Wednesday, July 28, 2010

क्या है खाप पंचायत, क्यों है उसका दबदबा?

अतुल संगर
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

विशेषज्ञ कहते हैं कि परंपरा-रिवायतें निभाने का बोझ केवल लड़कियों पर डाल दिया गया है

जब भी गाँव, जाति, गोत्र, परिवार की 'इज़्ज़त' के नाम पर होने वाली हत्याओं की बात होती है तो जाति पंचायत या खाप पंचायत का ज़िक्र बार-बार होता है.

शादी के मामले में यदि खाप पंचायत को कोई आपत्ति हो तो वे युवक और युवती को अलग करने, शादी को रद्द करने, किसी परिवार का समाजाकि बहिष्कार करने या गाँव से निकाल देने और कुछ मामलों में तो युवक या युवती की हत्या तक का फ़ैसला करती है.

लेकिन क्या है ये खाप पंचायत और देहात के समाज में इसका दबदबा क्यों कायम है? हमने इस विषय पर और जानकारी पाने के लिए बात की डॉक्टर प्रेम चौधरी से, जिन्होंने इस पूरे विषय पर गहन शोध किया है. प्रस्तुत हैं उनके साथ बातचीत के कुछ अंश:

खाप पंचायतों का 'सम्मान' के नाम पर फ़ैसला लेने का सिलसिला कितना पुराना है?

ऐसा चलन उत्तर भारत में ज़्यादा नज़र आता है. लेकिन ये कोई नई बात नहीं है. ये ख़ासे बहुत पुराने समय से चलता आया है....जैसे जैसे गाँव बसते गए वैसे-वैसे ऐसी रिवायतें बनतीं गई हैं. ये पारंपरिक पंचायतें हैं. ये मानना पड़ेगा कि हाल-फ़िलहाल में इज़्ज़त के लिए हत्या के मामले बहुत बढ़ गए है.

ये खाप पंचायतें हैं क्या? क्या इन्हें कोई आधिकारिक या प्रशासनिक स्वीकृति हासिल है?

रिवायती पंचायतें कई तरह की होती हैं. खाप पंचायतें भी पारंपरिक पंचायते है जो आजकल काफ़ी उग्र नज़र आ रही हैं. लेकिन इन्हें कोई आधिकारिक मान्यता प्राप्त नहीं है.

खाप पंचायतों में प्रभावशाली लोगों या गोत्र का दबदबा रहता है. साथ ही औरतें इसमें शामिल नहीं होती हैं, न उनका प्रतिनिधि होता है. ये केवल पुरुषों की पंचायत होती है और वहीं फ़ैसले लेते हैं. इसी तरह दलित या तो मौजूद ही नहीं होते और यदि होते भी हैं तो वे स्वतंत्र तौर पर अपनी बात किस हद तक रख सकते हैं, हम जानते हैं. युवा वर्ग को भी खाप पंचायत की बैठकों में बोलने का हक नहीं होता...
डॉक्टर प्रेस चौधरी
एक गोत्र या फिर बिरादरी के सभी गोत्र मिलकर खाप पंचायत बनाते हैं. ये फिर पाँच गाँवों की हो सकती है या 20-25 गाँवों की भी हो सकती है. मेहम बहुत बड़ी खाप पंचायत और ऐसी और भी पंचायतें हैं.

जो गोत्र जिस इलाक़े में ज़्यादा प्रभावशाली होता है, उसी का उस खाप पंचायत में ज़्यादा दबदबा होता है. कम जनसंख्या वाले गोत्र भी पंचायत में शामिल होते हैं लेकिन प्रभावशाली गोत्र की ही खाप पंचायत में चलती है. सभी गाँव निवासियों को बैठक में बुलाया जाता है, चाहे वे आएँ या न आएँ...और जो भी फ़ैसला लिया जाता है उसे सर्वसम्मति से लिया गया फ़ैसला बताया जाता है और ये सभी पर बाध्य होता है.

