डॉ. महेश परिमल
पूरा हरियाणा दहल रहा है। हिसार के कैथल जिले के गाँव कराड़ा की एक घटना के फैसले से सभी स्तब्ध हैं। मीडिया भले ही इसे ‘ऑनर कीलिंग’ की संज्ञा दे, पर सच तो यह है कि हम कहीं न कहीं आज भी आदिम युग में जी रहे हैं। जहाँ जंगल का कानून चलता है। तीन साल बाद जब अदालत ने दोषियों को सजा सुनाई, तब लोगों ने न्याय के महत्व को समझा। न्याय पर आस्था बढ़ी। इसके बाद भी हम गर्व से नहीं कह सकते हैं कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं। दरअसल कानून के हाथ मजबूत करने वाले पाये ही खोखले होने लगे हैं। इस मुकदमे में उन पुलिस वालों पर भी कार्रवाई हुई है, जिन्होंने अपराधियों का साथ दिया या कानून की राह में बाधाएँ पैदा कीं।
प्यार हर कोई करता है। किसी का प्यार जग-जाहिर होता है, किसी का प्यार पंख लगाकर उड़ता है। प्यार के फूलों की सुगंध को फैलने से कोई रोक नहीं सकता। पर खामोश प्यार की अपनी अहमियत होती है। यह बरसों तक सुरक्षित रहता है। किसी एक के दिल में, एक उम्मीद की रोशनी की तरह। मनोज-बबली ने भी प्यार किया। अपने प्यार को एक नाम देने के लिए उन्होंने कानून का सहारा लेकर शादी भी की। उन्हें पता था कि इस शादी का परिणाम बहुत ही बुरा भी हो सकता है, इसलिए उन्होंने पुलिस सुरक्षा की माँग की। उन्हें सुरक्षा मिली, पर उस पर हावी हो गया, बाहुबलियों का बल। शादी के मात्र 23 दिन बाद ही दोनों को मौत के घाट उतार दिया गया। वजह साफ थी कि पंचायत नहीं चाहती थी कि एक गोत्र में शादी हो। यही गोत्र ही उन दोनों प्रेमियों के लिए काल बना।
पंचायतीराज का सपना क्या ऐसे ही पूरा हो सकता है। इसके पहले भी हमारे देश की पंचायतों ने कई ऐसे फैसले किए हैं, जिसे सुनकर नहीं लगता कि हमें आजाद हुए 62 वर्ष से अधिक हो चुके हैं। पंचायतों को मिले अधिकारों के ऐसे दुरुपयोग की कल्पना भला किसने की थी? सवाल यह उठता है कि क्या 62 साल बाद भी हम ऐसा कानून नहीं बना पाए, जिससे खाप पंचायत जैसे अमानुषिक निर्णय पर रोक लगाई जा सके? आज जहाँ दो बालिगों के बिना शादी के साथ-साथ रहने को कानूनी मान्यता मिल गई है और दो सजातीयों के साथ-साथ रहने की माँग की जा रही है, उस जमाने में खाप पंचायत ने जिस तरह से निर्णय दिया, उससे आदिम युग की ही याद आती है। मेरे विचार से आदिम युग में भी ऐसे निर्णय नहीं होते होंगे। फिर भला यह कौन-सा युग है?
इसके पूर्व भी इसी तरह के निर्णय ने पूरे देश को शर्मसार किया है। पंचायतें जब चाहे, बाहुबलियों के वश में होकर कठोर यातनाएँ देने वाली सजा मुकर्रर करती हैं। पंचायतों में भले ही बड़े पदों पर साधारण लोग होते हों, पर फैसले की घड़ी में आज भी वहाँ बाहुबलियों का हुक्म चलता है। अपने विवेक से निर्णय देने की प्रथा अभी नहीं रही। हमें भूलना होगा अलगू चौधरी और जुम्मन शेख को। हमें यह भी भूलना होगा कि पंचों के मुख से ईश्वर बोलता है। अब ऐसी खाला भी नहीं रही, जो अलगू चौधरी से यह कह सके, बेटा क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? उस समय ईमानदार पंचों का सबसे बड़ा गहना थी। अब ईमानदारी की बात करने का मतलब ही होता है, पुराने जमाने में जीना।
खाप पंचायत ने जिस तरह से फैसला दिया, वह हमारे देश का पहला फैसला नहीं था, इसके पहले भी देश की पंचायतों ने कई ऐसे फैसले किए हैं, जिससे इंसानियत की मौत हुई है:-
अगस्त 2000 को झज्जर के जोणधी में हुई पंचायत द्वारा एक बच्चे के मां-बाप बन चुके आशीष और दर्शना को भाईबहन बनने का तुगलकी फरमान सुना दिया गया। यह फरमान काफी विवादों में रहा। 2003 में जींद के रामगढ़ में दलित मीनाक्षी द्वारा गांव के सिख युवक से प्रेम विवाह करने पर उसे मौत का फतवा सुना दिया। अदालत की मदद से प्यार तो बरकरार रहा, लेकिन उन्हें मध्यप्रदेश में छिपकर जीवन बिताना पड़ा।
