके जैसी अन्य विश्वव्यापी कंपनियों आदि से आपको आपकी ब्ल़ॉग को सर्वश्रेष्ठता के आधार पर पुरस्कृत करने के लिए ई-मेल भी प्राप्त हो ।
जयप्रकाश मानस
ब्लॉग(Blog) इंटरनेट पर केवल निजी अभिव्यक्ति या स्वयं को अभिव्यक्त करने या भड़ास उतारने मात्र का स्वतंत्र साधन नहीं रहा वह धीरे-धीरे सायबर जर्नलिज्म या ऑनलाइन जर्नलिज्म या इंटरनेट जर्नलिज्म का शक्ल भी धारण करने लगा है । चाहे इसे एक ही व्यक्ति या पत्रकार द्वारा संचालित किया जाय या फिर समूह में । जिस तरह विभिन्न स्थानों का प्रतिनिधित्व करने वाले संवाददाताओं की टीम के सहयोग से किसी अखबार का प्रकाशन किया जाता है ठीक उसी तरह भी ब्लॉगों का संचालन संभव है । विश्व की विभिन्न आईटी आधारित कंपनियों द्वारा मुफ्त उपलब्ध ब्लाग सुविधा एवं समानधर्मा किन्तु न्यूनतम – वांछित तकनीक में दक्ष पत्रकारों के द्वारा भी किसी ऑनलाइन अखबार का संचालन अब संभव हो चुका है । यद्यपि ब्लॉग लेखन या ब्लॉगिंग की मूल प्रकृति निहायत व्यक्तिवादी है जहाँ कोई भी अपने विचार, भाव, मन का उमड़न-घुमड़न लिख कर उसे विश्वव्यापी बना सकता है, बकायदा उस पर वैश्विक प्रतिक्रिया भी प्राप्त कर सकता है तथापि इस तकनीक का फायदा उठाकर वहाँ अखबार के नेट संस्करण की तरह सामूहिक लेखन भी किया जा सकता है, वह भी प्रोफेशनल पत्रकारों की तरह । कहने का आशय है कि ब्लॉगिंग पत्रकारिता जैसे सामूहिक बोध का ज़रिया भी बन सकता है ।
ऑनलाइन पत्रकारिता के प्रकल्प के रूप में ब्लॉग तकनीक की सबसे बड़ी विशेषता है - सामूहिक अभिव्यक्ति का माध्यम अर्थात् समूह बोध यानी कि प्रजातांत्रिक पत्रकारिता जहाँ लिखने वाले और बाँचने वाले के मध्य किसी तरह की कोई दलाली नहीं। एक तरह से यह अभिव्यक्ति, सूचना, संचार और जानकारी का स्वतंत्र और मर्यादित माध्यम सिद्ध हो सकता है जहाँ नियमित लिखने वाले सूचनादाता या संवाददाता या पत्रकारों को न तो अखबार-प्रबंधन के निहित स्वार्थों और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ सकता है और न ही वहाँ अभिव्यक्त होने वाले पत्रकारों को मिठलबरे संपादक की धारदार कैंची के सामना करने से उत्पन्न कुंठा और मानसिक तनाव झेलने की विवशता। आत्मानुशासन और पूर्व लक्ष्यित उद्देश्यों और शर्तों के सामूहिक अनुपालन से यह प्रबंधक की निरकुंशता मुक्त पत्रकारिता भी बन सकता है । प्रकारांतर से यह बाजारवादी दबाबों का काट और मीडिया में संपादक नामक (पत्रकार सहित) संस्था की वापसी की शुरूआत भी सिद्ध हो सकती है । जैसे-जैसे-जैसे देश में इंटरनेट, बिजली, तकनीकी ज्ञान और पाठकों का रूझान स्वस्थ और निहायत तटस्थ पत्रकारिता की ओर उन्मुख होता चला जायेगा वैसे-वैसे ब्लॉग आधारित पत्रकारिता भी विश्वसनीयता के नये प्रतिमान गढ़ सकती है । संक्षेप में कहें तो यह अंतरजाल पर यानी वेब-पत्रकारिता का सहकारी उद्यम हो सकता है । परस्पर विश्वास से इसे समाचार या फीचर सर्विस की एंजेसी की तरह भी संचालित किया जा सकता है ।
जैसा कि हम जानते हैं ब्लॉग संचालन के लिए किसी डोमेन रजिस्टर कराने, वेब-स्पेस खरीदने की कोई आवश्यकता नहीं होती, सामूहिक ब्लॉग लेखन यानी ब्लॉग आधारित आनलाइन पत्रकारिता भी शून्य बजट से प्रारंभ की जा सकती है । बशर्ते की इस तरह की ऑनलाइन पत्रकारिता के लिए कटिबद्ध सभी पत्रकार, संवाददाता या लेखक यूनिकोड़ित फोंट केंद्रित टायपिंग कार्य जानते हों और ब्लॉगिंग की न्यूतम और वांछित तकनीक से भली भाँति परिचित हों । इसके अलावा उन सभी के पास पर्याप्त गति वाली इंटरनेट सुविधा भी हो तो सहकारी वेब-पत्र या पत्रिका संचालन में उन्हें कोई अड़चन नहीं हो सकती भले ही उस समूह के सदस्य किसी अंचल के हो या किसी दूर महाद्वीप से । यहाँ तक कि मुद्रित अखबार की तरह उसे आरएनआई (RNI) से पंजीयन और नियमित रूप से शासकीय नियमों के पालन में सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने की भी कोई आवश्यकता नहीं होगी ।
व्यावसायिक वेब पोर्टल बनाम ब्लॉग पत्रकारिता
कंटेट और तकनीकी रूप से यूँ तो बड़े घरानों की पत्रकारिता केंद्रित वेब पोर्टल ब्लॉग के सामने ठीक वैसे नज़र आते हैं जैसे चूहे के सामने हाथी । ऐसे वेब पोर्टलों में नियमित रूप से काम करने वाली एक प्रोफेशनल्स टीम होती है जो दैनिक या प्रतिघंटे वेब पोर्टलों को अपडेट करती रहती है । वहाँ ई-संस्करण संचालन की सुविधा भी होती है । ऐसे साइट कलात्मक ढंग से अधिक सौंदर्यबोधी हुआ करती हैं । उनका अपना स्पष्ट आर्थिक तंत्र भी होता है । फिर भी सामग्री की नियमित उपलब्धता की दृष्टि से यदि ऐसे सामूहिक ब्लाग को भी सहकारिता और समूह के सदस्यों के द्वारा सुनिश्चित अनुशासन की परिधि से संचालित किया जाय तो कोई दो मत नहीं कि वहाँ पाठकों का जमावड़ा न हो, लोग उस ब्लॉग पर न जायें या वह विश्वसनीय जाल स्थल न बन सके । अब ब्लॉगों के रूप में भी काफी परिवर्तन और उनका विकास हो चुका है । ऐसे ब्लॉगों पर टैक्स्ट के साथ ही फोटो, आडियो, वीडियो आदि भी सजाया जा सकता है । आम वेब पोर्टलों और समाचार पत्रों से हटकर यदि कंटेट की मौलिकता, रोचकता, उत्कृष्टता और विश्वसनीयता पर ध्यानस्थ हुआ जा सके तो संभव है कि कई मायने में ऐसे सहकारी ब्लाग ज्यादा लोकप्रिय भी हो सकते हैं बनिस्पत किसी सामान्य नेट अखबार के । ऐसे विश्वसनीय ब्लॉगों की बहुतायत का एक ऑनलाइन पत्रकारिता के माध्यम से उस मिशन की पुनर्वापसी भी संभव हो सकती है जो पत्रकारिता की मूल आत्मा है । वह दिन दूर नहीं जब भारत में भी बिलकुल पश्चिम दुनिया की तरह यानी कि अंग्रेजी पत्रकारिता की तरह अभिव्यक्ति के चरम उदात्त मूल्यों को स्थापित होते देखा जा सकेगा । तब आज की तरह पत्रकारिता का ध्येय व्यवसायिकता नहीं बल्कि सेवा कर्म ही होगा तथा जहाँ हर नागरिक एक पत्रकार की तरह अपनी आवाज़ सारी दुनिया में पहुँचा सकेगा । और यदि यह हुआ तो उसमें ऐसे ब्लॉगों की भूमिका सर्वोपरि साबित होगी क्योंकि तब प्रसिद्ध वेब पत्र या पोर्टल के या उसके संवाददाता का मुँह भी ताकना नहीं पडेगा और पलक झलकते ही किसी चित –परिचित ब्लॉग केंद्रित मीडियामैन के माध्यम से अपनी आवाज़ बुलंद किया जा सकेगा । इतना ही नहीं, एकला चलो रे की शैली में स्वयं एक अकेला ब्लॉगर भी अपने ब्लॉग के माध्यम से दुष्यंत की तरह गा उठेगा-
कौन कहता है कि आसमान में सूराख नही हो सकता
तबियत से एक पत्थर उछालो तो यारो ।
ब्लॉग, पत्रकार और पत्र-पत्रिकाएं
ब्लॉग तकनीक के विकसित होने से भाषायी चिट्ठाकारिता के साथ-साथ पत्रकारिता की नई दिशाएं खुलने लगी हैं । इधर भारतीय भाषाओं में काम करने की आवश्यक सुविधा से ऑनलाइन पत्रकारिता में प्रिंट मीडिया के अनुभवी पत्रकार सहित नये-नये लोग या गैर पत्रकार भी नज़र आने लगे हैं । वैसे भारत में और खास कर हिंदी में ब्लॉग प्रौद्योगिकी केंद्रित ऑनलाइन पत्रकारिता का यह निहायत प्रारंभिक दौर है फिर भी इंटरनेट पर मौजूद इस श्रृंखला को देखने से नया विश्वास भी मन पर उमगता है । इस श्रृंखला में कुछ उन लोकप्रिय ब्लॉगों की चर्चा प्रासंगिक होगी, जिन्हें विशुद्ध रूप से ऑनलाइन पत्रकारिता की श्रेणी में रखा जाना चाहिए –
www.rachnakar.blogspot.com
रवि रतलामी मूलतः इंजीनियर और इंटरनेट विशेषज्ञ हैं और ब्लॉग को भारतीय पृष्ठभूमि में लोकप्रिय बनाने वालों में से एक और अतिसक्रिय ब्लॉगर हैं । रचनाकार नामक उनका ब्लॉग वेब-पत्र की तरह ही विगत कई वर्षों से संचालित है तथा जिसे माइक्रोसॉफ्ट जैसे विश्वस्तरीय कंपनी का विशिष्ट पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है । इस जाल-स्थल पर प्रतिदिन कला, साहित्य, संस्कृति, इंटरनेट, नयी तकनीक, की जानकारी दी जाती है । यद्यपि वे इसे अकेले संचालित करते हैं किन्तु यह उन सभी लोगों को समर्थन देता है जो अंतरजाल पर लेखन में दक्ष नहीं हैं ।
www.kalpana.it/hindi/blog/
सुनील दीपक का जो कह न सके जैसे जाल-स्थल को वेब-पत्रकारिता का खास उदाहरण माना जा सकता है । वैसे वे छायाचित्रकार (www.kalpana.it/photo/blog/) नाम से एक फोटो ब्लॉग भी नियमित रचते हैं जो मूलतः विदेशी भूगोल पर अभिकेंद्रित फोटो पत्रकारिता पर केंद्रित है ।
www.malwa.wordpress.com/
जैसा कि डोमेन नेम से ही स्पष्ट है, यहाँ मालवा अंचल जैसे इदौर, धार, झाबुआ, खंड़वा खरगौन आदि क्षेत्रों के सभी प्रकार के समाचार पढ़े जा सकते हैं । यह ब्लॉग पर निर्मित ऑनलाइन आंचलिक पत्रकारिता का एक सशक्त मिसाल हो सकता है खासकर उन क्षेत्रों के पत्रकारों के लिए जो स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता करना चाहते हैं ।
www.wahmoney.blogspot.com
कमल शर्मा मूलतः ऐसे पत्रकार हैं जो लंबे समय से पहले प्रिंट फिर वेबमीडिया से जुड़े रहे हैं । मुंबई निवासी श्री कमल शर्मा फिलहाल इलेक्ट्रानिक टीवी एट्टीन इंडिया लिमिटेड़ समूह की कमोडिटीज कंट्रोल डॉट कॉम के संपादक हैं और उसके अलावा वाह मनी और www.journalistkamal.blogspot.com नामक ब्लॉग के माध्यम से अपनी पत्रकारिता धर्म का निर्वहन विश्व में फैले हिंदी समूदाय के लिए कर रहे हैं । इसमें से वाह मनी मुद्रा, बाजार, उद्योग और कार्पोरेट जगत् के विश्लेषित समाचार के लिए लगातार अपनी पाठक संख्या बढ़ाता जा रहा है ।
www.sampadkmahoday.blogspot.com
वैसे तो यह प्रत्यक्षतः पत्रकारिता पर केंद्रित नहीं है किन्तु यहाँ पत्रकारिता के शीर्षस्थ पुरूषों जैसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि पर लिखे गये शोध कृतियों को हरिभूमि रायपुर के स्थानीय संपादक संजय द्विवेदी द्वारा संजोया जा रहा है । वे बताते हैं कि भविष्य में उनके द्वारा विभिन्न अखबारों में समय-समय पर की गई खास और महत्वपूर्ण शताधिक टिप्पणियों को भी सम्मिलित किया जा रहा है । इसे इस मायने में पत्रकारों की नयी पीढ़ी और पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए महत्वपूर्ण जाल-स्थल कह सकते हैं ।
चंबल के दो ऑनलाइन अखबार
अंतरजाल पर इन दो ई-समाचार पत्रों को देख कर इतना तो कहा ही जा सकता है कि कंप्यूटर और इंटरनेट की ब्लॉग प्रौद्योगिकी पत्रकारिता को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वालों को अपने प्रोफेशन में कम लागत और कम समय में सफल होना सिखा रही है । ये दो ई-पत्र हैं – चंबल की आवाज़ और राजपुत इंडिया। दोनों समाचार पत्र एमएसएन द्वारा संचालित माय स्पेस में बनाये गये हैं । दोनों ही समाचार पत्र अपने अंचल के भ्रष्ट्राचारियों की पोल खोल रहे हैं । सिर्फ इतना ही नहीं यहाँ विकास के साथ-साथ कला, साहित्य, संस्कृति, व्यापार, राजनीति आदि सभी प्रकल्पों के समाचार प्रतिदिन प्रकाशित होते हैं और बाकायदा ये समाचार इन क्षेत्रों ही नहीं बल्कि समूचे विश्व में पढे जाते हैं । राजपुत इंडिया फरवरी 2005 से कारगर ढंग से संचालित है जबकि चंबल की आवाज 2005 के जुलाई माह से संचालित हो रहा है । यदि आप चंबल की आवाज़ सुनना चाहते हैं तो http://chambal.spaces.live.com/ पर लॉग ऑन कर सकते हैं और राजपुत इंडिया के लिए http://rajputaindia.spaces.live.com/
http://mohalla.blogspot.com/
यह एनडीटीव्ही के पत्रकार अविनाश का हिंदी ब्लॉग है जिस पर कई विषयों के माहिर लोग नियमित रूप से लिखते हैं ।
http://paryavaran-digest.blogspot.com/
यह ब्लॉग की ही महिमा है जिसकी बदौलत 1987 से निरंतर प्रकाशित पर्यावरण पर पहली राष्ट्रीय मासिक पत्रिका पर्यावरण डाइजेस्ट ऑनलाइन पढ़ी जा सकती है । जो रतलाम के पर्यावरणविद् पत्रकार डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के संपादन एवं रवि रतलामी के तकनीकी सहयोग में प्रकाशित हो रही है ।
इसी तरह के अन्य खास हिंदी ब्लॉगों में रवीश कुमार का कस्बा को शामिल किया जा सकता है जिसका यूआरएल है - http://naisadak.blogspot.com/ । सृजन-सम्मान के पहल पर छत्तीसगढ़ में शुरू पहली ब्लागजीन- सृजनगाथा का जिक्र भी आत्मप्रशंसा की बात नहीं होगी जिसे कई स्थानीय कवि- लेखक मिलकर संचालित करते हैं तथा जिसे www.srijansamman.blogspot.com पर लॉग ऑन किया जा सकता है । यह मूलतः छत्तीसगढ़ के हिंदी रचनाकारों का साहित्यिक जाल स्थल ही है । सृजन-सम्मान की पहल पर शुरू हुई ई-छत्तीसगढ़ भी इलेक्ट्रानिक पत्रकार जेड. कुरैशी द्वारा संचालित पत्रकारिता केंद्रित ब्लॉग है ।
http://merekavimitra.blogspot.com
वैसे तो इस श्रेणी में कई चिट्ठों को रखा जा सकता है किन्तु हिंदी युग्म और चिट्ठा चर्चा को सहकारी चिट्ठों का नायाब नमूना माना जा सकता है । हिंदी युग्म की विषय वस्तु इंजीनियरिंग के छात्र शैलेष भारतवासी की मस्तिष्क की उपज है जहाँ नितांत नये और सीधे आनलाइन या इंटरनेट पर पधारे कवियों की कविताये प्रकाशित हो रही हैं । एक तरह से यह युवा कविता का घर है जहाँ प्रति माह सृजन-सम्मान द्वारा प्रतियोगिता के आधार पर सफल रचनाकारों को उपहार में कृतियाँ भी भेंट की जा रही है । इन पंक्तियों का लेखक भी माह भर में पोस्टिंग की गई कविताओं पर अपनी टिप्पणी देता है । इसके अलावा ये कवि आपस में एक दूसरे की कविताओं पर टिप्पणी भी करके भी एक दूसरे को कविता कर्म का पाठ देते हैं । चिट्ठा चर्चा का पता है - http://chitthacharcha.blogspot.com । इसे फिलहाल 19 लेखक मिलकर संचालित कर रहे हैं ।