सबसे पहली खाप पंचायतें जाटों की थीं. विशेष तौर पर पंजाब-हरियाणा के देहाती इलाक़ों में जाटों के पास भूमि है, प्रशासन और राजनीति में इनका ख़ासा प्रभाव है, जनसंख्या भी काफ़ी ज़्यादा है... इन राज्यों में ये प्रभावशाली जाति है और इसीलिए इनका दबदबा भी है.

हाल-फ़िलहाल में खाप पंचायतों का प्रभाव और महत्व घटा है, क्योंकि ये तो पारंपरिक पंचायते हैं और संविधान के मुताबिक अब तो निर्वाचित पंचायतें आ गई हैं. खाप पंचायत का नेतृत्व गाँव के बुज़ुर्गों और प्रभावशाली लोगों के पास होता है.

खाप पंचायतों के लिए गए फ़ैसलों को कहाँ तक सर्वसम्मति से लिए गए फ़ैसले कहा जाए?

लोकतंत्र के बाद जब सभी लोग समान हैं. इस हालात में यदि लड़का लड़की ख़ुद अपने फ़ैसले लें तो उन्हें क़ानून तौर पर अधिकार तो है लेकिन रिवायती तौर पर नहीं है.

खाप पंचायतों में प्रभावशाली लोगों या गोत्र का दबदबा रहता है. साथ ही औरतें इसमें शामिल नहीं होती हैं, न उनका प्रतिनिधि होता है. ये केवल पुरुषों की पंचायत होती है और वहीं फ़ैसले लेते हैं.

एक गाँव जहाँ पाँच गोत्र थे, आज वहाँ 15 या 20 गोत्र वाले लोग हैं. छोटे गाँव बड़े गाँव बन गए हैं. पुरानी पद्धति के अनुसार जातियों के बीच या गोत्रों के बीच संबंधों पर जो प्रतिबंध लगाए गए थे, उन्हें निभाना अब मुश्किल हो गया है. जब लड़कियों की जनसंख्या पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले से ही कम है और लड़कों की संख्या ज़्यादा है, तो समाज में तनाव पैदा होना स्वभाविक है..
डॉक्टर प्रेम चौधरी
इसी तरह दलित या तो मौजूद ही नहीं होते और यदि होते भी हैं तो वे स्वतंत्र तौर पर अपनी बात किस हद तक रख सकते हैं, वह हम सभी जानते हैं. युवा वर्ग को भी खाप पंचायत की बैठकों में बोलने का हक नहीं होता. उन्हें कहा जाता है कि - 'तुम क्यों बोल रहे हो, तुम्हारा ताऊ, चाचा भी तो मौजूद है.'

क्योंकि ये आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त पंचायतें नहीं हैं बल्कि पारंपरिक पंचायत हैं, इसलिए इसलिए आधुनिक भारत में यदि किसी वर्ग को असुरक्षा की भावना महसूस हो रही है या वह अपने घटते प्रभाव को लेकर चिंतित है तो वह है खाप पंचायत....

इसीलिए खाप पंचायतें संवेदनशील और भावुक मुद्दों को उठाती हैं ताकि उन्हें आम लोगों का समर्थन प्राप्त हो सके और इसमें उन्हें कामयाबी भी मिलती है.

पिछले कुछ वर्षों में इन पंचायतों से संबंधित हिंसा और हत्या के इतने मामले क्यों सामने आ रहे हैं?

स्वतंत्रता के बाद एक राज्य से दूसरे राज्य में और साथ ही एक ही राज्य के भीतर भी बड़ी संख्या में लोगों का आना-जाना बढ़ा है. इससे किसी भी क्षेत्र में जनसंख्या का स्वरूप बदला है.

एक गाँव जहाँ पाँच गोत्र थे, आज वहाँ 15 या 20 गोत्र वाले लोग हैं. छोटे गाँव बड़े गाँव बन गए हैं. पुरानी पद्धति के अनुसार जातियों के बीच या गोत्रों के बीच संबंधों पर जो प्रतिबंध लगाए गए थे, उन्हें निभाना अब मुश्किल हो गया है.

यदि पहले पाँच गोत्रों में शादी-ब्याह करने पर प्रतिबंध था तो अब इन गोत्रों की संख्या बढ़कर 20-25 हो गई है. आसपास के गाँवों में भी भाईचारे के तहत शादी नहीं की जाती है.