मतलौडा में 11 नवंबर 2008 को मेहर व सुमन को भी मौत के रूप में समाज के ठेकेदारों का शिकार होना पड़ा। इन दोनों ने भी पग्गड़धारियों के फैसले को मानने से साफ इंकार कर दिया।
मई 2009 को मंडी अटेली के बेगपुर में गोत्र विवाद के कारण ही 21 गांवों की महापंचायत बुलाई गई, विजय की शादी राजस्थान की राणियां की ढाणी की लड़की से हुई। खोश्य गोत्र के भारी दबाव के चलते एक परिवार का हुक्का पानी बंद कर दिया गया।
1999 में भिवानी में देशराज व निर्मला का प्रेम पंचायती लोगों को पसंद नहीं आया। पंचायती फरमान के बावजूद उन्होंने अपना प्रेम जारी रखा। इसी कारण लोगों ने दोनों को पत्थर मारकर मौत की नींद सुला दिया। अदालत ने 21 अप्रैल 2003 को दोनों पक्षों के 27 लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। हालांकि दोनों पक्षों में बाद में समझौता हो गया।
जनवरी 2003 को सफीदों के गांव के लोगों ने एक प्रेमी जोड़े को पत्थरों से कुचलकर मौत के घाट उतार दिया। इस दर्दनाक मौत के बाद गांव में कई दिन तक दहशत का माहौल बना रहा और लोग सहमे रहे।
मई 2008 को करनाल के बल्ला गांव में एक ही गोत्र में विवाह करने पर जस्सा और सुनीता को मार डाला गया। हत्यारों ने इतनी बेरहमी दिखाई कि दोनों के शव काफी देर तक गली में पड़े रहे और किसी की हिम्मत न पड़ी।
20 मार्च, 1994 को झज्जर के नया गांव में मनोज और आशा के प्रेम-प्रसंगों के चलते दोनों की जघन्य हत्या कर दी गई। आवाज उठने के बावजूद कोई कार्रवाई न की गई।
12 जुलाई 2009 को सिंघवाल की सोनिया से विवाह करने वाले मटौर के वेदपाल की पीट पीट कर हत्या कर दी गई। वेदपाल के परिवार वालों के रोष जताने पर भी पुलिस खास कार्रवाई न कर पाई।
अगस्त 2009 को रोहतक के बलहम्बा गांव में अनिल और रानी की नृशंस हत्या उनके प्रेम प्रसंगों के शक के चलते कर दी गई। दोनों परिवार रोते-बिलखते रहे लेकिन हत्यारों पर कोई कार्रवाई न हो पाई।
अगस्त 2009 को झज्जर जिले के सिवाना गांव के प्रेमी युगल संदीप और मोनिया की हत्या करके शवों को खेतों में पेड़ पर लटका दिया गया। इन नृशंस हत्याओं पर गांव के लोग कई दिन सहमे रहे।
ये कुछ उदाहरण ही हैं, जिससे पूरे देश को शर्मसार होना पड़ा है। करनाल की अदालत ने जो निर्णय सुनाया है, उससे हमें यह नहीं सोचना है कि अब देश की कानून-व्यवस्था चुस्त हो जाएगी। लोग अपराध करने से पहले सौ बार सोचेंगे। इस विपरीत अब अपराधी और भी अधिक चालाक हो जाएँगे। कानून को उलझन में डालने वाले उपक्रम करेंगे। कानूनी की लोच खोजेंगे, इसके लिए मददगार साबित होंगे, कानूनी पेशे से ही जुड़े लोग। जिनका काम ही है, लोगों को कानून की आड़ में ही बचाना। बुराई की जड़ खाप पंचायतें हैं, जो सगोत्र शादियों को बहन-भाई की शादी मानती है और इसे अक्षम्य कहकर दो प्रेमियों को मौत के घाट उतारने के लिए प्रेरित करती है। वह इस सच की भी कोई परवाह नहीं करती कि भारत में कानून का राज है और सगोत्र शादी करना कोई अपराध नहीं है। प्रेम पर इज्जत को झूठी और सामंती अहमियत देने वाले पुरानी मानसिकता के चंद लोग पुराने अवैज्ञानिक मूल्यों पर चलाने की जिद करते हैं। ऐसे कानून बनाए जाने चाहिए, जिससे कोई भी खाप पंचायत आगे से ऐसा दुस्साहस न कर सके। खाप पंचायतों के समर्थकों को भी उसी तरह दंडित करने का प्रावधान होना चाहिए जैसे हिंसा भड़काने वालों के लिए है।
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