यूँ तो हिंदी ब्लॉगिंग सहित ब्लॉग आधारित विशुद्ध पत्रकारिता प्रारंभिक दौर से गुजर रहा है । उसे हम डॉट कॉम और ओआरजी जैसे व्यवसायिक पोर्टलों के मुकाबले आज खड़े नहीं कर सकते । क्योंकि उपलब्ध ब्लॉग में वह सारी सुविधाएं भी नहीं है जो एक वेब पोर्टल में सामान्यतः होती हैं । वेब पोर्टल का सौदंर्यशास्त्र भी इन ब्लॉगों को कुछ पल के लिए कमजोर साबित कर सकता है किन्तु जिन्हें समाचार, विचार और सूचना मात्र पर विश्वास होगा वे इन ब्लॉगों पर प्रदत्त सुविधाओं से मूँह नहीं मोड़ सकते । ब्लॉगरों की दुनिया का विश्लेषण करें और खास तौर पर समाचार लेखन की भाषा पर विचार करें तो अभी वहाँ पत्रकारिता का कॉमन आचरण संहिता का दबाब नज़र नहीं आता जो वेब पत्रकारिता के लिए भी अपरिहार्य होगी । भविष्य में उच्छृंखल भाषा से इन ब्लॉग लेखक-पत्रकारों स्वयं को बचाना होगा । अच्छा होगा कि वे स्वयं ही आत्मानुशासन का नया शास्त्र तैयार करें जो भविष्य में ब्लॉग आधारित पत्रकारिता के साथ-साथ समकालीन अन्य ब्लॉग लेखकों को भी अनुशासित होने के लिए प्रेरित और बाध्य कर सके । जहाँ तक समाचार और विचार चयन का प्रश्न है वहाँ भी चौंथे स्तम्भ की मर्यादाओं का अनुपालन स्वतः स्फूर्त आवश्यक है ताकि प्रजातांत्रिक मूल्यों और संस्कारों को कहीं से खरोंच न लगे । आज जबकि बड़ों घरानों के समाचार पोर्टल दनदनाते हुए अंतरजाल पर नित-प्रतिदिन कोने कगरे से समाचार परोस रहे हैं से टक्कर लेने में और उनके बरक्स अपनी पठनीयता और विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए ब्लॉग पत्रकारों को जरूरी है कि वे समाचार संकलन की सर्वसुलभ प्रविधियों से हटकर उन जगहों पर समाचार तलाशें जहाँ एक प्रोफेशनल पत्रकार लगभग नहीं जाता या उसे वहाँ जाने बिना भी पगार मिल जाया करता है या उसे वहाँ समाचार जैसा कुछ दिखाई नहीं देता । इस दृष्टि से ब्लॉग आधारित पत्रकारिता उपेक्षित विषयों पर लेखन के लिए पतित पावनी गंगा सिद्ध हो सकती है । इसे हम बाजारवादी और उपभोक्तावादी पत्रकारिता के विरूद्ध एक कारगर अस्त्र के रूप में भी देखें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । जिस तरह से समकालीन भारतीय परिस्थितियाँ गवाही दे रही हैं, उसे परीक्षित कर कहा जा सकता है कि भविष्य में वंचित, शोषित, पीड़ित और उपेक्षित मनुष्यता की चीखों, पुकारों, आवाज़ों को नज़रअंदाज करने वाली विद्रपताओं के विरूद्ध एक शसक्त विकल्प के रूप में भी इन ब्लॉगों को कारगर बनाया जा सकता है । तब ये ब्लॉग-पत्र सबसे ताकतवर मीडिया के रूप में जानी पहचानी जा सकेंगी । सिर्फ़ इतना ही नहीं इस माध्यम से भाषायी पत्रकारिता की दिशा में भी काफी कुछ किया जा सकेगा ।
आंकड़ों से उभरते संकेत
एक टैक्नोरति नामक वेब साइट के एक विश्वसनीय आंकडे के अनुसार आज विश्व भर में कम से कम साढ़े सात करोड़ चिट्ठे हैं और जाहिर है कि ये केवल अंग्रेजी में नहीं है प्रत्युत जापानी, रूसी, फ्रेंच स्पेनिश फारसी, हिंदी(विभिन्न लोकभाषाओं सहित), मलयालम, मराठी, बंगाली, उडिया, आदि अनेक भाषाओं मे चिट्ठे लिखे जा रहे हैं । यहाँ उस आम गलतफहमी का भी जिक्र करना उचित होगा, जिसमें इंटरनेट की भाषा केवल अंग्रेजी को माना जातात है । इसके ठीक विपरीत दुनियाभर से प्रकाशित चिट्ठों में से केवल 30% सामग्री ही अंग्रेजी में है। सच तो यह है कि जो हिंदी चिट्ठाकारी देवनागरी लिपि में लिखने पढ़ने की बुनियादी और शुरुआती अड़चनों से मंथर गति से पनप सकी थी अब नित-प्रतिदिन अपनी संख्या में गुणोत्तर वृद्धि दर्शा रही है । जाहिर है इसके साथ-साथ पत्रकारिता में अभिरूचि संपन्न लोग भी इसका वरण करते चले जायेंगे और तब ब्लॉग आधारित वेब मीडिया जैसे महत्वपूर्ण जाल स्थलों की संख्या भी बढ़ती चली जायेगी । मात्र चार वर्षीया हिन्दी चिट्ठाकारिता की दिशा को देखते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है और वह इसलिए भी कि पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं ।
भारतीय डिजीटल न्यूज मानिटरिंग कार्य में सक्रिय संस्था ContentSutra रिपोर्ट और इकॉनामिक्स टाइम्स के सर्वेक्षण पर गौर करें तो जुलाई 2006 में कुल 25 मिलियन भारतीय इंटरनेट उपभोक्ताओं में से 86 प्रतिशत नियमित रूप से ब्लॉग देखते व चयन कर पढ़ते हैं । सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि 41 प्रतिशत ऑनलाइन यूजर्स भाषायी सामग्री की फिराक में रहते हैं जिसमें से 17 प्रतिशत मात्र हिंदी की सामग्री चाहते हैं । यह रूझान ब्लॉग्स के माध्यम से इंटरनेट पर स्वतंत्र पत्रकारिता की स्वस्थ संभावनाओं की ओर भी इशारा करता है ।
ब्लॉग आधारित पत्रकारिता और उसका अर्थशास्त्र
यह सर्वमान्य तथ्य है कि जो कुछ मुफ़्त में दुनिया को देगा तो वह उसकी क़ीमत कहीं न कहीं से वसुलेगा ही । आज जितनी भी प्रतिष्ठित ब्लाग प्रोवाडर्स कंपनियाँ है उनकी की कमाई का जरिया भी बाजार से प्राप्त विज्ञापन है। ब्लॉग क्रियेटर्स के माध्यम से ऐसी कंपनियों की मुख्य साइटें करोड़ों की संख्या में नित देखी पढ़ी जाती हैं जिससे उनका अर्थशास्त्र को पुख्ता होता है । यह ठीक है कि ब्लॉग आधारित वेब-पत्रकारिता से संबंद्ध पत्रकारों के लिए पूर्णकालिक रोजी-रोटी की व्यवस्था होने के रूझान अभी परिलक्षित नहीं हुए हैं और न ही उसे पूर्णतः व्यवसाय के रूप में अपनाया जा सकता है । यह दीगर बात है कि इस प्रविधि में खर्च न के बराबर है तथापि बड़े पोर्टलों और प्रिंट मीडिया की तरह यहाँ भी स्थानीय विज्ञापन सजाकर जेब खर्च निकालने में कोई खास कठिनाई नहीं होगी । वैसे इसके लिए मझोले व्यवसायिक प्रतिष्ठानों को इस ओर मोड़ने की चुनौती भी है जो इन दिनों वेब मीडिया में अपने उत्पाद के विज्ञापन में अपना फायदा नहीं देखने की मानसिकता में हैं, पर यह चुनौती इतनी खतरनाक नहीं है कि मुँह मोड़कर पत्रकार हाथ डाल दे । इस दिशा में गूगल ऐडसेंस (www.google.com/adsense/)का सहारा भी लिया जा सकता है जो विज्ञापन देकर कुछ राशि दे सकती है लेकिन यह काफी कुछ निर्भर करेगा गूगल ऐडसेंस की सेवा की शर्तों पर, इसके अलावा हिन्दी मे लिखे पन्नों पर ज्यादातर पीऍसए (जन सेवा विज्ञापन) ही आते है, जिसमें क्लिक के बावजूद कुछ भी नही मिलता। क्योंकि गूगल ऐडसेंस जालपृष्ठ के विषय-वस्तु और मुख्य-शब्द (कीवर्ड्स) पर निर्भर करता है, और हिन्दी में लिखे विषय-वस्तु के समकक्ष विज्ञापन मिलना लगभग असम्भव ही है। फिर भी भविष्य में कुछ आशा तो की ही जा सकती है।
ऐसे ब्लॉगों के माध्यम से लाभ अर्जित करने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि ऐसे जाल-स्थल को किसी समाचार या फीचर्स सेवा की तरह संचालित किया जाय और छोटे-मझोले समाचार पत्र प्रतिष्ठानों एवं वेबसाइटों की सदस्यता से उन्हें वांछित समाचार और विचारात्मक आलेख उपलब्ध कराकर नियमित रूप से कुछ निश्चित राशि प्राप्त की जाय । क्योंकि लाख प्रतिष्ठित समाचार एंजेसी होने के बावजूद भी स्थानीय महत्व के मुद्दे अक्सर छूट ही जाते हैं और प्रतिदिन प्रकाशित होने वाले ऐसे समाचार पत्रों को नियमित रूप से समाचार और आलेखों की आवश्यकता होती है । आये दिन जिस तरह से आंचलिक अखबारों का प्रकाशन दर बढ़ रहा है और पूर्व संचालित अखबारों में पेजों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है उसे देखकर कहा जा सकता है कि आंचलिक स्तर पर भी ऐसे सामूहिक ब्लाग व्यवसाय का रूप ग्रहण कर सकते हैं ।
भाषायी ब्लागिंग के माध्यम से पत्रकारिता को पेशा बनाने से पहले अंग्रेजी ब्लॉगिंग की दुनिया को खंगालना ज्यादा फायदेमंद होगा जहाँ सैकड़ो-हजारों ब्लॉगर नियमित रुप से पत्र- पत्रिकाओं के लिये काम करते हैं । वहाँ ऐसे बहुतों को देखा जा सकता है जिनके लिए ब्लॉगिंग किसी पेशा नियमित आमदनी का ज़रिया भी है। सच तो यह है कि कई अंग्रेजी ब्लॉगर अपनी रोजी रोटी के लिए मुद्रा ब्लॉगिंग से ही जुटाते हैं । अंग्रेजी ब्लॉगिंग की भाँति यदि हिन्दी ब्लॉगिंग भी उन्नत पायदान पर पहुँच सके तो कोई दो मत नहीं कि उसे वहाँ नियमित रूप से मुद्रा का दर्शन न हो । इसके लिए जरूरी होगा कि ऐसे ब्लॉग दोष रहित और गुणवत्ता मूलक भी हों ।
ब्लॉग कैसे शुरु करें
ब्लॉग लिखने के लिये सबसे अच्छी चीज यह है कि इसके लिये आपको खास तकनीकी ज्ञान की जरूरत नही है । जरूरत है तो इच्छा शक्ति की, विचारों के प्रवाह की और थोड़े से समय की। यूँ तो अब विश्व की लगभग सभी बड़ी और आईटी आधारित कंपनियाँ यथा एमएसएन, याहू, रेडिफ आदि हिंदी सहित विश्व की कई भाषाओं में मुफ्त ब्लॉग लेखन हेतु सुविधायें उपलब्ध करा रही हैं । ये बड़ी कंपनियाँ मुफ्त स्पेस उपलब्ध कराने की होड़ में युद्ध स्तर पर सम्मलित हो चुकी है किन्तु गूगल का ब्लॉगस्पॉट नये उपयोगकर्ताओं के लेखन के लिये सबसे सुगम और सरलतम साधन है। बस अपना एकाउन्ट बनाइये और शुरु हो जाइये…किसी समस्या के आने पर आपके अनेक मददगार मौजूद हैं चिट्ठाकार गूगल समूह में, जिसके आप तुरत-फुरत सदस्य बन सकते हैं ।
उचित तो यही होगा कि ब्लॉग पर आप यूनिकोड हिन्दी का ही प्रयोग करें। यूनिकोड के प्रयोग से न केवल आपका ब्लॉग फाँट विशेष पर निर्भरता से मुक्त हो सकेगा बल्कि गूगल जैसे खोज इंजनों से आपके ब्लॉग की सामग्री भी आसानी से खोजी जा सकती है। फाँट के उपर निर्भरता दूर होने का कारण पाठकों के कंप्यूटर पर बस एक अदद यूनिकोड फाँट की आवश्यकता है । यह नहीं कि हर जालस्थल को पढ़ने के लिये अलग-अलग फाँट डाउनलोड करना पड़े। वैसे आजकल कई बेहतरीन यूनिकोड हिन्दी फाँट उपलब्ध हैं जिन्हें भारत सरकार के साइट से भी मुफ्त में डाऊनलोड़ कर सकते हैं । यदि उपयोगकर्ता यानी कि ब्लॉग-लेखक का कंप्यूटर पर आपरेटिंग सिस्टम विंडोज एक्सपी पर हैं तो कोई अड़चन ही नहीं, क्योंकि यह मंगल नामक यूनिकोड हिन्दी फाँट से लैस होता है। कहने का आशय यह है कि आपके कंप्यूटर पर कम से कम एक यूनिकोड हिन्दी फाँट होना चाहिए। बेहतर हो कि आप के पास हो विंडोज एक्सपी या नवीनतम लिनक्स तथा ब्राउज़र हो इंटरनेट एक्सप्लोरर 6। एक बार यूनिकोड हिन्दी के लिए मशीन सेटअप हो जाने के उपरांत तो ब्लॉग लिखना ई-मेल लिखने जितना ही आसान है। एक खास बात यह कि हिंदी यूनिकोड सिर्फ विंडोज 2000 या एक्सपी या उसके बाद के संस्करणों तथा लिनक्स में 2003 के बाद वाले संस्करणों में ही क्रियाशील है ।
गूगल समूह की www.blogger.com का चयन हिंदी वालों के लिए ज्यादा सरल और पूर्ण हिंदी समर्थित वेबसाइट है । नयी शुरूआत करने वाले इसका चयन कर सकते हैं । ब्लॉग की शुरूआत करने के लिए सर्वप्रथम इस साइट पर जायें । अपना नाम यानी उपयोग कर्ता का नाम, अपने ब्लॉग का वांछित नाम, कूट शब्द (पासवर्ड) डालें । फिर दिये गये टेम्पलेट में से पसंदीदा टेम्पलेट का चयन करें । इसके तुरंत बाद आपको लेखन शुरू करने हेतु आपका अपना पेज आमंत्रण देने लगेगा । एक शीर्षक दीजिए और लिखते जाइये- लिखते जाइये । यहाँ आप अपनी सामग्री को विभिन्न रंगों, आकृतियों में वांछित चित्रों के साथ सजा सकते हैं । बस्स । काम पूरा हुआ तो संबंधित पृष्ठ को प्रकाशित कर दीजिए । जाने-अनजाने में कोई त्रुटि हो गया तो भी चिंता की दरकार नहीं, एडिट पर जाइये और संपादित करते हुए पुनः प्रकाशित कर दीजिए ।
जिन्हें माइक्रोसॉफ्ट का हिंदी आफिस या देवनागरी कुंजीपटल में काम करना आता है उन्हें हिंदी ब्लॉग रचने में कोई दिक्कत नहीं। वे अपनी सामग्री को कट-पेस्ट कर वहाँ सजा सकते हैं । परंतु जिनके पास विंडोज 98 या कोई अन्य पिछडा संस्करण वाला आपरेटिंग सिस्टम हैं उन्हें थोड़ी सी समस्या जरूर होगी । इंटरनेट या अंतरजाल पर हिंदी लेखन के लिए जरूरी है कि आप आई.एम.ई संस्करण 5 इस्तेमाल करें। इसमें गोदरेज से लेकर रेमिंगटन, इनस्क्रिप्ट, फ़ोनेटिक सभी तरह के कुंजी पट हैं। यदि आपके कंप्यूटर पर आपरेटिंग सिस्टम (ओ.एस) विंडोज 98 काम कर रहा है तो आपको तख्ती का उपयोग करना होगा । यह तख्ती बेहद आसान और फोनेटिक तंत्रांश है। जिसे आप सर्च कर आसानी से अपने मशीन पर डाउनलोड़ कर सकते हैं । परंतु इसमें आप केवल लिख सकते हैं । इसके सहारे आप अपने विंडोज 98 वाले कंप्यूटर में किसी ब्लाग को पढ नहीं सकते । इसके लिए आपको यूनिकोड़ मंगल फोंट्स डाउनलोड़ कर अपने कंप्यूटर में रखना होगा ।
वैसे ब्लागिंग की तकनीक में पारंगत होने के लिए अंतरजाल पर संचालित सर्वज्ञ नामक जाल स्थल पर लॉग ऑन कर सकते हैं जहाँ मुफ्त में ब्लांगिक की संपूर्ण प्रकिया से अवगत कराने वाली व्यवहारिक सामग्री हिंदी में है । तो तैयार हैं आप सामूहिक बोध से ऑनलाइन पत्रकारिता का नया संसार रचने के लिए ? यदि हाँ तो आपके जीवन में वह सुखद दिन भी आ सकता है जब आपको विश्व की सबसे बड़ी आईटी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट भाषा इंडिया और उसके जैसी अन्य विश्वव्यापी कंपनियों आदि से आपको आपकी ब्ल़ॉग को सर्वश्रेष्ठता के आधार पर पुरस्कृत करने के लिए ई-मेल भी प्राप्त हो ।
देखिए यहां हैं रेडियो कैसे-कैसे
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संजीव गुप्ता