ऐसे हालात में जब लड़कियों की जनसंख्या पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले से ही कम है और लड़कों की संख्या ज़्यादा है, तो शादी की संस्था पर ख़ासा दबाव बन गया है.

ये आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त पंचायतें नहीं हैं बल्कि पारंपरिक पंचायत हैं, इसलिए इसलिए आधुनिक भारत में यदि किसी वर्ग को असुरक्षा की भावना महसूस हो रही है या वह अपने घटते प्रभाव को लेकर चिंतित है तो वह है खाप पंचायत...इसीलिए खाप पंचायतें संवेदनशील और भावुक मुद्दों को उठाती हैं ताकि उन्हें आम लोगों का समर्थन प्राप्त हो सके और इसमें उन्हें कामयाबी भी मिलती है
डॉक्टर प्रेम चौधरी
दूसरी ओर अब ज़्यादा बच्चे शिक्षा पा रहे हैं. लड़के-लड़कियों के आपस में मिलने के अवसर भी बढ़ रहे हैं. कहा जा सकता है कि जब आप गाँव की सीमा से निकलते हैं तो आपको ये ख़्याल नहीं होता कि आप से मिलना वाल कौन व्यक्ति किस जाति या गोत्र का है और अनेक बार संबंध बन जाते हैं. ऐसे में पुरानी परंपरा और पद्धति के मुताबिक लड़कियों पर नियंत्रण कायम रखना संभव नहीं. लड़के तो काफ़ी हद तक ख़ुद ही अपने फ़ैसले करते हैं.

पिछले कुछ वर्षों में जो किस्से सामने आए हैं वो केवल भागकर शादी करने के नहीं हैं. उनमें से अनेक मामले तो माता-पिता की रज़ामंदी के साथ शादी के भी है पर पंचायत ने गोत्र के आधार पर इन्हें नामंज़ूर कर दिया. खाप पंचायतों का रवैया तो ये है - 'छोरे तो हाथ से निकल गए, छोरियों को पकड़ कर रखो.' इसीलिए लड़कियाँ को ही परंपराओं, प्रतिष्ठा और सम्मान का बोझ ढोने का ज़रिया बना दिया गया है.

ये बहुत विस्फोटक स्थिति है.

इस पूरे प्रकरण में प्रशासन और सरकार लाचार से क्यों नज़र आते हैं?

प्रशासन और सरकार में वहीं लोग बैठे हैं जो इसी समाज में पैदा और पले-बढ़े हैं. यदि वे समझते हैं कि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को औरत को नियंत्रण में रखकर ही आगे बढ़ाया जा सकता है तो वे भी इन पंचायतों का विरोध नहीं करेंगे. देहात में जाऊँ तो मुझे बार-बार सुनने को मिलता है कि ये तो सामाजिक समस्या है, लड़की के बारे में उसका कुन्बा ही बेहतर जानता है. जब तक क़ानून व्यवस्था की समस्या पैदा न हो जाए तब तक ये लोग इन मामलों से दूर रहते हैं.

आधुनिकता और विकास के कई पैमाने हो सकते हैं लेकिन देहात में ये प्रगति जो आपको नज़र आ रही है, वो कई मायनों में सतही है.

छोरे तो हाथ से निकल गए, छोरियों को पकड़ लो.









संवाद

इंसान खाप पंचायत का समर्थन करेंगे
महेंद्र सिंह टिकैत से रेयाज़ उल हक़ की बातचीत






















किसान यूनियन के अध्यक्ष और बालियान खाप के चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत खाप पंचायतों में किसी भी तरह के हस्तक्षेप के खिलाफ हैं. प्रेम विवाह को लेकर उनकी राय है कि इसमें लाज-लिहाज कुछ रह ही नहीं जाता. विवाह अधिनियम में संशोधन को लेकर उनका मानना है कि जो इंसान हैं, वो समर्थन करेंगे और जो राक्षस हैं, वो इसका विरोध करेंगे. उनसे की गई इस बातचीत के कुछ अंश तहलका में प्रकाशित हुये हैं. यहां पेश है पूरी बातचीत.

