Wednesday, July 28, 2010

लव स्टोरी या सामाजिक बीमारी?


देशपाल सिंह पंवार

मीडिया असली हीरो ढूंढे : 'दिन में ही जुगनुओं को पकड़ने की जिद करें, बच्चे हमारे दौर के चालाक हो गए' -परवीन शाकिर। देश में लोकराज है। अधिकारों का साज है। सबको नाज है। होना भी चाहिए। पर ये कौन सा काज है? क्यों लोकलाज नासाज है? क्यों संस्कारों पर गाज है? क्यों कल को मिटाता आज है? क्यों यमराज का राज है? लोकतंत्र में आजादी के ये कौन-से मायने निकाले जा रहे हैं? सावन की फुहार की बजाय क्यों गरम बयार के पंखे झुलाए जा रहे हैं? समाज के तपने में हाथ तापने की गलत सोच पर भी क्यों सीने फुलाए जा रहे हैं? आखिर ये कौन सा संसार और कैसा प्यार? सारी हदें पार। शर्मोहया तार-तार। संस्कारों की हार। रिश्तों पर वार। अपने बेजार। मानवता शर्मसार। ये कहां आ गए हैं हम? हक के नाम पर, मनमर्जी के नाम पर गोत्र में प्यार व शादी की जिद करने वाले बालक की आंखों में शर्म नहीं दिख रही है, न पालक धर्म की राह पर जाते नजर आ रहे हैं।

न ही मीडिया असली कर्म की कमाई खा रहा है। नेता रूपी चालक से न पहले कोई आस थी, न आज है। वे कल भी भ्रम में थे, आज ज्यादा हैं। कल क्या होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है-बापू को नमन और चमन का पतन। ऐसे में सामाजिक ताने-बाने के संकरे होते रास्ते कितनी देर और कितनी दूर साथ लेकर चल पाएंगे? आज यह सवाल हर समय मथ रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र में सबको तमाम हक हैं। प्यार पर भी बंदिशें नहीं हैं। तय उम्र के बाद शादी पर भी रोक नहीं है, लेकिन इस हक का मतलब हद पार करना नहीं है। असली दिक्कत यही है कि हक की किताब तो बांच ली गई पर हद को न तो जानने की कोशिश की गई, न समझने की। मानना तो दूर की बात है। जहां-जहां हद पर हक का पलड़ा झुका, वहां यही हुआ, जोआज हरियाणा में हो रहा है। सारे देश में हो रहा है। लाख टके का सवाल यही है कि कंधे पर लैपटाप, कान पर मोबाइल, आंख पर चश्मा लगाकर चलने वाली ये कौम क्या प्यार की कहानी का सारा फिल्माकंन दिल व घर की चाहरदीवारी से बाहर सड़क पर करना चाहती है? संविधान की किस धारा में ये अधिकार मिला है कि लिहाफ सड़क पर बिछाया जाएगा? मां-बाप की इज्जत को सरेआम उछाला जाएगा? बहन (गांव की लड़की) को बीवी बनाया जाएगा? समाज और संविधान की किस धारा में लिखा है और कहां से ये हक मिला है कि बालक पल में अपने पालक को ही नालायक का दर्जा दे डालें? आजादी के ये मायने तो नहीं थे। सवाल यह भी है कि संविधान की किस धारा में किसी भी शख्स, किसी भी गोत्र, किसी भी खाप को खून बहाने की आजादी मिली है, चाहे वो अपनो का ही क्यों न हो? मूंछ के सवाल पर समाज और कानून को हलाल नहीं किया जा सकता। वैसे ये एक सामाजिक समस्या है, इसे न तो कोई गोत्र, न कोई खाप, न कोई राजनीतिक दल, न कानून की कोई धारा इस हांके से हांक सकती, जो आज हरियाणा के हर गांव-गली और कूंचों में लगाया जा रहा है। यह एक संवेदनशील मामला है। नेतागिरी जितना दूर रहेगी, उतना ही अच्छा। मानवाधिकारों का डंका पीटने वालों को भी तह में जाना होगा। हल्ले से ये ठीक नहीं होगा। सख्ती से इसे दबाया नहीं जा सकता। किसी सजा से भी इसका समाधान नहीं निकलने वाला। घर-गांव, गोत्र और खाप वालों को भी निष्कासन से आगे की हद नहीं लांघनी चाहिए। गांव से निकालने के फैसले के पीछे समाज को बचाने का तर्क दिया जा सकता है लेकिन कानून को हाथ में लेने और किसी को मारने का अधिकार न किसी शख्स को है, न किसी समाज को है, न किसी गोत्र को है, न किसी खाप और सर्वखाप को।