इलेक्ट्रानिक मीडिया के सबसे सरल, सुलभ और सस्ते साधन के रूप में रेडियो की पहचान आज भी वैसी ही है, जैसे पहले हुआ करती थी। रेडियो इलेक्ट्रानिक मीडिया का सर्वाधिक लोकप्रिय साधन है। प्रौद्योगिकी के बढ़ते-बढ़ते आज रेडियो की तकनीक एवं स्वरूप में भी बहुत परिवर्तन हुआ है। आइये जानते हैं रेडियो के कैसे-कैसे रूप आज देखने-सुनने को उपलब्ध हैं।
1. हैम रेडियो : 1915 में वायरलैस टेलीग्राफी के समय अप्रशिक्षित, गैर प्रतिस्पर्धी आपरेटरों को हैम कहा जाता था। हैम संबोधन अपमान का सूचक था। नौसिखिए आपरेटरों को हैम नाम से व्यावसायिक वायरलेस सेवा प्रदाता आपरेटर पुकारते थे। 1920 के दौरान कुछ उत्साही नौसिखिए हैम शब्द को बड़े गर्व से अपने शौक को बताने के लिए करते थे। हैम शब्द की उत्पत्ति के संबंध में कुछ गलत भ्रांतियां भी हैं।
2. ए.एम. रेडियो : दुनिया में ए.एम. प्रसारण वर्ष 1920 के लगभग शुरू हुआ था। ए.एम. का अर्थ होता है एम्पलीटयूड माडयूलेशन इस तकनीक में रेडियो तंरगों के प्रसारण के दौरान कैरियर सिग्नल के एम्पलीटयूड को प्रसारित सिग्नल के एम्पलीटयूड के संदर्भ में परिवर्तित किया जाता है। शुरू में ए.एम. रेडियो स्टेशन ही होते थे। आकाशवाणी शार्ट वेब तथा मीडियम वेब द्वारा ए.एम. रेडियो का प्रसारण करता रहा है। ए.एम रेडियो तकनीक की खूबी है कि इसके सिग्नल को साधारण उपकरण भी टयून करके पकड़ सकता है अर्थात आवाज सुनी जा सकती है। इन साधारण रेडियो सेट्स में पॉवर की खपत भी नाम मात्र की होती है। ए.एम. प्रसारण वेब में 530 से 1700 केएचजेड फ्रीकेन्वसी के बीच होता है। जिस मानक प्रसारण बैंड कहा जाता है।
3. एफ.एम रेडियो : एफएम रेडियो का अविष्कार 1930 के आसपास एडबिन एच. आर्मस्ट्रांग ने किया था। ए.एम. रेडियो प्रसारण में अंर्तरोध की समस्या से निपटने के लिए एफएम रेडियो तकनीक का जन्म हुआ था। ए.एम. रेडियो प्रसारण विद्युतकीय तरंगों तड़ित तथा विद्युत चुंबकीय गतिरोधों से अत्याधिक प्रभावित होता है तथा रात्रि में इसके सिग्नल कमजोर होने की संभावना रहती है। जबकि एफ.एम. प्रसारण में इन दोनों समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं है। एफ.एम रेडियो में उच्च आवाज फिडेलिटी तथा स्टीरियो प्रसारण बहुत सामान्य बात है। एफ.एम. रेडियो प्रसारण फ्रीकेबन्सी 88 से 108 एमएचजेड है चूंकि एफ.एम. रेडियो फ्रीकेबेन्सी काफी उच्च है जो मेगाहर्ट्स में है जबकि ए.एम. रेडियो फ्रीकेबेन्सी किलोहर्टस में है, इसलिए जहां ए.एम. रेडियो के दो चैनलों के मध्य अंतर गैप 10 केएचजेड होता है, वहीं एफ.एम. रेडियो में न्यूनतम 200 केएचजेड है अर्थात 0.2 एमएचजेड होता है, जिससे दो चैनलों के मध्य अंर्तरोध की समस्या नगण्य हो जाती है, तथा दिन और रात के रेडियो प्रसारण में एक समान आवाज की स्पष्टता हो सकी। 1940 में न्यू इंग्लैंड में यानकी नेटवर्क से एफ.एम. रेडियो सेवा मूलत: आरंभ हुई। किंतु ए.एम. रेडियो प्रसारण को इससे कोई खतरा नहीं हुआ, क्योंकि इसके प्रसारण को सुनने के लिए विशेष उपकरण की आवश्यकता पड़ती थी। 1960 से 1970 तक ए.एम. रेडियो सेवा प्रदाता अपने कार्यक्रमों को एफ.एम रेडियो पर भी साथ-साथ प्रसारित करने लगे। सत्तर के दशक में एफसीसी द्वारा साथ साथ प्रसारण को रोका गया। तब एक ही रेडियो सेट में ए.एम. तथा एफएम सिग्नल को टयून करने की सुविधा वाले उपकरण उपलब्ध होना शुरू हुए धीरे-धीरे एफ.एम. रेडियो दुनिया के शहरों में लोकप्रिय होता रहा है, वहीं ए.एम. रेडियो गांवों में आज भी लोकप्रिय बना हुआ है।
4. सामुदायिक रेडियो : कम्युनिटी रेडियो या सामुदायिक रेडियो का सीधा अर्थ है कि यह स्थानीय स्तर पर किसी क्षेत्र विशेष की जरूरतों को पूरा करता है। ऐसे समुदाय या क्षेत्र की उपेक्षा सामान्यत: बड़े लोकप्रिय रेडियो प्रसारण द्वारा की जाती है वहां पर सामुदायिक रेडियो इस उपेक्षित क्षेत्र के श्रोताओं की स्थानीय भाषा और बोलियों में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। अमेरिका, कनाडा तथा आस्टे्रलिया जैसे देशों में सामुदायिक रेडयो गैर व्यावसायिक तथा बिना लाभ के उद्देश्यों के लिए शुरू किए गए। भारत में भी 1995 में माननीय उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय पर कि एयरबेब्स आर पब्लिक प्रापर्टी अर्थात हवाई तरंग जनता की संपत्ति है। इस निर्णय के बाद शैक्षणिक परिसरों में सामुदायिक रेडियो प्रसारण की प्रेरणा मिली।
5. सैटेलाइट रेडियो : उपग्रह की सहायता से रेडियो कार्यक्रमों को सुनना ही सैटेलाइट रेडियो है। सेटेलाइट रेडियो, संचार उपग्रह से प्रसारित सिग्नल ग्रहण करता है जो बहुत बड़े भू भाग को कव्हर करता है, जबकि भौगोलिक रेडियो सिग्नल स्टेशन सीमित भू भाग में ही प्रसारण करता है। इसको हम लंबी यात्रा के दौरान अपनी कार में बिना बार -बार टयून करें लगातार एक ही स्टेशन के प्रसारण को स्पष्ट रूप से सुन सकते हैं। जब हम विभिन्न शहरों से गुजरते हुए लंबी ट्रिप पर जाते हैं तो प्रत्येक 45 से 60 किलोमीटर बाद हमें अपने कार के रेडियो को टयून करना पड़ता था और बीच -बीच में सिग्नल भी कमजोर होता रहता था। किंतु सैटेलाइट रेडियो में इन मुसीबताेंे से छुटकारा मिल गया है। अब हम दुनिया के कोई भी रेडियो चैनल को जिसका प्रसारण उपग्रह की मदद से हो रहा है। सैटेलाइट रेडियो की मदद से आसानी से यात्रा के दौरान भी सुन सकते हैं।
सैटेलाइट रेडियो को डिजिटल रेडियो भी कहते हैं क्योंकि इसकी आवाज एकदम स्पष्ट बिना रूकावट के तथा सीडी गुणवत्ता वाली सुनाई पड़ती है। सैटेलाइट रेडियो को हम सब्सक्रिपशन रेडियो भी कहते हैं। क्योंकि इसको सुनने के लिए हमको वार्षिक फीस देनी होती है। भारत में बीपीएल तथा टाटा द्वारा सर्विस उपलब्ध की गई है। जिसका सबसक्रिप्शन चार्ज रू. 1800 प्रतिवर्ष लगभग है। उपग्रह रेडियो का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। वर्ष 1992 में एफसीसी ने एस बैंड पर राष्ट्रव्यापी प्रसारण उपग्रह आधारित डिजीटल आडियो रेडियो सर्विस डीएआरएस के लिए लायसेंस के ऑफर प्रस्तुत किए और 1997 में सिर्फ दो कंपनी सिरियस सैटेलाइट रेडियो तथा एक्स एम. सेटेलाइट रेडियो को लायसेंस दिये गए। बाद में तीसरी कंपनी बर्ल्डस्पेस को भी लायसेंस प्रदान किया गया जो यूरोप, एशिया तथा अफ्रीका में सेवा प्रदाता है।
6. डिजीटल रेडियो : डिजीटल रेडियो प्रसारण सेवा सर्वप्रथम यूरोप में शुरू हुई फिर इसके बाद यूनाइटेड स्टेटस में । यह सेवा यू.के. में 1995, जर्मनी में 1999 में आरंभ हुई। यूरोपियन सिस्टम में इसको डिजीटल ऑडियो ब्राडकास्टिंग नाम से तथा यूनाइटेड स्टेटस में एचडी रेडियो कहा जाता है ऐसा माना जाता है कि सन् 2015 से 2020 तक डिजीटल रेडियो कम से कम विकसित देशों में छा जाएगा।
7. स्काई रेडियो : रेडियो जब जमीन पर इतना लोकप्रिय हो चुका है तो भला आसमां में उड़ान भरते समय इसे कैसे भूल सकते हैं? हवाई जहाज यात्रियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दुनिया में स्काई रेडियो नेटवर्क की शुरूआत हुई। दुनिया की कुछ बड़ी एयरलाइन कंपनी जैसे अमेरिकन, डेल्टा, नार्थवेस्ट, यूएस एयर, यूनाइटेड तथा अमेरिका बेस्ट अपने हवाई यात्रियों को स्काई रेडियो का आनंद उपलब्ध करवा रही हैं। स्काई रेडियो का उद्देश्य होता है अपने एक्सीक्यूटिव वर्ग उच्च व्यवसाय वर्ग यात्रियो की हवाई यात्रा को लाभप्रद जानकारियों से युक्त मधुर अनुभव में बदलना। इसलिए स्काई रेडियो सर्विस व्यवसाय , प्रौद्योगिकी,स्वास्थ्य संगीत और मनोरंजन से भरपूर कार्यक्रम पेश करती हैं। जिसमें उच्च कंपनी के सीईओ के साक्षात्कार उद्योगों की खास बातें बिजनेस में नए-नए चलन तथा विशेष रूचि के मुद्दों पर लगातार 24 घंटे हफ्ते के सात दिन कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। इनके श्रोतागण होते हैं प्रतिवर्ष 09 लाख से ज्यादा हवाई उड़ानों के लगभग 18.5 करोड़ हवाई यात्री।
8. इंटरनेट रेडियो : इंटरनेट की मदद से आडियो प्रसारण करने वाली सेवा ही इंटरनेट रेडियो है। जिसको बेबकास्टिंग कहना ज्यादा उपयुक्त होगा क्योंकि हम इंटरनेट पर व्यापक रूप से तारों की सहायता से प्रसारण न करकेवर्ल्ड वाइड बेब पर आडियो सामग्री को डालते हैं। इंटरनेट रेडियो स्टेशन को हम दुनिया में कहीं से भी सुन सकते हैं। बस आपके पास इंटरनेट कनेक्शन होना चाहिए। इंटरनेट पर परंपरागत रेडियो के समान टयूनिंग करना संभव नहीं होता है। अत: हम विभिन्न रेडियो प्रसारणों को सर्च इंजन की सहायता से ढूंढते है इंटरनेट रेडियो पर शास्त्रीय संगीत,खेल, संवाद चौबीस घंटे हंसी मजाक के कार्यक्रम राक संगीत इत्यादि विविध रेडियो कार्यक्रम सुने जा सकते हैं।
लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि भोपाल के दृश्य-श्रव्य अध्ययन केंद्र मैं इलेक्ट्रानिक मीडिया पाठ्यक्रम के समन्वयक हैं ।
संजीव गुप्ता
इलेक्ट्रानिक मीडिया के सबसे सरल, सुलभ और सस्ते साधन के रूप में रेडियो की पहचान आज भी वैसी ही है, जैसे पहले हुआ करती थी। रेडियो इलेक्ट्रानिक मीडिया का सर्वाधिक लोकप्रिय साधन है। प्रौद्योगिकी के बढ़ते-बढ़ते आज रेडियो की तकनीक एवं स्वरूप में भी बहुत परिवर्तन हुआ है। आइये जानते हैं रेडियो के कैसे-कैसे रूप आज देखने-सुनने को उपलब्ध हैं।
1. हैम रेडियो : 1915 में वायरलैस टेलीग्राफी के समय अप्रशिक्षित, गैर प्रतिस्पर्धी आपरेटरों को हैम कहा जाता था। हैम संबोधन अपमान का सूचक था। नौसिखिए आपरेटरों को हैम नाम से व्यावसायिक वायरलेस सेवा प्रदाता आपरेटर पुकारते थे। 1920 के दौरान कुछ उत्साही नौसिखिए हैम शब्द को बड़े गर्व से अपने शौक को बताने के लिए करते थे। हैम शब्द की उत्पत्ति के संबंध में कुछ गलत भ्रांतियां भी हैं।
2. ए.एम. रेडियो : दुनिया में ए.एम. प्रसारण वर्ष 1920 के लगभग शुरू हुआ था। ए.एम. का अर्थ होता है एम्पलीटयूड माडयूलेशन इस तकनीक में रेडियो तंरगों के प्रसारण के दौरान कैरियर सिग्नल के एम्पलीटयूड को प्रसारित सिग्नल के एम्पलीटयूड के संदर्भ में परिवर्तित किया जाता है। शुरू में ए.एम. रेडियो स्टेशन ही होते थे। आकाशवाणी शार्ट वेब तथा मीडियम वेब द्वारा ए.एम. रेडियो का प्रसारण करता रहा है। ए.एम रेडियो तकनीक की खूबी है कि इसके सिग्नल को साधारण उपकरण भी टयून करके पकड़ सकता है अर्थात आवाज सुनी जा सकती है। इन साधारण रेडियो सेट्स में पॉवर की खपत भी नाम मात्र की होती है। ए.एम. प्रसारण वेब में 530 से 1700 केएचजेड फ्रीकेन्वसी के बीच होता है। जिस मानक प्रसारण बैंड कहा जाता है।
3. एफ.एम रेडियो : एफएम रेडियो का अविष्कार 1930 के आसपास एडबिन एच. आर्मस्ट्रांग ने किया था। ए.एम. रेडियो प्रसारण में अंर्तरोध की समस्या से निपटने के लिए एफएम रेडियो तकनीक का जन्म हुआ था। ए.एम. रेडियो प्रसारण विद्युतकीय तरंगों तड़ित तथा विद्युत चुंबकीय गतिरोधों से अत्याधिक प्रभावित होता है तथा रात्रि में इसके सिग्नल कमजोर होने की संभावना रहती है। जबकि एफ.एम. प्रसारण में इन दोनों समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं है। एफ.एम रेडियो में उच्च आवाज फिडेलिटी तथा स्टीरियो प्रसारण बहुत सामान्य बात है। एफ.एम. रेडियो प्रसारण फ्रीकेबन्सी 88 से 108 एमएचजेड है चूंकि एफ.एम. रेडियो फ्रीकेबेन्सी काफी उच्च है जो मेगाहर्ट्स में है जबकि ए.एम. रेडियो फ्रीकेबेन्सी किलोहर्टस में है, इसलिए जहां ए.एम. रेडियो के दो चैनलों के मध्य अंतर गैप 10 केएचजेड होता है, वहीं एफ.एम. रेडियो में न्यूनतम 200 केएचजेड है अर्थात 0.2 एमएचजेड होता है, जिससे दो चैनलों के मध्य अंर्तरोध की समस्या नगण्य हो जाती है, तथा दिन और रात के रेडियो प्रसारण में एक समान आवाज की स्पष्टता हो सकी। 1940 में न्यू इंग्लैंड में यानकी नेटवर्क से एफ.एम. रेडियो सेवा मूलत: आरंभ हुई। किंतु ए.एम. रेडियो प्रसारण को इससे कोई खतरा नहीं हुआ, क्योंकि इसके प्रसारण को सुनने के लिए विशेष उपकरण की आवश्यकता पड़ती थी। 1960 से 1970 तक ए.एम. रेडियो सेवा प्रदाता अपने कार्यक्रमों को एफ.एम रेडियो पर भी साथ-साथ प्रसारित करने लगे। सत्तर के दशक में एफसीसी द्वारा साथ साथ प्रसारण को रोका गया। तब एक ही रेडियो सेट में ए.एम. तथा एफएम सिग्नल को टयून करने की सुविधा वाले उपकरण उपलब्ध होना शुरू हुए धीरे-धीरे एफ.एम. रेडियो दुनिया के शहरों में लोकप्रिय होता रहा है, वहीं ए.एम. रेडियो गांवों में आज भी लोकप्रिय बना हुआ है।
4. सामुदायिक रेडियो : कम्युनिटी रेडियो या सामुदायिक रेडियो का सीधा अर्थ है कि यह स्थानीय स्तर पर किसी क्षेत्र विशेष की जरूरतों को पूरा करता है। ऐसे समुदाय या क्षेत्र की उपेक्षा सामान्यत: बड़े लोकप्रिय रेडियो प्रसारण द्वारा की जाती है वहां पर सामुदायिक रेडियो इस उपेक्षित क्षेत्र के श्रोताओं की स्थानीय भाषा और बोलियों में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। अमेरिका, कनाडा तथा आस्टे्रलिया जैसे देशों में सामुदायिक रेडयो गैर व्यावसायिक तथा बिना लाभ के उद्देश्यों के लिए शुरू किए गए। भारत में भी 1995 में माननीय उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय पर कि एयरबेब्स आर पब्लिक प्रापर्टी अर्थात हवाई तरंग जनता की संपत्ति है। इस निर्णय के बाद शैक्षणिक परिसरों में सामुदायिक रेडियो प्रसारण की प्रेरणा मिली।