• अब तो केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि वह हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन करने की मांग पर गौर नहीं करेगी. खाप पंचायतें अब क्या करेंगी?

सरकार ने तो बोल दिया है, लेकिन जनता न तो चुप बैठेगी, न भय खाएगी. जो आदमी मान-सम्मान, प्रतिष्ठा और मर्यादा के साथ जिंदगी जीना चाहे उसे जीने दिया जाए, हम यह चाहते हैं. सरकार को या किसी को भी जनता को ऐसा करने से रोकने का क्या अधिकार है? इस देश में गरीब और असहाय लोगों की प्रतिष्ठा को ही सब लूटना चाहते हैं. 'द्वार बंद होंगे नादार (गरीब) के लिए, द्वार खुलेंगे दिलदार के लिए'. आदमी इज्जत के लिए ही तो सब कुछ करता है. चाहे कोई भी इंसान हो, इज्जत से रहना चाहता है.

• लेकिन समाज बदलता भी तो है. प्रतिष्ठा और मर्यादा के पुराने मानक हमेशा नहीं बने रहते. आप इस बदलाव को क्यों रोकना चाहते हैं?

तबदीली तो होती है, बहुत होती है. हमारे यहां भी बहुत तबदीली हुई. हमारी संस्कृति खत्म हो गई. हमारी देशी गाएं अब नहीं रहीं. हमारी जमीन बंजर हो गई. बस इनसान की नस्ल बची हुई है, उस पर भी धावा बोल दिया गया. अपनी नस्ल को भूल कर और उसे खत्म कर के कोई कैसे रह सकता है? और यह सारी बुराई रेडियो-टीवी ने पैदा की है.

• रेडियो-टीवी ने क्या-क्या असर डाले हैं?

बहुत ही खराब. जहां बहन-भाई का भी रिश्ता सुरक्षित नहीं बना रहेगा, वहां इज्जत कैसे बचेगी? महर्षि दयानंद ने कहा था- सात पीढ़ियों को छोड़ कर रिश्ता होना चाहिए. लेकिन राजनीतिक पचड़ा इन बातों को बरबाद कर रहा है. हमारा मानना है कि इनसान का जीवन इनसान की तरह होना चाहिए. पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश के इलाकों में लोग इन नियमों का उल्लंघन बरदाश्त नहीं किया जाएगा.

• आप प्रेम विवाह के इतने खिलाफ क्यों हैं?

लाज-लिहाज तो इसमें कुछ रह ही नहीं जाता. शादी मां-बाप की रजामंदी से हो, परिवार की रजामंदी से हो तो सब ठीक रहता है.

• लेकिन लोगों को अपनी मरजी से जीने और साथी चुनने का अधिकार तो है?

अधिकार तो जरूर है. पशुओं से भी बदतर जिंदगी बना लो इनसान की, इसका अधिकार तो है आपको. लेकिन हम इसे बरदाश्त नहीं करेंगे कि हमारे रिवाजों और मर्यादा पर इस तरह हमला किया जाए.

• और यह मर्यादा के ये पुराने मानक इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनके लिए हत्या तक जायज है?

लज्जा, मान, धर्म रक्षा और प्राण रक्षा के लिए तो युधिष्ठिर तक ने कहा था कि झूठ बोलना जायज है. हम अपनी मर्यादा की रक्षा करना चाहते हैं और इसके लिए हम 23 मई को महापंचायत में बैठ रहे हैं जींद में. इसके बाद दिल्ली की लड़ाई होगी.

• आपकी इस लड़ाई में कितने लोग आपके साथ आएंगे? कितने समर्थन की उम्मीद कर रहे हैं आप?

मुझे नहीं पता. मुझे कुछ पता नहीं.

• नवीन जिंदल और ओम प्रकाश चौटाला ने विवाह अधिनियम में संशोधन की मांग का समर्थन किया है. और कौन-कौन से लोग आपके साथ हैं?