सबको ये समझने की भी जरूरत है कि ऐसे मामले क्यों होते हैं? कोई एक-दो गोत्र हों तो ऐसी दिक्कतें शायद ही पैदा हों, लेकिन हरियाणा, राजस्थान, यूपी और देश के विभिन्न हिस्सों में जाटों के चार वंश और 2700 से ज्यादा गोत्र हैं। दिन-रात का साथ है। ऐसे में गांव स्तर पर संस्कार विहीन बच्चों से गलती हो जाती है। यहां शादी कानून की नजर में चाहे जायज ठहराई जा सकती हो लेकिन समाज और नैतिकता की कसौटी पर इसे सही नहीं माना जा सकता। स्कूल-कालेज में पढ़ते समय गोत्र जैसी बातें युवा पीढ़ी को बेमायने नजर आने लगती हैं। प्रेमिका की कसौटी पर खरा उतरने के वास्ते सारे संस्कार बौने लगने लगते हैं। क्या ये जायज है? यह एक मनोवैज्ञानिक पहलू और सामाजिक बहस का संवेदनशील मुद्दा है जिसे चंद शब्दों से न तो जताया जा सकता, न ही कोई रास्ता निकाला जा सकता है। जहां तक गोत्र का सवाल है तो यह एक संस्कृत टर्म है। वैदिक राह पर चलने वालों ने इसे पहचाना तथा सामाजिक मान-सम्मान कायम रखने के वास्ते शुरू किया था। महर्षि पाणिनी ने लिखा था-उपत्यं प्रौत्रं प्रभृति गौत्रम। पहले किसी खास इंसान, जगह, भाषा और ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर गोत्र बनते गए। जहां कोई महान शख्स हुआ, उसके नाम पर गोत्र बन गया। रजवाड़ों के जाने के बाद वंश व गोत्र बढ़ने का ये सिलसिला थमा है। हां, यह जरूर है कि जैसे जाति और वंश नहीं बदल सकते, उसी तरह गोत्र भी नहीं बदल सकते। एक वंश में एक से ज्यादा गोत्र हो सकते हैं लेकिन एक गोत्र में एक से ज्यादा वंश नहीं हो सकते। जैसे चौहान वंश में 116 गोत्र हैं। जिस समय ये परंपरा शुरू हुई थी तो उसी समय ये बंदिशें लागू हो गई थीं कि समान गोत्र में शादी नहीं हो सकती। इसके पीछे सामाजिक और वैज्ञानिक कारण थे। वंश की सेहत और नैतिक मूल्यों की रक्षा के तर्क थे। मानव धर्मशास्त्र के चैप्टर-3 और श्लोक 5 में भी कहा गया है- अस पिण्डा च या मातुर गौत्रा च या पितु:, सा प्रशस्ता द्विजातीनां दार, कर्माणि मैथुने। यानि बाप के गोत्र और मां की छह पीढ़ियों के गोत्र में लड़की की शादी जायज नहीं। हिंदुओं में शादी का जो परंपरागत प्रावधान है वो भी यही कहता है कि चार गोत्र का खास ख्याल रखो- यानि मां, पिता, पिता की मां और मां की मां (नानी) के गोत्र में शादी वर्जित है। हरियाणा में जिस पर हल्ला हो रहा है, वह इसी हदके उल्लंघन का नतीजा है। सब जानते हैं कि भारत गांवों में बसता है। गांवों का सारा ताना-बाना आज इसी वजह से मजाबूत है क्योंकि वहां हर लड़की बहन और हर लड़का भाई समझा और माना जाता है, चाहे वो किसी भी जात का क्यों ना हो? दिन-रात ताऊ और चाचा कहने वालों की बेटियों को क्या बहू बनाया जा सकता है? ऐसा होना सामाजिक और नैतिक मूल्यों का पतन नहीं है? जब-जब इस हद को लांघा जाएगा, जाहिर सी बात है कि समाज में उथल-पुथल होगी और अमूमन कड़वे नतीजे ही सामने आएंगे। जिस प्यार व शादी से अगर रिश्ते टूटते हों, समाज बिखरता हो, परिवार बेइज्जत होता हो, खून बहता हो तो उसे प्यार कैसे माना जा सकता है? प्यार तो बलिदान मांगता है। यहां तो वो खून बहा रहा है। जाटों में अमूमन जर, जोरू और जमीन के ही विवाद होते हैं। प्यार व शादी के विवाद कई बार गोत्र में नहीं सुलझ पाते। गांव पंचायतों में नहीं निपट पाते। न्याय के वास्ते इससे ऊपर खाप हैं और फिर आखिरी सर्व खाप। यानि हरियाणा की सर्व खाप। ऐसे मामलों में ज्यादातर हुक्का-पानी बंद और गांव से निष्कासन के ही फैसले आते हैं। खाप का इतिहास बेहद पुराना है। आन-बान-शान के लिए मर मिटने का। अतीत से आज तक इसे सामाजिकप्रशासन का दर्जा मिला हुआ है। कुछ गांवों को मिलकर खाप बनती हैं। जैसे 84 गांव की खाप। एक गोत्र एक ही खाप में रह सकता है। पंचायतें जब मामले नहीं निपटा पातीं तो वे खाप में जाते हैं और जब दो खाप में पेंच फंस जाते हैं तो फिर हरियाणा की सर्व खाप तय करती है। इसके सारे फैसले माने जाते हैं। कई बार उन्हें कानून की अदालतों में चुनौती दे दी जाती है। लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता और इतिहास गवाह है कि इस व्यवस्था से हमलावरों के खिलाफ तमाम जंग लड़ी और जीती गई तथा सामाजिक झगड़े सर्वखाप स्तर पर निपटते रहे। चाहे वह मुल्तान में हंसके खिलाफ जंग हो, मोहम्मद गौरी के खिलाफ तारोरी की जंग हो या अलाउद्दीन खिलजी के खिलाफ हिंडन और काली नदी की जंग हो या फिर 1398 में तैमूर के खिलाफ जंग हो। सबमें खाप व सर्वखाप ने निर्णायक रोल अदा किया। इतिहास बेहद लंबा चौड़ा है। चंद शब्दों में समेटना आसान नहीं पर, सच यही है कि सर्वखाप के सामने तब दुश्मन होते थे, अब अपने हैं। चाहे जितना समय बदल गया हो खाप और सर्व खाप की महत्ता इस समाज में आज भी उतनी ही है। इससे छेड़छाड़ के नतीजे ज्यादा खराब हो सकते हैं। इस व्यवस्था को बनाने का श्रेय आर्यसमाज को ही जाता है। जिसकी संस्कारों की मजबूत नींव पर यह बुलंद इमारत खड़ी हुई थी। जिसे हिलाने की कोशिशें होती रहती हैं। युवा पीढ़ी को यह तय करना ही होगा कि क्या भाई-बहन और मां-बाप से बढ़कर भी प्यार है? यह भी तय हो जाना चाहिए कि क्या प्यार कौम, समाज और राज्य से भी बढ़कर है? इस युवा पीढ़ी को गौरवशाली इतिहास का एहसास कराना भी जरूरी है ताकि वो उस पर नाज करे। गाज गिराने वाला साज न बजाए। प्यार करो पर हद में। हद से बाहर भद्द ही पिटेगी। चाहे जात जो भी हो, धर्म जो भी हो।