5. सैटेलाइट रेडियो : उपग्रह की सहायता से रेडियो कार्यक्रमों को सुनना ही सैटेलाइट रेडियो है। सेटेलाइट रेडियो, संचार उपग्रह से प्रसारित सिग्नल ग्रहण करता है जो बहुत बड़े भू भाग को कव्हर करता है, जबकि भौगोलिक रेडियो सिग्नल स्टेशन सीमित भू भाग में ही प्रसारण करता है। इसको हम लंबी यात्रा के दौरान अपनी कार में बिना बार -बार टयून करें लगातार एक ही स्टेशन के प्रसारण को स्पष्ट रूप से सुन सकते हैं। जब हम विभिन्न शहरों से गुजरते हुए लंबी ट्रिप पर जाते हैं तो प्रत्येक 45 से 60 किलोमीटर बाद हमें अपने कार के रेडियो को टयून करना पड़ता था और बीच -बीच में सिग्नल भी कमजोर होता रहता था। किंतु सैटेलाइट रेडियो में इन मुसीबताेंे से छुटकारा मिल गया है। अब हम दुनिया के कोई भी रेडियो चैनल को जिसका प्रसारण उपग्रह की मदद से हो रहा है। सैटेलाइट रेडियो की मदद से आसानी से यात्रा के दौरान भी सुन सकते हैं।
सैटेलाइट रेडियो को डिजिटल रेडियो भी कहते हैं क्योंकि इसकी आवाज एकदम स्पष्ट बिना रूकावट के तथा सीडी गुणवत्ता वाली सुनाई पड़ती है। सैटेलाइट रेडियो को हम सब्सक्रिपशन रेडियो भी कहते हैं। क्योंकि इसको सुनने के लिए हमको वार्षिक फीस देनी होती है। भारत में बीपीएल तथा टाटा द्वारा सर्विस उपलब्ध की गई है। जिसका सबसक्रिप्शन चार्ज रू. 1800 प्रतिवर्ष लगभग है। उपग्रह रेडियो का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। वर्ष 1992 में एफसीसी ने एस बैंड पर राष्ट्रव्यापी प्रसारण उपग्रह आधारित डिजीटल आडियो रेडियो सर्विस डीएआरएस के लिए लायसेंस के ऑफर प्रस्तुत किए और 1997 में सिर्फ दो कंपनी सिरियस सैटेलाइट रेडियो तथा एक्स एम. सेटेलाइट रेडियो को लायसेंस दिये गए। बाद में तीसरी कंपनी बर्ल्डस्पेस को भी लायसेंस प्रदान किया गया जो यूरोप, एशिया तथा अफ्रीका में सेवा प्रदाता है।
6. डिजीटल रेडियो : डिजीटल रेडियो प्रसारण सेवा सर्वप्रथम यूरोप में शुरू हुई फिर इसके बाद यूनाइटेड स्टेटस में । यह सेवा यू.के. में 1995, जर्मनी में 1999 में आरंभ हुई। यूरोपियन सिस्टम में इसको डिजीटल ऑडियो ब्राडकास्टिंग नाम से तथा यूनाइटेड स्टेटस में एचडी रेडियो कहा जाता है ऐसा माना जाता है कि सन् 2015 से 2020 तक डिजीटल रेडियो कम से कम विकसित देशों में छा जाएगा।
7. स्काई रेडियो : रेडियो जब जमीन पर इतना लोकप्रिय हो चुका है तो भला आसमां में उड़ान भरते समय इसे कैसे भूल सकते हैं? हवाई जहाज यात्रियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दुनिया में स्काई रेडियो नेटवर्क की शुरूआत हुई। दुनिया की कुछ बड़ी एयरलाइन कंपनी जैसे अमेरिकन, डेल्टा, नार्थवेस्ट, यूएस एयर, यूनाइटेड तथा अमेरिका बेस्ट अपने हवाई यात्रियों को स्काई रेडियो का आनंद उपलब्ध करवा रही हैं। स्काई रेडियो का उद्देश्य होता है अपने एक्सीक्यूटिव वर्ग उच्च व्यवसाय वर्ग यात्रियो की हवाई यात्रा को लाभप्रद जानकारियों से युक्त मधुर अनुभव में बदलना। इसलिए स्काई रेडियो सर्विस व्यवसाय , प्रौद्योगिकी,स्वास्थ्य संगीत और मनोरंजन से भरपूर कार्यक्रम पेश करती हैं। जिसमें उच्च कंपनी के सीईओ के साक्षात्कार उद्योगों की खास बातें बिजनेस में नए-नए चलन तथा विशेष रूचि के मुद्दों पर लगातार 24 घंटे हफ्ते के सात दिन कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। इनके श्रोतागण होते हैं प्रतिवर्ष 09 लाख से ज्यादा हवाई उड़ानों के लगभग 18.5 करोड़ हवाई यात्री।
8. इंटरनेट रेडियो : इंटरनेट की मदद से आडियो प्रसारण करने वाली सेवा ही इंटरनेट रेडियो है। जिसको बेबकास्टिंग कहना ज्यादा उपयुक्त होगा क्योंकि हम इंटरनेट पर व्यापक रूप से तारों की सहायता से प्रसारण न करकेवर्ल्ड वाइड बेब पर आडियो सामग्री को डालते हैं। इंटरनेट रेडियो स्टेशन को हम दुनिया में कहीं से भी सुन सकते हैं। बस आपके पास इंटरनेट कनेक्शन होना चाहिए। इंटरनेट पर परंपरागत रेडियो के समान टयूनिंग करना संभव नहीं होता है। अत: हम विभिन्न रेडियो प्रसारणों को सर्च इंजन की सहायता से ढूंढते है इंटरनेट रेडियो पर शास्त्रीय संगीत,खेल, संवाद चौबीस घंटे हंसी मजाक के कार्यक्रम राक संगीत इत्यादि विविध रेडियो कार्यक्रम सुने जा सकते हैं।
लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि भोपाल के दृश्य-श्रव्य अध्ययन केंद्र मैं इलेक्ट्रानिक मीडिया पाठ्यक्रम के समन्वयक हैं ।
वर्तमान परिवेश में पत्रकारिता का लक्ष्य
डॉ. धीरेन्द्र पाठक
वर्तमान परिवेश में पत्रकारिता का लक्ष्य समझने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि पत्रकारिता क्या है? उसका लक्ष्य क्या है? पत्रकारिता का अंग्रेजी शाब्दिक अर्थ जर्नलिज्म (journalism) होता है, जो जर्नल शब्द से बनता है, जिसका मतलब दैनिक होता है। इससे स्पष्ट है कि दिन-प्रतिदिन की घटनाओं को सूचना के रूप में संकलित कर उसे पाठक के समक्ष संप्रेषित करने की कला एवं विज्ञान पत्रकारिता है अर्थात् विभिन्न स्त्रोतों से समाचारों एवं छायाचित्रों का संकलन, पाठकों की रूचियों के अनुसार समाचारों का संपादन, ज्वलंत मुद्दों पर संपादकीय विचार एवं आलेख से पाठकों का दिशा-दर्शन, पत्र का कलेवर नयनाभिराम बनाना, समय पर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करना पत्रकारिता है। पाठकों की रूचियां एवं दिशा-दर्शन में ही लक्ष्य का भाव पूरा निहित है। रूचियों का तात्पर्य थोपना नहीं है जैसा कि वर्तमान में लक्ष्य बनता जा रहा है, क्योंकि पत्रकारिता समाज का दर्पण है।
पत्रकारिता एक सेवा है जो जनमत के अंदर राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना जागृत करती है, जनमुख को वाणी प्रदान करती है। पत्रकारिता स्वतंत्रता, मानवीय संवेदनाएं, समानता एवं बन्धुत्व का भाव पैदा करने वाली एक प्रभावशाली विधा है। स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना की भूमि तैयार करने वाली पत्रकारिता आजादी के 60 वर्षों के बाद आर्थिक उदारीकरण, भूमण्डलीकरण के नाम पर नई सूचना प्रौद्योगिकी के सोपानों पर चढ़कर नए विश्व गांव का निर्माण कर रही है। वर्तमान में पत्रकारिता का अर्थ महज समाचार पत्र ही नहीं है। अब रेडियो, दूरदर्शन, केबल उपग्रहीय सभी माध्यम शामिल हो गए हैं और जर्नलिज्म मास मीडिया में बदल चुका है।
सूचना समाज को संचालित करती है। जैसी सूचनाएं संप्रेषित की जाएंगी, वैसा ही समाज निर्मित होगा। पश्चिमी उपनिवेशवाद साम्राज्यवादी संस्कृति ग्लोबल विलेज के नाम पर जो हमारे शयनकक्ष में परोसी जा रही है, उससे भारतीय मूल्य एवं परंपराओं का ह्रास हो रहा है। मनुष्य अमानवीय एवं संवेदनशून्य बन रहा है। यह संस्कृति संदेहवादी, अवसरवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है। इस संबंध में अमेरिका से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक विश्व विवेक के प्रधान संपादक डॉ. भूदेव शर्मा लिखते हैं कि पश्चिम के देशों में अच्छी सुख सुविधाएं और सभ्यता है मगर संस्कृति के नाम पर यहां है, स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा का सूत्र, संदेहवादी दृष्टिकोण, असहजता, असरलता का वातावरण, मोल-तोल के मूल्य और स्वाभाविक निष्ठुरता। यह स्थिति भारत की ही नहीं, बल्कि अनेक पूर्वी देशों से आए अप्रवासियों के जीवन का अभिशाप बन गया है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण माध्यमों द्वारा संप्रेषित धारावाहिकों, समाचारों और उसके विश्लेषणों में परिलक्षित हो रहा है। ब्राम्हणों, गुर्जरों के आरक्षण की मांग, अभिषेक-एश्वर्या की शादी, दाऊद, लादेन जैसे खूंखार आतंकवादियों, सरगनाओं का चेहरा, बाहुबली सांसद शहाबुद्दीन, विधायक मुख्तार अंसारी के कारनामों की कहानी या फिर छात्र नेता से डान बने बबलू श्रीवास्तव की पुस्तक की विश्लेषणात्मक सूचना जैसे चोरी, हत्या, दंगे-फसाद, चरित्र-हनन के चित्रों एवं दृश्यों से आपकी समाचारिक मीडिया भरी पड़ी है। यदि हम धारावाहिकों की चर्चा करें तो अधिकतर धारावाहिक राजसी ठाट-बाट परिवरों से जुड़े लोगों की कहानियों पर आधारित है। जहां शान-शौकत है, महंगी गाडियां, मोबाइल है, अच्छा खाना-पीना है लेकिन नहीं है तो आत्मीयता, बन्धुत्व, सहयोग एवं भारतीय मूल्य तथा परंपराएं। मीडिया वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास, तंत्र-मंत्र एवं रूढ़िवादी परंपराओं को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति में पीछे नहीं है।
प्रिंट मीडिया भी इलेक्ट्रानिक मीडिया का अंधानुकरण कर रही है। मोबाइल पर भूत की कहानी को स्थानीय समाचारपत्रों ने इतना महिमा मंडित किया कि जैसे ऐसा संभव है। लेकिन भविष्यवाणी, सत्तालोलुप राजनीति के समाचारों से प्रिंट मीडिया भी भरा रहता है। इस संबंध में पत्रकार पं. ईश्वरदेव मिश्र ने लिखा है कि मीडिया कि भूमिका आज उचित नहीं है। निहित स्वार्थ पूर्ति के लिए सूचनाओं को विकृत करके आधे-अधुरे रूप में प्रस्तुत कर, तिल को ताड़ और अप्रमाणित को प्रमाणित स्वरूप देकर जनसंचार माध्यम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। जिस प्रकार अभिव्यक्ति की आजादी का हमारे देश में धड़ल्ले से दुरूपयोग हो रहा है, इसी प्कार सूचना के क्षेत्र में दायित्वहीनता देश के लिए अनर्थकारी साबित हो रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया दोनों आदर्शच्युत होकर तथ्य के नाम पर नंगापन, वीभत्स और कुसंस्कार परोस रहे हैं। हम अपराधी और अपराधीकरण की बात तो बहुत करते हैं किन्तु इनकी करतुतों को किसी हीरो की करामातों के रूप में छापते हैं और हम उन्हें सम्मानित नागरिक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। हाल ही में प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक माध्यमों ने अबू सलेम-मोनिका बेदी के प्रंसग, मटुकनाथ से अपनी शिष्या की प्रेम कहानी जैसे ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किए, जिसने जनमानस के मन में सकारात्मक या नकारात्मक छवि निर्मित कर उन्हें हीरो बना डाला। पत्रकारिता का लक्ष्य इंसानियत की भावना पैदा करना, मानवता का संदेश देना, लोक संस्कृति और परंपराओं की पहचान बनाए रखना और भाषा के अस्तित्व को बचाएं रखना। यद्यपि भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां एकता में अनेकता है। अर्थात विभिन्न धर्म, जाति, भाषा के नागरिक एक साथ, एक छत के नीचे रहते हैं। अभी हाल में असम में बिहारियों की हत्या, बिहार में पूर्वोत्तर नागरिकों पर प्रहार, मुंबई में बिहारियों एवं अन्य राज्यों के नागरिकों को जिस तरह मीडिया परोस रही है जैसे उनके लिए यह एक उत्पाद है। इन सभी सूचनाओं में महज जातिगत, क्षेत्रवाद, धर्मवाद के विद्वेष की भावना को जागृत किया जा रहा है। इस तरह के संदेश किसी भी विकासशील राष्ट्र की प्रगति में सदैव घातक रहते हैं। वैमनस्यता की बयार को गति देते हैं, एकता को ध्वस्त कर देते हैं, अवसरवाद एवं कटुता की जड़ को मजबूत करते हैं।
राष्ट्रीयता की ध्वजावाहिका, स्वदेश प्रेम, मानव कल्याण एवं बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय की दृष्टिकोण को लेकर जन्मी पत्रकारिता आज कैसे दिग्भ्रमित हो गई। इस संबंध में भारतीय पत्रकारिता के लगभग सवा दो सौ वर्ष के इतिहास के सभी पक्षों का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि देश के प्रथम समाचारपत्र हिक्की गजट को संपादक ने अपने पत्र में राजनीतिक समाचारों को छापा वह भी नकरात्मक। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह था कि अन्याय के खिलाफ निर्भीकता और निष्पक्षता से लिखा, असत्य के आगे नहीं झुके, भले ही उन्हें यातनाएं सहनी पड़ी और उन्हें सब कुछ न्यौछावर करना पड़ा।
उसके बाद लगभग आजादी तक ब्रिटिश सरकार के चाटुकार पत्रों को छोड़कर भारतीयों द्वारा संपादित एवं प्रकाशित दैनिक भारत मित्र, राजस्थान समाचार, कलकत्ता समाचार, विश्वमित्र इत्यादि व्यावसायिक पत्रों का दृष्टिकोण पाठकोन्मुख था। सभी राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत थे, मालिकों की स्वार्थसाधना की वस्तु न थी और संपादकों को लेखन की पूरी स्वतंत्रता थी। तभी तो यह संभव हो सका। सत्य के उद्गाता, स्वतंत्रता के अनुष्ठाता, कर्तव्यपथ के अनवरत पथिक संपादकों की लेखनी ने हमें गुलामी से उभारा। चुनौती, प्रताड़ना और जेल यातना से जूझते हुए पत्रकारों एवं संपादकों ने पत्रकारिता को नई दिशा दी। पत्र संचालक अपने पत्र के संपादक को महत्व देते थे। संपादकाचार्य पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने लिखा है कि भारतमित्र व्यावसायिक होते हुए भी किसी स्वार्थसाधन हेतु नहीं निकलता था। फिर भी यह पहला हिन्दी समाचार पत्र था जिसमें संचालक मण्डल होता था। सन 1913 में भारत मित्र लिमिटेड कंपनी द्वारा चलाया जाता था। इस कंपनी में नामी-गिरामी उद्योगपति, व्यवसायी शामिल थे। स्वतंत्रता के कुछ वर्ष पूर्व ही पत्रकारिता ने व्यावसायिकता का रूप धारण करना शुरू कर दिया था और सनसनीखेज, अश्लीलता, आरोप-प्रत्यारोप के समाचारों का प्रकाशन शुरू हो गया था। इसके पीछे मूल कारण थे द्वितीय विश्वयुध्द बाद बढ़ती महंगाई, अखबारी कागजों के दामों में उछाल प्रतिस्पर्धा और विज्ञापन पाने की होड़ थी। पं. कमलापति त्रिपाठी ने लिखा है कि 1944 के आस-पास के दौर में हिन्दी पत्रकारिता से आदर्शवाद कम होने लगा था। कारण यह था कि अखबार छापना एक महंगा काल हो गया। विज्ञापन मिलने से फायदा हो सकता था, विज्ञापन उसी अखबार को मिलते थे जिसकी पाठक संख्या अधिक होती थी। पाठक संख्या बढ़ाने का आसान तरीका यही दिखता था कि पाठकों के मनोरंजन, सनसनी तथा जीवन की क्षुद्र लालसाओं को उत्तेजना प्रदान करने वाली बातों से पत्र के स्तंभ भरे जाएं। यहीं पाठकों को लालच व तरह-तरह के आकर्षण देकर फुसलाया भी जाने लगा। जनता का पथ प्रदर्शन करना राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों की गुत्थी सुलझाना तो पीछे ही छूट गया। इसके स्थान पर बिल्कुल उसके विपरीत कुचाल से वे ही पत्र जनता को पतन तथा भ्रष्टाचार की ओर ले जाने लगे। अदालत में मुकदमेबाजी, व्यभिचार के मामले, प्रेम लीलाएं किसी की बेटी-बहू का किसी के साथ भाग जाना, दुस्साहसपूर्ण डकैती, जासूसी वगैरह के मामलों तथा निराधार बातों को भी मिर्च-मसाला लगाकर छापना शुरू हो गया। पाठकों को भी ऐसे ही अखबार भाने लगे।