इंसान तो इसका समर्थन करेंगे. जो राक्षस हैं, वही हमारी ऐसी मांगों का विरोध करेंगे. इस माहौल में कोई भी हो, चाहे गूजर हो, ठाकुर हो, वाल्मीकि हो, ब्राह्मण हो या हरिजन हो- ऐसी शादियों को कोई भी मंजूर नहीं करेगा. कोई भी इसे बरदाश्त करने को तैयार नहीं है. इतने सब लोग एक साथ हैं.

• किसी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी ने अब तक आपको समर्थन नहीं दिया है. कोई पार्टी आपके संपर्क में है? आप किससे उम्मीद कर रहे हैं?

पार्टी की बात नहीं है. यह राजनीतिक मुद्दा नहीं है. यह एक सामाजिक मुद्दा है और इसमें सब साथ आएंगे. वैसे हम किसी (पार्टी) के समर्थन के भरोसे नहीं बैठे हैं. हम आजाद हैं और सरकार को हमारी सुननी पड़ेगी.

• लेकिन अब तक तो सरकार आपसे सहमत नहीं दिखती. अगर उसने नहीं सुना तो आपकी आगे की रणनीति क्या होगी?

वह नहीं मानेगी तो हम देखेंगे. हमारी क्षमता है लड़ाई लड़ने की और हम लड़ेंगे. मरते दम तक लड़ेंगे. (प्रधानमंत्री) मनमोहन सिंह का भी तो कोई गोत्र है. (हरियाणा के मुख्यमंत्री) हुड्डा का भी तो गोत्र है. क्या वे इसे मान लेंगे कि गोत्र में शादी करना जायज है?

• देश के उन इलाकों में भी जहां गोत्र में शादी पर रोक रही है, अब यह उतना संवेदनशील मामला नहीं रह गया है. वहां से एसी कोई मांग नहीं उठी है. फिर खाप पंचायतें इसे लेकर इतने संवेदनशील क्यों हैं?

तमिलनाडू और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में तो भांजी के साथ शादी जायज है. हम उसके खिलाफ नहीं हैं. हमारा कहना है कि जहां जैसा चलन है वहां वैसा चलने दो. जहां नहीं है, वहां नई बात नहीं चल सकती. बिना काम के किसी बात को छेड़ना, कान को छेड़ना और मशीन के किसी पुरजे को छेड़ना नुकसानदायक है.