स्वाधीनता के बाद संवैधानिक तौर पर समाचार पत्रों को अनुच्छेद 19 (6) के अंतर्गत वृत्ति, उपजीविका एवं व्यापार का दर्जा दिया गया और प्रेस पर औद्योगिक संबंध, कर्मचारियों के वेतन, ग्रेच्युटी आदि की अदायगी से उन्मुक्ति नहीं दी गई एवं अन्य व्यापारिक संस्थानों की तरह कर भी लगाए गए। तकनीकी विकास, गुणात्मक, संख्यात्मक वृध्दि, गलाकाट स्पर्धा में प्रसार बनाए रखना एवं उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए धनार्जन करना पत्र स्वामियों का ध्येय बनता चला गया। जिससे पत्र की संपादकीय दृष्टि क्षीण होती गई और वित्तीय स्थिति सुदृढ़ हुई। इलेक्ट्रानिक माध्यमों में रेडियो का विस्तार हुआ। विविध भारती आया एफएम चैनल शुरू हुआ। दोनों ही विज्ञापन से होने वाले आय के मुख्य साधन है। 1959 में दूरदर्शन का श्रीगणेश हुआ और 1976 में विज्ञापन का प्रसारण आरंभ हुआ। 1982 में जन-जन तक पहुंचाने में दूरदर्शन का विस्तार किया गया। 1991 में उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण की पृष्ठभूमि तैयार की गई और उपग्रही चैनल रंग-बिरंगी तस्वीरों के साथ उपभोक्तावादी अपसंस्कृति हमारे देश में प्रवेश किया, क्योंकि इसके पूर्व दूरदर्शन द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमों में देश की सच्ची तस्वीरों को ही प्राथमिकता दी जाती थी। 1995 में इंटरनेट रूपी सूचनाओं का एक संजाल आया और फिर मिशन की पत्रकारिता जो प्रोफेशन बन गई थी उसे कामर्शियल बना दिया गया।
प्रोफेशनल और कामर्शियल में क्या अंतर है यह समझना आवश्यक है। व्यावसायिकता एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा है जो व्यापार के निर्धारित नैतिक मूल्यों एवं मापदंड के सहारे व्यापारी धनार्जन करता है, लेकिन कामर्शियल अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा है जहां कम से कम लागत, समय एवं घटिया सेवाएं देकर एवं मीठी-मीठी बातें करके ग्राहकों के मत्थे माल को मढ़ दिया जाता है। ग्राहक को लूटने में कोई संकोच या शर्म नहीं महसूस करता है बल्कि अपनी व्यापारिक बुध्दि पर खुश होता है। डॉ. अर्जुन तिवारी ने लिखा है कि मिशन (स्वतंत्रता हेतु समर्पित सेवा), एम्बीशन (राष्ट्र निर्माण की आकांक्षा) के पश्चात हिन्दी पत्रकारिता प्रोफेशन (व्यवसाय) कमीशन (अंशलाभ) तथा सेंसेक्स (तहलका) तक पहुंच चुकी है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के अंतर्गत पत्रकारिता को अभिव्यक्ति एवं वाक स्वतंत्रता प्रदान की गई। जिसका तात्पर्य राष्ट्र के शोषित वर्ग की पीड़ाओं के प्रतिबिम्ब को शासक वर्ग के समक्ष प्रस्तुत करना और शासक की नीतियों का सच्चा विश्लेषण कर जनमत को वाणी प्रदान करना है। जिससे राष्ट्र खुशहाल हो एवं विकास हो सके। सचमुच यह स्वतंत्रता पाठकों और संपादकों की है न कि मालिकों की। संपादक निडरता, निष्पक्षता से राष्ट्र की सच्ची तस्वीर पाठकों के समक्ष उपस्थित करे और जनमत कार्यपालिका एवं विधायिका के संबंध में अपना निर्णय ले सके। स्वामी ने पूंजी लगाई है तो धनार्जन उसका उद्देश्य है लेकिन पत्र के कर्तव्य एवं लक्ष्य पर हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। आज के युग में अब उलटा ही हो रहा है कि बैनेट एण्ड कोलमैन समूह के टाइम्स आफ इंडिया पत्र के प्रबंध निदेशक समीर जैन ने संपादक नाम की संख्या पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। उनकी मान्यता है कि अखबार की पृष्ठ संख्या, रूप साा और उसकी कीमत ही अधिक कारगर महत्व रखती है, संपादकीय सामग्री अधिक नहीं।
अखबार निकालने के लिए उनकी नजर में किसी खास किस्म की ट्रेनिंग या पेशागत प्रतिबध्दता की जरूरत भी नहीं है। प्रबंधकीय क्षमता वाला कोई भी व्यक्ति बेहतर संपादक की भूमिका भी बखूबी निभा सकता है। निश्चित तौर पर यह भयावह स्थिति है, मीडिया द्वारा एक विचारहीन समाज का निर्माण किया जा रहा है। न्यायमूर्ति पीवी सांवत का कहना है कि शासन संपादकों का नहीं प्रबंधकों का है। वर्षों से घोषित पत्रकारिता के मूल्य आज औंधे मुंह गिर रही है। इसका शिकार समाज हो रहा है और दांव पर उसका भविष्य है।
किसी भी लोकतांत्रिक समाज की व्यवस्था संचालन में मीडिया की शक्तिशाली भूमिका होती है। सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में पत्र-पत्रिकाएं जनता की पथ प्रदर्शक, शुभचिंतक एवं निस्वार्थी की भूमिका निर्वहन करती है। उनकी वास्तविक प्रकृति एवं गतिविधियां सामाजिक एवं राजनैतिक भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण एवं असमानता के विरूध्द होती है। प्रसिध्द विद्वान वेण्डले फिलिप ने लिखा है कि आज का समाचार पत्र एक बारगी जनवर्ग का माता-पिता, स्कूल-कालेज, शिक्षक, थियेटर, आदर्श, परामर्शदाता और साथी हो गया है।
किसी भी राष्ट्र का मूल आधार शिक्षा, स्वास्थ्य एवं गरीबी है। यदि राष्ट्र को खुशहाल रखना हो तो गरीबी खत्म हो, सभी साक्षर हों एवं सभी स्वस्थ हों। भारत गांवों का देश है और आज भी लगभग 64 प्रतिशत आबादी गांवों रहती है। उनके जीविकोपार्जन का साधन कृषि है। यह एक सत्य है कि आज भी हमारे देश में 35 प्रतिशत निरक्षर हैं। इसका दूसरा पहलू स्त्री-पुरूष साक्षरता दर में 29 प्रतिशत का है और शहरी ग्रामीण साक्षरता दर में 27 प्रतिशत का अंतर है। यह असमानता सर्वाधिक बिहार, झारखंड, राजस्थान जैसे हिन्दी भाषी राज्यों में देखी जा सकती है। स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाए तो प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा की मृत्यु दर भी लगभग 6 प्रतिशत है जिसमें सर्वाधिक ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। उसके पीछे कारण है 80 प्रतिशत प्रसव अप्रशिक्षित कर्मी से घर पर कराया जाना, बाल विवाह, समय से पूर्व गर्भाधान एवं शिशु प्रसव के वक्त उपस्थित गंदा वातावरण। वर्तमान में 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। जिसमें सर्वाधिक ग्रामीण क्षेत्रों के हैं।
वर्तमान में मीडिया अधिक प्रसार एवं विज्ञापन प्राप्त करने की होड़ में इस कदर फंस चुका है कि भारत का असली चेहरा कहां है, वह भूल चुका है। उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देकर विज्ञापनदाताओं को प्रत्यक्ष सहयोग प्रदान करना उसका ध्येय हो गया है। इससे क्या देश आने वाले दशक में विकसित राष्ट्रों में शामिल हो जाएगा? इस पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है।
भारत की आत्मा गांवों, झोपड़ बस्तियों में बसती है। मीडिया का दायित्व है कि उनकी उपेक्षा न करके समाज की मुख्य धारा में इन्हें भी जोड़ें। पश्चिमी सभ्यता के उपनिवेशवादी अप-संस्कृति के भंवरजाल में उलझी मीडिया को इससे निकलना होगा और राष्ट्र की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करनी होगी। नहीं तो आने वाला कल इसी मीडिया से प्रश्न करेगा कि यह किसका राष्ट्र है? गांधी जी का या फिर उन अंग्रेजों का जिन्होंने हमें गुलाम बना रखा था। मीडिया को अपना लक्ष्य बदलना होगा तभी हम गांधी की परिकल्पना खुशहाल राष्ट्र को साकार कर राम राज्य स्थापित कर सकते हैं।
वर्तमान परिवेश में पत्रकारिता का लक्ष्य समझने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि पत्रकारिता क्या है? उसका लक्ष्य क्या है? पत्रकारिता का अंग्रेजी शाब्दिक अर्थ जर्नलिज्म (journalism) होता है, जो जर्नल शब्द से बनता है, जिसका मतलब दैनिक होता है। इससे स्पष्ट है कि दिन-प्रतिदिन की घटनाओं को सूचना के रूप में संकलित कर उसे पाठक के समक्ष संप्रेषित करने की कला एवं विज्ञान पत्रकारिता है अर्थात् विभिन्न स्त्रोतों से समाचारों एवं छायाचित्रों का संकलन, पाठकों की रूचियों के अनुसार समाचारों का संपादन, ज्वलंत मुद्दों पर संपादकीय विचार एवं आलेख से पाठकों का दिशा-दर्शन, पत्र का कलेवर नयनाभिराम बनाना, समय पर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करना पत्रकारिता है। पाठकों की रूचियां एवं दिशा-दर्शन में ही लक्ष्य का भाव पूरा निहित है। रूचियों का तात्पर्य थोपना नहीं है जैसा कि वर्तमान में लक्ष्य बनता जा रहा है, क्योंकि पत्रकारिता समाज का दर्पण है।
पत्रकारिता एक सेवा है जो जनमत के अंदर राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना जागृत करती है, जनमुख को वाणी प्रदान करती है। पत्रकारिता स्वतंत्रता, मानवीय संवेदनाएं, समानता एवं बन्धुत्व का भाव पैदा करने वाली एक प्रभावशाली विधा है। स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना की भूमि तैयार करने वाली पत्रकारिता आजादी के 60 वर्षों के बाद आर्थिक उदारीकरण, भूमण्डलीकरण के नाम पर नई सूचना प्रौद्योगिकी के सोपानों पर चढ़कर नए विश्व गांव का निर्माण कर रही है। वर्तमान में पत्रकारिता का अर्थ महज समाचार पत्र ही नहीं है। अब रेडियो, दूरदर्शन, केबल उपग्रहीय सभी माध्यम शामिल हो गए हैं और जर्नलिज्म मास मीडिया में बदल चुका है।
सूचना समाज को संचालित करती है। जैसी सूचनाएं संप्रेषित की जाएंगी, वैसा ही समाज निर्मित होगा। पश्चिमी उपनिवेशवाद साम्राज्यवादी संस्कृति ग्लोबल विलेज के नाम पर जो हमारे शयनकक्ष में परोसी जा रही है, उससे भारतीय मूल्य एवं परंपराओं का ह्रास हो रहा है। मनुष्य अमानवीय एवं संवेदनशून्य बन रहा है। यह संस्कृति संदेहवादी, अवसरवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है। इस संबंध में अमेरिका से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक विश्व विवेक के प्रधान संपादक डॉ. भूदेव शर्मा लिखते हैं कि पश्चिम के देशों में अच्छी सुख सुविधाएं और सभ्यता है मगर संस्कृति के नाम पर यहां है, स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा का सूत्र, संदेहवादी दृष्टिकोण, असहजता, असरलता का वातावरण, मोल-तोल के मूल्य और स्वाभाविक निष्ठुरता। यह स्थिति भारत की ही नहीं, बल्कि अनेक पूर्वी देशों से आए अप्रवासियों के जीवन का अभिशाप बन गया है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण माध्यमों द्वारा संप्रेषित धारावाहिकों, समाचारों और उसके विश्लेषणों में परिलक्षित हो रहा है। ब्राम्हणों, गुर्जरों के आरक्षण की मांग, अभिषेक-एश्वर्या की शादी, दाऊद, लादेन जैसे खूंखार आतंकवादियों, सरगनाओं का चेहरा, बाहुबली सांसद शहाबुद्दीन, विधायक मुख्तार अंसारी के कारनामों की कहानी या फिर छात्र नेता से डान बने बबलू श्रीवास्तव की पुस्तक की विश्लेषणात्मक सूचना जैसे चोरी, हत्या, दंगे-फसाद, चरित्र-हनन के चित्रों एवं दृश्यों से आपकी समाचारिक मीडिया भरी पड़ी है। यदि हम धारावाहिकों की चर्चा करें तो अधिकतर धारावाहिक राजसी ठाट-बाट परिवरों से जुड़े लोगों की कहानियों पर आधारित है। जहां शान-शौकत है, महंगी गाडियां, मोबाइल है, अच्छा खाना-पीना है लेकिन नहीं है तो आत्मीयता, बन्धुत्व, सहयोग एवं भारतीय मूल्य तथा परंपराएं। मीडिया वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास, तंत्र-मंत्र एवं रूढ़िवादी परंपराओं को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति में पीछे नहीं है।
प्रिंट मीडिया भी इलेक्ट्रानिक मीडिया का अंधानुकरण कर रही है। मोबाइल पर भूत की कहानी को स्थानीय समाचारपत्रों ने इतना महिमा मंडित किया कि जैसे ऐसा संभव है। लेकिन भविष्यवाणी, सत्तालोलुप राजनीति के समाचारों से प्रिंट मीडिया भी भरा रहता है। इस संबंध में पत्रकार पं. ईश्वरदेव मिश्र ने लिखा है कि मीडिया कि भूमिका आज उचित नहीं है। निहित स्वार्थ पूर्ति के लिए सूचनाओं को विकृत करके आधे-अधुरे रूप में प्रस्तुत कर, तिल को ताड़ और अप्रमाणित को प्रमाणित स्वरूप देकर जनसंचार माध्यम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। जिस प्रकार अभिव्यक्ति की आजादी का हमारे देश में धड़ल्ले से दुरूपयोग हो रहा है, इसी प्कार सूचना के क्षेत्र में दायित्वहीनता देश के लिए अनर्थकारी साबित हो रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया दोनों आदर्शच्युत होकर तथ्य के नाम पर नंगापन, वीभत्स और कुसंस्कार परोस रहे हैं। हम अपराधी और अपराधीकरण की बात तो बहुत करते हैं किन्तु इनकी करतुतों को किसी हीरो की करामातों के रूप में छापते हैं और हम उन्हें सम्मानित नागरिक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। हाल ही में प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक माध्यमों ने अबू सलेम-मोनिका बेदी के प्रंसग, मटुकनाथ से अपनी शिष्या की प्रेम कहानी जैसे ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किए, जिसने जनमानस के मन में सकारात्मक या नकारात्मक छवि निर्मित कर उन्हें हीरो बना डाला। पत्रकारिता का लक्ष्य इंसानियत की भावना पैदा करना, मानवता का संदेश देना, लोक संस्कृति और परंपराओं की पहचान बनाए रखना और भाषा के अस्तित्व को बचाएं रखना। यद्यपि भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां एकता में अनेकता है। अर्थात विभिन्न धर्म, जाति, भाषा के नागरिक एक साथ, एक छत के नीचे रहते हैं। अभी हाल में असम में बिहारियों की हत्या, बिहार में पूर्वोत्तर नागरिकों पर प्रहार, मुंबई में बिहारियों एवं अन्य राज्यों के नागरिकों को जिस तरह मीडिया परोस रही है जैसे उनके लिए यह एक उत्पाद है। इन सभी सूचनाओं में महज जातिगत, क्षेत्रवाद, धर्मवाद के विद्वेष की भावना को जागृत किया जा रहा है। इस तरह के संदेश किसी भी विकासशील राष्ट्र की प्रगति में सदैव घातक रहते हैं। वैमनस्यता की बयार को गति देते हैं, एकता को ध्वस्त कर देते हैं, अवसरवाद एवं कटुता की जड़ को मजबूत करते हैं।
राष्ट्रीयता की ध्वजावाहिका, स्वदेश प्रेम, मानव कल्याण एवं बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय की दृष्टिकोण को लेकर जन्मी पत्रकारिता आज कैसे दिग्भ्रमित हो गई। इस संबंध में भारतीय पत्रकारिता के लगभग सवा दो सौ वर्ष के इतिहास के सभी पक्षों का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि देश के प्रथम समाचारपत्र हिक्की गजट को संपादक ने अपने पत्र में राजनीतिक समाचारों को छापा वह भी नकरात्मक। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह था कि अन्याय के खिलाफ निर्भीकता और निष्पक्षता से लिखा, असत्य के आगे नहीं झुके, भले ही उन्हें यातनाएं सहनी पड़ी और उन्हें सब कुछ न्यौछावर करना पड़ा।
उसके बाद लगभग आजादी तक ब्रिटिश सरकार के चाटुकार पत्रों को छोड़कर भारतीयों द्वारा संपादित एवं प्रकाशित दैनिक भारत मित्र, राजस्थान समाचार, कलकत्ता समाचार, विश्वमित्र इत्यादि व्यावसायिक पत्रों का दृष्टिकोण पाठकोन्मुख था। सभी राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत थे, मालिकों की स्वार्थसाधना की वस्तु न थी और संपादकों को लेखन की पूरी स्वतंत्रता थी। तभी तो यह संभव हो सका। सत्य के उद्गाता, स्वतंत्रता के अनुष्ठाता, कर्तव्यपथ के अनवरत पथिक संपादकों की लेखनी ने हमें गुलामी से उभारा। चुनौती, प्रताड़ना और जेल यातना से जूझते हुए पत्रकारों एवं संपादकों ने पत्रकारिता को नई दिशा दी। पत्र संचालक अपने पत्र के संपादक को महत्व देते थे। संपादकाचार्य पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने लिखा है कि भारतमित्र व्यावसायिक होते हुए भी किसी स्वार्थसाधन हेतु नहीं निकलता था। फिर भी यह पहला हिन्दी समाचार पत्र था जिसमें संचालक मण्डल होता था। सन 1913 में भारत मित्र लिमिटेड कंपनी द्वारा चलाया जाता था। इस कंपनी में नामी-गिरामी उद्योगपति, व्यवसायी शामिल थे। स्वतंत्रता के कुछ वर्ष पूर्व ही पत्रकारिता ने व्यावसायिकता का रूप धारण करना शुरू कर दिया था और सनसनीखेज, अश्लीलता, आरोप-प्रत्यारोप के समाचारों का प्रकाशन शुरू हो गया था। इसके पीछे मूल कारण थे द्वितीय विश्वयुध्द बाद बढ़ती महंगाई, अखबारी कागजों के दामों में उछाल प्रतिस्पर्धा और विज्ञापन पाने की होड़ थी। पं. कमलापति त्रिपाठी ने लिखा है कि 1944 के आस-पास के दौर में हिन्दी पत्रकारिता से आदर्शवाद कम होने लगा था। कारण यह था कि अखबार छापना एक महंगा काल हो गया। विज्ञापन मिलने से फायदा हो सकता था, विज्ञापन उसी अखबार को मिलते थे जिसकी पाठक संख्या अधिक होती थी। पाठक संख्या बढ़ाने का आसान तरीका यही दिखता था कि पाठकों के मनोरंजन, सनसनी तथा जीवन की क्षुद्र लालसाओं को उत्तेजना प्रदान करने वाली बातों से पत्र के स्तंभ भरे जाएं। यहीं पाठकों को लालच व तरह-तरह के आकर्षण देकर फुसलाया भी जाने लगा। जनता का पथ प्रदर्शन करना राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों की गुत्थी सुलझाना तो पीछे ही छूट गया। इसके स्थान पर बिल्कुल उसके विपरीत कुचाल से वे ही पत्र जनता को पतन तथा भ्रष्टाचार की ओर ले जाने लगे। अदालत में मुकदमेबाजी, व्यभिचार के मामले, प्रेम लीलाएं किसी की बेटी-बहू का किसी के साथ भाग जाना, दुस्साहसपूर्ण डकैती, जासूसी वगैरह के मामलों तथा निराधार बातों को भी मिर्च-मसाला लगाकर छापना शुरू हो गया। पाठकों को भी ऐसे ही अखबार भाने लगे।
स्वाधीनता के बाद संवैधानिक तौर पर समाचार पत्रों को अनुच्छेद 19 (6) के अंतर्गत वृत्ति, उपजीविका एवं व्यापार का दर्जा दिया गया और प्रेस पर औद्योगिक संबंध, कर्मचारियों के वेतन, ग्रेच्युटी आदि की अदायगी से उन्मुक्ति नहीं दी गई एवं अन्य व्यापारिक संस्थानों की तरह कर भी लगाए गए। तकनीकी विकास, गुणात्मक, संख्यात्मक वृध्दि, गलाकाट स्पर्धा में प्रसार बनाए रखना एवं उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए धनार्जन करना पत्र स्वामियों का ध्येय बनता चला गया। जिससे पत्र की संपादकीय दृष्टि क्षीण होती गई और वित्तीय स्थिति सुदृढ़ हुई। इलेक्ट्रानिक माध्यमों में रेडियो का विस्तार हुआ। विविध भारती आया एफएम चैनल शुरू हुआ। दोनों ही विज्ञापन से होने वाले आय के मुख्य साधन है। 1959 में दूरदर्शन का श्रीगणेश हुआ और 1976 में विज्ञापन का प्रसारण आरंभ हुआ। 1982 में जन-जन तक पहुंचाने में दूरदर्शन का विस्तार किया गया। 1991 में उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण की पृष्ठभूमि तैयार की गई और उपग्रही चैनल रंग-बिरंगी तस्वीरों के साथ उपभोक्तावादी अपसंस्कृति हमारे देश में प्रवेश किया, क्योंकि इसके पूर्व दूरदर्शन द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमों में देश की सच्ची तस्वीरों को ही प्राथमिकता दी जाती थी। 1995 में इंटरनेट रूपी सूचनाओं का एक संजाल आया और फिर मिशन की पत्रकारिता जो प्रोफेशन बन गई थी उसे कामर्शियल बना दिया गया।
प्रोफेशनल और कामर्शियल में क्या अंतर है यह समझना आवश्यक है। व्यावसायिकता एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा है जो व्यापार के निर्धारित नैतिक मूल्यों एवं मापदंड के सहारे व्यापारी धनार्जन करता है, लेकिन कामर्शियल अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा है जहां कम से कम लागत, समय एवं घटिया सेवाएं देकर एवं मीठी-मीठी बातें करके ग्राहकों के मत्थे माल को मढ़ दिया जाता है। ग्राहक को लूटने में कोई संकोच या शर्म नहीं महसूस करता है बल्कि अपनी व्यापारिक बुध्दि पर खुश होता है। डॉ. अर्जुन तिवारी ने लिखा है कि मिशन (स्वतंत्रता हेतु समर्पित सेवा), एम्बीशन (राष्ट्र निर्माण की आकांक्षा) के पश्चात हिन्दी पत्रकारिता प्रोफेशन (व्यवसाय) कमीशन (अंशलाभ) तथा सेंसेक्स (तहलका) तक पहुंच चुकी है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के अंतर्गत पत्रकारिता को अभिव्यक्ति एवं वाक स्वतंत्रता प्रदान की गई। जिसका तात्पर्य राष्ट्र के शोषित वर्ग की पीड़ाओं के प्रतिबिम्ब को शासक वर्ग के समक्ष प्रस्तुत करना और शासक की नीतियों का सच्चा विश्लेषण कर जनमत को वाणी प्रदान करना है। जिससे राष्ट्र खुशहाल हो एवं विकास हो सके। सचमुच यह स्वतंत्रता पाठकों और संपादकों की है न कि मालिकों की। संपादक निडरता, निष्पक्षता से राष्ट्र की सच्ची तस्वीर पाठकों के समक्ष उपस्थित करे और जनमत कार्यपालिका एवं विधायिका के संबंध में अपना निर्णय ले सके। स्वामी ने पूंजी लगाई है तो धनार्जन उसका उद्देश्य है लेकिन पत्र के कर्तव्य एवं लक्ष्य पर हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। आज के युग में अब उलटा ही हो रहा है कि बैनेट एण्ड कोलमैन समूह के टाइम्स आफ इंडिया पत्र के प्रबंध निदेशक समीर जैन ने संपादक नाम की संख्या पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। उनकी मान्यता है कि अखबार की पृष्ठ संख्या, रूप साा और उसकी कीमत ही अधिक कारगर महत्व रखती है, संपादकीय सामग्री अधिक नहीं।
अखबार निकालने के लिए उनकी नजर में किसी खास किस्म की ट्रेनिंग या पेशागत प्रतिबध्दता की जरूरत भी नहीं है। प्रबंधकीय क्षमता वाला कोई भी व्यक्ति बेहतर संपादक की भूमिका भी बखूबी निभा सकता है। निश्चित तौर पर यह भयावह स्थिति है, मीडिया द्वारा एक विचारहीन समाज का निर्माण किया जा रहा है। न्यायमूर्ति पीवी सांवत का कहना है कि शासन संपादकों का नहीं प्रबंधकों का है। वर्षों से घोषित पत्रकारिता के मूल्य आज औंधे मुंह गिर रही है। इसका शिकार समाज हो रहा है और दांव पर उसका भविष्य है।
किसी भी लोकतांत्रिक समाज की व्यवस्था संचालन में मीडिया की शक्तिशाली भूमिका होती है। सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में पत्र-पत्रिकाएं जनता की पथ प्रदर्शक, शुभचिंतक एवं निस्वार्थी की भूमिका निर्वहन करती है। उनकी वास्तविक प्रकृति एवं गतिविधियां सामाजिक एवं राजनैतिक भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण एवं असमानता के विरूध्द होती है। प्रसिध्द विद्वान वेण्डले फिलिप ने लिखा है कि आज का समाचार पत्र एक बारगी जनवर्ग का माता-पिता, स्कूल-कालेज, शिक्षक, थियेटर, आदर्श, परामर्शदाता और साथी हो गया है।
किसी भी राष्ट्र का मूल आधार शिक्षा, स्वास्थ्य एवं गरीबी है। यदि राष्ट्र को खुशहाल रखना हो तो गरीबी खत्म हो, सभी साक्षर हों एवं सभी स्वस्थ हों। भारत गांवों का देश है और आज भी लगभग 64 प्रतिशत आबादी गांवों रहती है। उनके जीविकोपार्जन का साधन कृषि है। यह एक सत्य है कि आज भी हमारे देश में 35 प्रतिशत निरक्षर हैं। इसका दूसरा पहलू स्त्री-पुरूष साक्षरता दर में 29 प्रतिशत का है और शहरी ग्रामीण साक्षरता दर में 27 प्रतिशत का अंतर है। यह असमानता सर्वाधिक बिहार, झारखंड, राजस्थान जैसे हिन्दी भाषी राज्यों में देखी जा सकती है। स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाए तो प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा की मृत्यु दर भी लगभग 6 प्रतिशत है जिसमें सर्वाधिक ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। उसके पीछे कारण है 80 प्रतिशत प्रसव अप्रशिक्षित कर्मी से घर पर कराया जाना, बाल विवाह, समय से पूर्व गर्भाधान एवं शिशु प्रसव के वक्त उपस्थित गंदा वातावरण। वर्तमान में 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। जिसमें सर्वाधिक ग्रामीण क्षेत्रों के हैं।
वर्तमान में मीडिया अधिक प्रसार एवं विज्ञापन प्राप्त करने की होड़ में इस कदर फंस चुका है कि भारत का असली चेहरा कहां है, वह भूल चुका है। उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देकर विज्ञापनदाताओं को प्रत्यक्ष सहयोग प्रदान करना उसका ध्येय हो गया है। इससे क्या देश आने वाले दशक में विकसित राष्ट्रों में शामिल हो जाएगा? इस पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है।
भारत की आत्मा गांवों, झोपड़ बस्तियों में बसती है। मीडिया का दायित्व है कि उनकी उपेक्षा न करके समाज की मुख्य धारा में इन्हें भी जोड़ें। पश्चिमी सभ्यता के उपनिवेशवादी अप-संस्कृति के भंवरजाल में उलझी मीडिया को इससे निकलना होगा और राष्ट्र की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करनी होगी। नहीं तो आने वाला कल इसी मीडिया से प्रश्न करेगा कि यह किसका राष्ट्र है? गांधी जी का या फिर उन अंग्रेजों का जिन्होंने हमें गुलाम बना रखा था। मीडिया को अपना लक्ष्य बदलना होगा तभी हम गांधी की परिकल्पना खुशहाल राष्ट्र को साकार कर राम राज्य स्थापित कर सकते हैं।
वेब पोर्टलःसमाचार लेखन एवं प्रस्तुति
विजय कुलश्रेष्ठ
सूचना क्रांति के इस युग में वेब पत्रकारिता का नवीनतम अध्याय खुल गया है और समाचार प्रसारण की तीव्रता तीन सौ प्रतिशत तक बढ़ गई है। वेब पोर्टल के लिए मुद्रित माध्यम (समाचार पत्र) से कहीं अधिक तत्परता, चपलता और सजगता की आवश्यकता होती है। आज मुद्रित माध्यम की पत्रकारिता ने अपनी-अपनी वेबसाइट इसीलिए प्रारंभ की है कि प्रतिस्पर्धा की दौड़ में पीछे न रह जाएं। वेब पत्रकारिता के क्षेत्र में पोर्टल सेवा ने ऐसा राजस्व तैयार किया है जो बहुत ही सजगता, सक्रियता और तत्पतरा से समाचारों का अद्यतनीकरण करके अपने दश्रोपा (दर्शक-श्रोता-पाठक) को अपनी तीव्रगामी समाचार सेवाएं उपलब्ध कराता है।
वेब पोर्टल की तैयारी में प्राय: निम्नांकित बातों का ध्यान रखना होता है :-
1. दश्रोपा से क्या अपेक्षा है?