ये सूरत बदलनी चाहिये

दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि आजादी के 6 दषक बाद भी भारतीय लोकतंत्र में समानान्तर न्यायिक प्रक्रिया ‘खाप पंचायत’ के तहत चल रही है जिसके पिछे एक पूरा इतिहास है। ‘खाप पंचायत’ एक पुरानी सामाजिक प्रषासनिक व्यवस्था है जिसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है, जहां पर जाति या गौत्र का मुखिया चुना जाता था, जिसे ‘चैधरी’ कहा जाता था। पुरूषप्रधान समाज होने के कारण इस पंचायत में स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं दिया गया है। मगर कालान्तर में इस व्यवस्था का ‘चैधरी’ का पद जन्मगत हो गया। द्वितिय विष्व युद्ध में इन चैधरीयों ने अंगे्रजों की खूब मदद की तो अंग्रेजों ने जागीरें दे दी। हर गांव में 5-7 गौत्रों के लोग रहते थे जिन्हें ‘भाईचारे का रूप देकर आपस में शादी नहीं करते थे और ये ही पंचायते अब ‘खाप पंचायत’ के तहत युवाओं की स्वतंत्रता पर नकेल कसी जा रही है। यह सब मामला ‘इज्जत’ बचाने के नाम पर किया जा रहा है, जब दुनियां चांद पर बसने के प्लान बना रही है तो भारत में पांच सौ साल पीछे जाने की बात हो रही है। इसके पीछे एक सबसे बढ़ा कारण है कि समाज में स्त्रियों को एक उपभोग की वस्तु के रूप में देखा जाता है। ‘खाप पंचायत’ के अंतर्गत पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मघ्यप्रदेष और पष्चिमी उतर प्रदेष आदी वही इलाका है, जहां पर भ्रूण हत्या एक फैषन बन गया था। इसके कोई लिखित नियम भी नही है, ‘चैधरी’ तय कर देता है वो सर्वमान्य है। स्त्रियों भागीदारी की बात करें तो पर्दाप्रथा के तहत उन्हें तो बोलने का भी अधिकार नहीं है, चाहे कितना ही जुल्म हो। शायद दुनियां कि एकमात्र बिना गवाह की अदालत होगी- खाप पंचायत। अब मामला यह है कि देष में हर व्यस्क नागरिक को फैसला लेने कर अधिकार है और अगर दो व्यस्क स्त्री पुरूष अपनी ज़िदगी के बारे में साथ रहने का फैसला करते है तो कानूनी रूप से वैध है। लेकिन जाति पंचायतों को यह मंजूर नहीं अगर अपने ही गौत्र में कोई शादी करता है तो उसके खिलाफ यह तर्क देते है कि इनके बीच तो भाई बहन का रिष्ता है और अंर्तजातिय विवाह करते है तो ‘इज्जत’ का सवाल खड़ा कर देते है। अब बताये कि किससे शादी करें? दरअसल इस देष में जरति व्यवस्था की जड़े इतनी गहरी है कि अभी भी राजनीति से लेकर सामाजिक ढ़ंाचा इसके चक्कर लगाता हुआ नजर आ रहा है। इसी के कारण आज खाप पंचायते न केवल अस्तित्व में हैं बल्कि धड़ले से रोज फैसले सुनकार बेगुनाहों की ज़िंदगीयों को तबाह भी कर रही हंै। पंचायती राज के तहत चुने हुए पदाधिकारी भी असमर्थ दिखाई देते है क्योंकि या तो वो भी ऐसी मान्यताओं को मानते है या फिर वोट बैंक के डर से कुछ करते नही। अभी तो खाप पंचायतें इसलिये चर्चा में है क्योंकि मीडिया ने इस को मुद्दा बना रखा है वरना ये पहले भी अस्तित्व में थी और इनसे अमानवीय फैसले देती थी। यही वोट बैंक की राजनीति सता के ऊंचे गलियारों की है, वो भी कुर्सी के डर से मूकदर्षक बना रहता है। अगर बात करें न्याय प्रणाली की तो पहली बात तो धन और बाहुबल के कारण बहुत से मामले अदालत के दरवाजे तक जाते ही नहीं, अगर कोई किसी तरह अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो वहां भी इंसाफ की कम ही उम्मीद रहती है क्याकि अदालत सबूत और गवाह मागंती है लेकिन पूरी जाति व बिरादरी के सामने गवाही देने के लिये कोई भी तैयार नहीं होता और इस तरह मामला रफा दफा हो जाता है। इन खाप पंचायतों का प्रभाव इतना अधिक है कि एक पंचायत 84 गांवों को देखती है यानी अपने स्तर पर एक दूसरी शासन व्यवस्था जिसका समाज में वैधानिक आधार नहीं है। लेकिन मौत तक फैसले सुना देती और समाज को उन्हें मानना भी पड़ता है जबकि देष में सवैधानिक रूप से लोकतंत्र है। इसके पीछे मुख्य कारण है कि जातिव्यवस्था हमारे समाज की रगो में खून की तरह बह रह है, षिक्षा के अभाव में लोगों का दिमाग सामन्तवादी सोच और अंधविष्वास से बाहर निकलने की कोषिष भी नही करता। सामाजिक स्तर पर इतनी विद्रुपताएं आ गई है कि जो लोग प्रषासन और न्यायिक प्रक्रिया में है वो भी रूढ़ीवादी मानसिकता में घिरे हुए होने के कारण ऐसे लोगों को शह मिलती है। दूसरी और वोट बैंक के कारण राजनीतिक महत्व के लोग भी चुपि साधे हुये रहते है। अब सवाल उठता है कि समाज को ऐसी स्थिति से कैसे बाहर निकाला जाये, सबसे पहले तो षिक्षा के स्तर को लगातार बढ़ाना पड़ेगा और स्त्री सशक्तिकरण को बढ़ावा देकर लिंग के आधार पर समाज में बराबरी लानी होगी और उसके साथ ही जाति व्यवस्था को सिरे से समाप्त करना होगा।
Posted by skmeel at

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