2. दश्रोपा की रुचि का पोर्टल में स्थान रखना है?
3. क्या मुख्य वेब पेज पर 'टिफ' और जीपीजी फाइलें या इमेज का प्रयोग किया जाए?
4. क्या इसके लिए प्रोफेशनल लेखकों की सेवाएं ली जाएं?
उक्त चार प्रश्नों का उत्तर पोर्टल निर्माता को पोर्टल की विषयवस्तु प्रबंधन (कंटेंट मैनेजमेंट) की व्यवस्था में देना होता है कि -
अ. स्तरीय विषयवस्तु क्या है और उसका कितना विस्तार है।
आ. समाचारों का निरंतर अद्यतनीकरण।
इ. दश्रोपा की अपेक्षाओं के प्रति दायित्व-बोध।
ई. ऑन लाइन सेवाओं का विस्तार।
उ. संचार माध्यमों का समन्वयन।
ऊ. पोर्टल की पृष्ठ साा।
उक्त बिंदुओं पर विचार करते हुए पोर्टल प्रबंधक एवं संपादक का दायित्व बढ़ जाता है और तीव्रगति बनाए रखकर समाचार के छ:ककारों के चिंतन को विजुअल्स के साथ अन्य स्पर्धी पोर्टल के साथ प्रबंधकीय क्षमता के साथ दश्रोपा को उपलब्ध कराना होता है। नेट पर समाचारों का तीव्रतम प्रवाह ही वेब पत्रकार की तथा वेब पोर्टल के संपादन की कसौटी है क्योंकि समाचारों का जिस गति से अद्यतनीकरण किया जाएगा, वहीं साइट सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानी जाएगी। ब्लाग आज आन लाइन पत्रिका की तरह ही है। ब्लाक लेखन प्राय: दो प्रकार का होता है। ब्लाग लेखन सजग प्रहरी का काम भी करता है। यद्यपि समाचार लेखन की प्रणाली अभी भी मुद्रित माध्यम के लिए जो प्रयोग में आती थी, वही है, इतना अंतर अवश्य आया है कि पहले संवाददाता द्वारा समाचार किसी भी साधन का प्रयोग कर समाचार कक्ष या समाचार डेस्क तक पहुंचा दिए जाते थे। अंतिम रूप से समाचार का पुनर्लेखन रीराइटमैन से कराया जाता था। अब यही काम कंप्यूटर से होता है। क्षेत्र से समाचार चयन कर संवाददाता अपने कंप्यूटर पर छोड़ देता है और मॉडम सिस्टम या ई-मेल द्वारा वह समाचार मुख्यालय में प्राप्त कर लिया जाता है तथा आवश्यकतानुसार तथा उपलब्ध स्थान के आधार पर उसका पुनर्लेखन कर लिया जाता है।
वर्तमान समय में हिंदी एवं अन्य क्षेत्रीय समाचार पत्रों के ऑनलाइन संस्करणों में जो समाचार दिए जाते हैं, उसमें से लगभग 85 प्रतिशत समाचार मुद्रित माध्यम से गृहीत होते हैं क्योंकि समाचार पत्र के लिए जो समाचार बनता है, लगभग वही ऑनलाइन कर दिया जाता है। यद्यपि यह व्यवस्था उपयुक्त नहीं है। पर हमारे देश में सभी कुछ आराम से बिना किसी स्पर्धा के चलता रहा है। यह भी संभव है कि पोर्टल पर जो समाचार कल अद्यतनीकृत किया गया था, उसे आज छुआ ही नहीं गया हो और कल तक वह साइट पर बना रह सकता है।
वेब पत्रकारिता में जो समाचार एक बार डेस्क से आगे बढ़ा दिया जाता है, उस एक निश्चित समय के बाद रिचैक किया जाता है। शीर्षक या कैपशन बदला जाता है। समाचार का पुन: संपादन भी होता है। लेकिन उससे पहले समाचार लेखन भी तो अनिवार्य प्रक्रिया का अंग है। इसलिए जब एक साइट मूल रूप से अनिवार्यत: रूटीन समाचारों और फीचर से बनाई जाती है उसके लिए कुछ अनिवार्यताओं का निर्धारण भी होता है। वर्तमान सूचना क्रांति के इस युग में मोबाइल पर एसएमएस भेजकर और पढ़कर ही समाचार प्राप्त कर लिए जाते हैं तो पारंपरिक पत्रों और उससे संबंधित प्रक्रियाओं से गुजरने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की जाती है।
स्वतंत्र वेबसाइट पर जाने वाले रूटीन समाचारों में समाचार और फीचर परक तत्वों वाले समाचारों की अधिकता होती है। किसी समाचार को अधिक रोचक रूप से वेब साइट पर ले जाने के लिए उसे 'स्टोरी' के रूप में ही ग्रहण किया जाता है और उसको उसी रूप में तैयार किया जाता है। कथा या स्टोरी निर्माण की प्रक्रियाओं से गुजरते हुए वेब पत्रकार को निम्ांकित रेखांकन पर ध्यान देना अनिवार्य होता है।
समाचार कथा का निर्धारण हो जाने पर उसे विशिष्टता प्रदान करने के लिए लीक से हटकर रोचक, कौतूहलपूर्ण, उत्सुकता विस्तारक और आश्चर्ययुक्त बनाना अनिवार्य हो जाता है। इसी दृष्टि से रिपोर्टर और संपादक की भूमिका क्रमश: महत्वपूर्ण हो जाती है। रिपोर्टर या संवाददाता का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने संपादक के पास विचारपूर्ण, सारगर्भित, उद्देश्यपूर्ण एवं विस्तृत समाचार कथा का प्रस्ताव भेजे पर वह कभी भ्रम न पाले कि उसकी समाचार कथा आंख बंद करके संपादक स्वीकार कर ही लेगा। यद्यपि उस समाचार कथा का आइडिया उसी का हो और उसे विकसित करने का परामर्श भी उसी का हो सकता है।
वेब रिपोर्टर के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं :-
1. संपादक के समक्ष लिखित प्रस्ताव दिया जाए।
2. प्रस्तुति प्रासंगिक एवं समयानुकूल कथा युक्त हो।
3. अपनी कथा की उपयोगिता सिध्द करा सके।
4. कथा का आइडिया या विचार या थीम संपादक को प्रस्तुत कर कवरेज का विचार एवं बिंदु स्पष्ट किया जाए।
5. दश्रोपा के लिए वैसी कथा का महत्व क्या है?
6. प्रतिस्पर्धी साइट्स की तुलना में अपना कथा की महत्ता विशेष का केन्द्रीकरण किया जाए।
7. महत्व का मुद्दा- राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, प्रांतीय या स्थायी स्पष्ट किया जाए।
8. बीती घटना की सार्थकता नहीं होती, फीचर की सार्थकता बनी रहती है।
9. कथा से संबंधित छायाचित्र, ग्राफिक्स, फिल्म स्ट्रिप्स आदि का संकेत भी पहले ही दिया जाए।
10. कथा प्रस्तुति समयबध्द (टाइम बाउण्ड) एवं उचित व गहन शोध से उद्भुत होना चाहिए।
समाचार का शीर्षक:
वेब पत्रकार द्वारा यह अनिवार्य नहीं है कि वह शीर्षक लगाए ही। इसमें संदेह भी नहीं है कि समाचार या समाचार कथा में शीर्षक का स्थान विशेष होता है। वेबसाइट पर समाचार का शीर्षक मुद्रित माध्यम के अनुरूप नहीं होता। उसे समाचार कथा विशेष के अनुरूप विशेष दशा, समय, विस्तार और व्याख्यापरक होना चाहिए। कभी-कभी उपशीर्षक देना भी अनिवार्य हो जाता है। व्यावहारिक रूप में वेब पत्रकार के लिए समाचार का शीर्षक, उप-शीर्षक, समाचार शिल्प कौशल का परिचायक होता है। वेब पत्रकार को यह ध्यान रख्ना भी बहुत आवश्यक है-
1. शीर्षक तात्कालिक हो- प्रतिभा पाटिल
का इस्तीफा।
2. कथा के मूल तथ्यों से युक्त शीर्षक।
3. सरल भाषा में निर्मित शीर्षक।
4. आमंत्रक एवं आकर्षक।
5. कथा आदि एवं अंत का परिचायक।
6. कथा की भावनाओं का प्रत्यक्षीकरण।
7. शैली वार्तालाप की हो।
8. अलंकारिक शैली से युक्त हो।
इसका कारण स्पष्टत: यह है कि पोर्टल पर समाचार निरंतर अद्यतन होता रहे। इससे नेट पर कोई भी समाचार साइट में इंटर टैक्स्ट और हाईपर टैक्स्ट पैदा होती रहती है।
वास्तव में हिंदी में वेब पोर्टल पर काम हाल की देन है। आन लाइन समाचार के रूप में पोर्टल दो प्रकार से कार्यरत रहे हैं- एक वे हैं जो किसी न किसी समाचार पत्र समूह या पत्रिका संस्थान से संबंधित हैं या उनके द्वारा स्वतंत्र रूप से संचालित हैं। ऐसे पोर्टल प्राय: अपनी अधिसंख्या विषय सामग्री अपने ही समाचार पत्र से ही लेते हैं और जो शेष सामग्री है, उसके लिए लेखन, संकलन एवं संपादन का दायित्व स्वयं उठाते हैं। यद्यपि जो सामग्री अपने ही पत्र से उठाते हैं, उसकी प्रस्तुति में भिन्नता होती है। उसके बिना वे ज्यों का त्यों पोर्टल पर नहीं ले सकते। दोनों की प्रविष्टियां भिन्न हैं। अत: पोर्टल के लिए संपादन की आवश्यकता हो जाती है।
वेब पोर्टल के क्षेत्र में ऐसे पोर्टल हैं जो किसी पत्र समूह के सहकारी न होकर स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं। ऐसे पोर्टल अपनी सामग्री स्वयं ही तैयार करते हैं जिसमें समाचार संकलन, समाचार लेखन और अपने पोर्टल के अनुरूप संपादन कार्य स्वयं करते हैं। लेकिन यह भी संभव है कि वे अपनी सामग्री इसी क्षेत्र में कार्यरत किसी अन्य पोर्टल से प्राप्त कर लें। स्वतंत्र रूप से कार्य करते हुए उन्हें कुछ अधिक श्रम करना होता है अन्यथा दूसरे पोर्टल से वे सामग्री क्रय भी कर लेते हैं। हिंदी क्षेत्र में ऐसे पोर्टल्स कार्यरत हैं- हिंदी डॉट काम, सिफी डॉट काम (सत्यम), रीडिफ डॉट काम, हिंदी डॉट काम (रीडिफ) हैं। इंडिया डॉट काम (इंडिया), नेट जाल डॉट काम भी हैं। ये पोर्टल्स केवल नेट के लिए तैयार किए जाते हैं तथा उनके मुद्रित संस्करण या दैनिक समाचार पत्र नहीं होते। नेट जाल डॉट काम भारत का बहुआयामी पोर्टल है जो लेखकों और पत्रकारों द्वारा स्थापित किया गया है।
वेब पेज निर्माण या प्रस्तुति में प्रविधिमूलक व्यवस्थाओं का ध्यान रखना होता है। वैसे सारी जानकारियां ध्दह्लह्लश्च द्वारा उपलब्ध कराई जाती है। वेब पेज का निर्माण ॥ञ्जरूरु की सहायता से किया जाता है। इसका प्रयोग करके एक दस्तावेज लेखक, दस्तावेज के विविध उपविभाजनों को विशिष्ट रूप से कूटबध्द कर सकता है। इस विशिष्टीकृत कूटबध्द उप विभाजनों को 'हाइपर टैक्स्ट' के नाम से जाना जाता है। यह कूटीकरण पृष्ठ विविध प्रकार की जानकारियों से युक्त होता है। वेब पत्रकार के लिए यह बहुत ही दायित्वपूर्ण होता है कि कोई भी सूचना या समाचार छूटे नहीं। इसके साथ ही इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक होता है कि कोई बेकार की सामग्री साइट पर नहीं जानी चाहिए। समाचारों के निरंतर और तीव्र प्रवाह में समाचारों की महत्ता पहचान कर अपने पेज के लिए 'सेव' करना और उसे आवश्यकता के अनुरूप कहां प्रस्तुत करना है, इसमें ही उसका कौशल प्रदर्शित होता है।
भविष्य के संबंध में यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक वेब पत्रकार अपने साथ एक न्यूज साइट लेकर चल रहा होगा और बिना समय गंवाए किसी भी घटना को 'अपडेट' करने की तात्कालिक क्षमता रख सकेगा। वेब पर साहित्यिक पत्रिका के कंटेंट संपादक राजेश रंजन का यह कहना बहुत सार्थक है कि - ''नई तकनीक में हो रहे बदलाव से सूचना को प्रकाश से भी तेजगति दी है।''
वेब पत्रकारिता के क्षेत्र में उन न्यूज साइट्स की लोकप्रियता में वृध्दि की संभावनाएं हैं जो किसी भी राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय महत्व के समाचार दश्रोपा के समक्ष रखता है। इसमें संदेह नहीं है कि प्रारंभ में कई समाचार पत्रों ने अपनी साइट्स से आरंभ कर दी थी, पर उनमें दैनिक पत्रों से हटकर कुछ विशिष्ट नहीं हो पाया था। पर जैसे ही पारंपरिक समाचार पत्र से हटकर नई वेबसाइट की अपेक्षाएं और व्यवहार की जानकारी बढ़ी, वैसे ही वेबसाइट्स पारंपरिक समाचार पत्रों से भिन्न होती गईं।
वेब पत्रकारिता का 'होमपेज' वास्तव में पारंपरिक समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ जैसा ही है। रूप एवं पृष्ठ साा के रूप में इसके मुखपृष्ठ के दोनों ओर के हाशियों में ढेर सारे प्रवेश बिंदु होते हैं जो 'हाइपर लिंक' की सहायता से संपादकीय, अग्रलेख, सिनेमा, व्यापार, साहित्य या राशिफल जैसी पाठय सामग्री तक विशिष्ट दश्रोपा को पहुंचाता है। यही कारण है कि मुख पृष्ठ को छोड़कर वेब समाचार पत्रिका के अन्य पृष्ठ पारंपरिक समाचार से नितांत भिन्न होते हैं। वेब समाचार पत्र की संरचना पारंपरिक समाचार पत्र के पृष्ठों के समान नहीं होती। यदि संपादकीय पृष्ठ की चर्चा करें तो वेब पेज पर केवल संपादकीय ही मिलेगा। पारंपरिक संपादकीय पृष्ठ के अन्य कॉलमों के लिए वेब समाचार पत्र में एक नया पृष्ठ ही खोलना होता है। दूसरे शब्दों में मुद्रित पृष्ठ के स्थायी स्तंभों के लिए वेब पत्र में नया पृष्ठ ही देना होगा या खोलना होगा।
दश्रोपा अपने वेब समाचार पत्र को जब भी देखना चाहता है तो उसे वांछित वेबसाइट खोलनी होती है और सर्च करना होता है। अपनी रुचि का पृष्ठ खोलने के लिए भी माउस क्लिक करना होता है। इस संदर्भ में यह कहना भी उचित प्रतीत होता है कि जितना आवश्यक समाचारों का अद्यतनीकरण है उतना ही आवश्यक वेब पेज की पृष्ठ साा या डिजाइन है। बहुत से वेब समाचार पत्रों ने अपनी प्रस्तुति आकर्षक बनाने के लिए अपनी साइट्स को 'नया लुक' देने का प्रयास करते हैं। वेब पेज डिजाइनिंग के संबंध में इतना ही कहा जा सकता है कि डिजाइन ऐसा चयन या निर्मित किया जाना चाहिए जो दश्रोपा को देखने में अच्छा लगे और शीघ्र खुल भी सके। कई वेब समाचार पत्र अपने पृष्ठों की पृष्ठ साा के रूप में उकेर कर दश्रोपा में आकर्षण प्रस्तुत करते हैं। वेब पत्रकारिता, वेब समाचार लेखन, संकलन, संपादन के साथ उसकी प्रस्तुति में ही तो वैज्ञानिकता है। यह भी सही है कि आज नई-नई साइट्स वेब समाचार पत्रों के विकास के लिए कार्यशील बनी हैं तो भविष्य की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता।
सूचना क्रांति के इस युग में वेब पत्रकारिता का नवीनतम अध्याय खुल गया है और समाचार प्रसारण की तीव्रता तीन सौ प्रतिशत तक बढ़ गई है। वेब पोर्टल के लिए मुद्रित माध्यम (समाचार पत्र) से कहीं अधिक तत्परता, चपलता और सजगता की आवश्यकता होती है। आज मुद्रित माध्यम की पत्रकारिता ने अपनी-अपनी वेबसाइट इसीलिए प्रारंभ की है कि प्रतिस्पर्धा की दौड़ में पीछे न रह जाएं। वेब पत्रकारिता के क्षेत्र में पोर्टल सेवा ने ऐसा राजस्व तैयार किया है जो बहुत ही सजगता, सक्रियता और तत्पतरा से समाचारों का अद्यतनीकरण करके अपने दश्रोपा (दर्शक-श्रोता-पाठक) को अपनी तीव्रगामी समाचार सेवाएं उपलब्ध कराता है।
वेब पोर्टल की तैयारी में प्राय: निम्नांकित बातों का ध्यान रखना होता है :-
1. दश्रोपा से क्या अपेक्षा है?
2. दश्रोपा की रुचि का पोर्टल में स्थान रखना है?
3. क्या मुख्य वेब पेज पर 'टिफ' और जीपीजी फाइलें या इमेज का प्रयोग किया जाए?
4. क्या इसके लिए प्रोफेशनल लेखकों की सेवाएं ली जाएं?
उक्त चार प्रश्नों का उत्तर पोर्टल निर्माता को पोर्टल की विषयवस्तु प्रबंधन (कंटेंट मैनेजमेंट) की व्यवस्था में देना होता है कि -
अ. स्तरीय विषयवस्तु क्या है और उसका कितना विस्तार है।
आ. समाचारों का निरंतर अद्यतनीकरण।
इ. दश्रोपा की अपेक्षाओं के प्रति दायित्व-बोध।
ई. ऑन लाइन सेवाओं का विस्तार।
उ. संचार माध्यमों का समन्वयन।
ऊ. पोर्टल की पृष्ठ साा।
उक्त बिंदुओं पर विचार करते हुए पोर्टल प्रबंधक एवं संपादक का दायित्व बढ़ जाता है और तीव्रगति बनाए रखकर समाचार के छ:ककारों के चिंतन को विजुअल्स के साथ अन्य स्पर्धी पोर्टल के साथ प्रबंधकीय क्षमता के साथ दश्रोपा को उपलब्ध कराना होता है। नेट पर समाचारों का तीव्रतम प्रवाह ही वेब पत्रकार की तथा वेब पोर्टल के संपादन की कसौटी है क्योंकि समाचारों का जिस गति से अद्यतनीकरण किया जाएगा, वहीं साइट सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानी जाएगी। ब्लाग आज आन लाइन पत्रिका की तरह ही है। ब्लाक लेखन प्राय: दो प्रकार का होता है। ब्लाग लेखन सजग प्रहरी का काम भी करता है। यद्यपि समाचार लेखन की प्रणाली अभी भी मुद्रित माध्यम के लिए जो प्रयोग में आती थी, वही है, इतना अंतर अवश्य आया है कि पहले संवाददाता द्वारा समाचार किसी भी साधन का प्रयोग कर समाचार कक्ष या समाचार डेस्क तक पहुंचा दिए जाते थे। अंतिम रूप से समाचार का पुनर्लेखन रीराइटमैन से कराया जाता था। अब यही काम कंप्यूटर से होता है। क्षेत्र से समाचार चयन कर संवाददाता अपने कंप्यूटर पर छोड़ देता है और मॉडम सिस्टम या ई-मेल द्वारा वह समाचार मुख्यालय में प्राप्त कर लिया जाता है तथा आवश्यकतानुसार तथा उपलब्ध स्थान के आधार पर उसका पुनर्लेखन कर लिया जाता है।
वर्तमान समय में हिंदी एवं अन्य क्षेत्रीय समाचार पत्रों के ऑनलाइन संस्करणों में जो समाचार दिए जाते हैं, उसमें से लगभग 85 प्रतिशत समाचार मुद्रित माध्यम से गृहीत होते हैं क्योंकि समाचार पत्र के लिए जो समाचार बनता है, लगभग वही ऑनलाइन कर दिया जाता है। यद्यपि यह व्यवस्था उपयुक्त नहीं है। पर हमारे देश में सभी कुछ आराम से बिना किसी स्पर्धा के चलता रहा है। यह भी संभव है कि पोर्टल पर जो समाचार कल अद्यतनीकृत किया गया था, उसे आज छुआ ही नहीं गया हो और कल तक वह साइट पर बना रह सकता है।
वेब पत्रकारिता में जो समाचार एक बार डेस्क से आगे बढ़ा दिया जाता है, उस एक निश्चित समय के बाद रिचैक किया जाता है। शीर्षक या कैपशन बदला जाता है। समाचार का पुन: संपादन भी होता है। लेकिन उससे पहले समाचार लेखन भी तो अनिवार्य प्रक्रिया का अंग है। इसलिए जब एक साइट मूल रूप से अनिवार्यत: रूटीन समाचारों और फीचर से बनाई जाती है उसके लिए कुछ अनिवार्यताओं का निर्धारण भी होता है। वर्तमान सूचना क्रांति के इस युग में मोबाइल पर एसएमएस भेजकर और पढ़कर ही समाचार प्राप्त कर लिए जाते हैं तो पारंपरिक पत्रों और उससे संबंधित प्रक्रियाओं से गुजरने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं की जाती है।
स्वतंत्र वेबसाइट पर जाने वाले रूटीन समाचारों में समाचार और फीचर परक तत्वों वाले समाचारों की अधिकता होती है। किसी समाचार को अधिक रोचक रूप से वेब साइट पर ले जाने के लिए उसे 'स्टोरी' के रूप में ही ग्रहण किया जाता है और उसको उसी रूप में तैयार किया जाता है। कथा या स्टोरी निर्माण की प्रक्रियाओं से गुजरते हुए वेब पत्रकार को निम्ांकित रेखांकन पर ध्यान देना अनिवार्य होता है।
समाचार कथा का निर्धारण हो जाने पर उसे विशिष्टता प्रदान करने के लिए लीक से हटकर रोचक, कौतूहलपूर्ण, उत्सुकता विस्तारक और आश्चर्ययुक्त बनाना अनिवार्य हो जाता है। इसी दृष्टि से रिपोर्टर और संपादक की भूमिका क्रमश: महत्वपूर्ण हो जाती है। रिपोर्टर या संवाददाता का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने संपादक के पास विचारपूर्ण, सारगर्भित, उद्देश्यपूर्ण एवं विस्तृत समाचार कथा का प्रस्ताव भेजे पर वह कभी भ्रम न पाले कि उसकी समाचार कथा आंख बंद करके संपादक स्वीकार कर ही लेगा। यद्यपि उस समाचार कथा का आइडिया उसी का हो और उसे विकसित करने का परामर्श भी उसी का हो सकता है।
वेब रिपोर्टर के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं :-
1. संपादक के समक्ष लिखित प्रस्ताव दिया जाए।
2. प्रस्तुति प्रासंगिक एवं समयानुकूल कथा युक्त हो।
3. अपनी कथा की उपयोगिता सिध्द करा सके।
4. कथा का आइडिया या विचार या थीम संपादक को प्रस्तुत कर कवरेज का विचार एवं बिंदु स्पष्ट किया जाए।
5. दश्रोपा के लिए वैसी कथा का महत्व क्या है?
6. प्रतिस्पर्धी साइट्स की तुलना में अपना कथा की महत्ता विशेष का केन्द्रीकरण किया जाए।
7. महत्व का मुद्दा- राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, प्रांतीय या स्थायी स्पष्ट किया जाए।
8. बीती घटना की सार्थकता नहीं होती, फीचर की सार्थकता बनी रहती है।
9. कथा से संबंधित छायाचित्र, ग्राफिक्स, फिल्म स्ट्रिप्स आदि का संकेत भी पहले ही दिया जाए।
10. कथा प्रस्तुति समयबध्द (टाइम बाउण्ड) एवं उचित व गहन शोध से उद्भुत होना चाहिए।
समाचार का शीर्षक:
वेब पत्रकार द्वारा यह अनिवार्य नहीं है कि वह शीर्षक लगाए ही। इसमें संदेह भी नहीं है कि समाचार या समाचार कथा में शीर्षक का स्थान विशेष होता है। वेबसाइट पर समाचार का शीर्षक मुद्रित माध्यम के अनुरूप नहीं होता। उसे समाचार कथा विशेष के अनुरूप विशेष दशा, समय, विस्तार और व्याख्यापरक होना चाहिए। कभी-कभी उपशीर्षक देना भी अनिवार्य हो जाता है। व्यावहारिक रूप में वेब पत्रकार के लिए समाचार का शीर्षक, उप-शीर्षक, समाचार शिल्प कौशल का परिचायक होता है। वेब पत्रकार को यह ध्यान रख्ना भी बहुत आवश्यक है-
1. शीर्षक तात्कालिक हो- प्रतिभा पाटिल
का इस्तीफा।
2. कथा के मूल तथ्यों से युक्त शीर्षक।
3. सरल भाषा में निर्मित शीर्षक।
4. आमंत्रक एवं आकर्षक।
5. कथा आदि एवं अंत का परिचायक।
6. कथा की भावनाओं का प्रत्यक्षीकरण।
7. शैली वार्तालाप की हो।
8. अलंकारिक शैली से युक्त हो।
इसका कारण स्पष्टत: यह है कि पोर्टल पर समाचार निरंतर अद्यतन होता रहे। इससे नेट पर कोई भी समाचार साइट में इंटर टैक्स्ट और हाईपर टैक्स्ट पैदा होती रहती है।
वास्तव में हिंदी में वेब पोर्टल पर काम हाल की देन है। आन लाइन समाचार के रूप में पोर्टल दो प्रकार से कार्यरत रहे हैं- एक वे हैं जो किसी न किसी समाचार पत्र समूह या पत्रिका संस्थान से संबंधित हैं या उनके द्वारा स्वतंत्र रूप से संचालित हैं। ऐसे पोर्टल प्राय: अपनी अधिसंख्या विषय सामग्री अपने ही समाचार पत्र से ही लेते हैं और जो शेष सामग्री है, उसके लिए लेखन, संकलन एवं संपादन का दायित्व स्वयं उठाते हैं। यद्यपि जो सामग्री अपने ही पत्र से उठाते हैं, उसकी प्रस्तुति में भिन्नता होती है। उसके बिना वे ज्यों का त्यों पोर्टल पर नहीं ले सकते। दोनों की प्रविष्टियां भिन्न हैं। अत: पोर्टल के लिए संपादन की आवश्यकता हो जाती है।
वेब पोर्टल के क्षेत्र में ऐसे पोर्टल हैं जो किसी पत्र समूह के सहकारी न होकर स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं। ऐसे पोर्टल अपनी सामग्री स्वयं ही तैयार करते हैं जिसमें समाचार संकलन, समाचार लेखन और अपने पोर्टल के अनुरूप संपादन कार्य स्वयं करते हैं। लेकिन यह भी संभव है कि वे अपनी सामग्री इसी क्षेत्र में कार्यरत किसी अन्य पोर्टल से प्राप्त कर लें। स्वतंत्र रूप से कार्य करते हुए उन्हें कुछ अधिक श्रम करना होता है अन्यथा दूसरे पोर्टल से वे सामग्री क्रय भी कर लेते हैं। हिंदी क्षेत्र में ऐसे पोर्टल्स कार्यरत हैं- हिंदी डॉट काम, सिफी डॉट काम (सत्यम), रीडिफ डॉट काम, हिंदी डॉट काम (रीडिफ) हैं। इंडिया डॉट काम (इंडिया), नेट जाल डॉट काम भी हैं। ये पोर्टल्स केवल नेट के लिए तैयार किए जाते हैं तथा उनके मुद्रित संस्करण या दैनिक समाचार पत्र नहीं होते। नेट जाल डॉट काम भारत का बहुआयामी पोर्टल है जो लेखकों और पत्रकारों द्वारा स्थापित किया गया है।
वेब पेज निर्माण या प्रस्तुति में प्रविधिमूलक व्यवस्थाओं का ध्यान रखना होता है। वैसे सारी जानकारियां ध्दह्लह्लश्च द्वारा उपलब्ध कराई जाती है। वेब पेज का निर्माण ॥ञ्जरूरु की सहायता से किया जाता है। इसका प्रयोग करके एक दस्तावेज लेखक, दस्तावेज के विविध उपविभाजनों को विशिष्ट रूप से कूटबध्द कर सकता है। इस विशिष्टीकृत कूटबध्द उप विभाजनों को 'हाइपर टैक्स्ट' के नाम से जाना जाता है। यह कूटीकरण पृष्ठ विविध प्रकार की जानकारियों से युक्त होता है। वेब पत्रकार के लिए यह बहुत ही दायित्वपूर्ण होता है कि कोई भी सूचना या समाचार छूटे नहीं। इसके साथ ही इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक होता है कि कोई बेकार की सामग्री साइट पर नहीं जानी चाहिए। समाचारों के निरंतर और तीव्र प्रवाह में समाचारों की महत्ता पहचान कर अपने पेज के लिए 'सेव' करना और उसे आवश्यकता के अनुरूप कहां प्रस्तुत करना है, इसमें ही उसका कौशल प्रदर्शित होता है।
भविष्य के संबंध में यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक वेब पत्रकार अपने साथ एक न्यूज साइट लेकर चल रहा होगा और बिना समय गंवाए किसी भी घटना को 'अपडेट' करने की तात्कालिक क्षमता रख सकेगा। वेब पर साहित्यिक पत्रिका के कंटेंट संपादक राजेश रंजन का यह कहना बहुत सार्थक है कि - ''नई तकनीक में हो रहे बदलाव से सूचना को प्रकाश से भी तेजगति दी है।''
वेब पत्रकारिता के क्षेत्र में उन न्यूज साइट्स की लोकप्रियता में वृध्दि की संभावनाएं हैं जो किसी भी राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय महत्व के समाचार दश्रोपा के समक्ष रखता है। इसमें संदेह नहीं है कि प्रारंभ में कई समाचार पत्रों ने अपनी साइट्स से आरंभ कर दी थी, पर उनमें दैनिक पत्रों से हटकर कुछ विशिष्ट नहीं हो पाया था। पर जैसे ही पारंपरिक समाचार पत्र से हटकर नई वेबसाइट की अपेक्षाएं और व्यवहार की जानकारी बढ़ी, वैसे ही वेबसाइट्स पारंपरिक समाचार पत्रों से भिन्न होती गईं।
वेब पत्रकारिता का 'होमपेज' वास्तव में पारंपरिक समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ जैसा ही है। रूप एवं पृष्ठ साा के रूप में इसके मुखपृष्ठ के दोनों ओर के हाशियों में ढेर सारे प्रवेश बिंदु होते हैं जो 'हाइपर लिंक' की सहायता से संपादकीय, अग्रलेख, सिनेमा, व्यापार, साहित्य या राशिफल जैसी पाठय सामग्री तक विशिष्ट दश्रोपा को पहुंचाता है। यही कारण है कि मुख पृष्ठ को छोड़कर वेब समाचार पत्रिका के अन्य पृष्ठ पारंपरिक समाचार से नितांत भिन्न होते हैं। वेब समाचार पत्र की संरचना पारंपरिक समाचार पत्र के पृष्ठों के समान नहीं होती। यदि संपादकीय पृष्ठ की चर्चा करें तो वेब पेज पर केवल संपादकीय ही मिलेगा। पारंपरिक संपादकीय पृष्ठ के अन्य कॉलमों के लिए वेब समाचार पत्र में एक नया पृष्ठ ही खोलना होता है। दूसरे शब्दों में मुद्रित पृष्ठ के स्थायी स्तंभों के लिए वेब पत्र में नया पृष्ठ ही देना होगा या खोलना होगा।
दश्रोपा अपने वेब समाचार पत्र को जब भी देखना चाहता है तो उसे वांछित वेबसाइट खोलनी होती है और सर्च करना होता है। अपनी रुचि का पृष्ठ खोलने के लिए भी माउस क्लिक करना होता है। इस संदर्भ में यह कहना भी उचित प्रतीत होता है कि जितना आवश्यक समाचारों का अद्यतनीकरण है उतना ही आवश्यक वेब पेज की पृष्ठ साा या डिजाइन है। बहुत से वेब समाचार पत्रों ने अपनी प्रस्तुति आकर्षक बनाने के लिए अपनी साइट्स को 'नया लुक' देने का प्रयास करते हैं। वेब पेज डिजाइनिंग के संबंध में इतना ही कहा जा सकता है कि डिजाइन ऐसा चयन या निर्मित किया जाना चाहिए जो दश्रोपा को देखने में अच्छा लगे और शीघ्र खुल भी सके। कई वेब समाचार पत्र अपने पृष्ठों की पृष्ठ साा के रूप में उकेर कर दश्रोपा में आकर्षण प्रस्तुत करते हैं। वेब पत्रकारिता, वेब समाचार लेखन, संकलन, संपादन के साथ उसकी प्रस्तुति में ही तो वैज्ञानिकता है। यह भी सही है कि आज नई-नई साइट्स वेब समाचार पत्रों के विकास के लिए कार्यशील बनी हैं तो भविष्य की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता।
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