एक और बात। यह कोई लैला-मजनूं का किस्सा भी नहीं है कि मीडिया इसे फिल्मी कहानी की तरह पेश करे। खासकर टीवी चैनल। इतिहास को पढ़े बिना, सामाजिक ढांचे को समझे बिना, गहराई में जाए बिना तालिबानी संसार... प्यार पर वार.... के ढोल बजाना जायज नहीं। सामाजिक बीमारी को लव स्टोरी बनाने की सोच सही नहीं। लोकतंत्र में मिले हक और देश के 21वीं सदी में होने के पाठ मीडिया में बैठे लोगों को फिर पढ़ लेने चाहिए ताकि आग में घी के काम से वे और बदनाम न हों। उनमें यह समझ जरूर होनी चाहिए कि हर धोतीधारी गंवार नहीं होता। हर जींस पहनने वाला देश व समाज की तरक्की का असली चेहरा और ठेकेदार नहीं होता। जिस देश की कल्चर और इतिहास की सारी दुनिया कायल हो, अपनाना चाहती हो, क्या उस देश में 500-700 रुपए की जींस से नैतिक मूल्यों का मूल्यांकन होगा? क्या इसी संस्कृति से देश की वर्तमान तस्वीर और कौम की सुनहरी तकदीर लिखी जाएगी? क्या टीवी चैनल पर बैठे मीडिया के साथी तालिबानी कल्चर को नहीं जानते? उस कल्चर में विस्तर पर बहन के अलावा सब जायज है, यहां ठीक उल्टा है। फिर ये तालिबानी चेहरे कैसे हुए? जिस तरह पूरे देश में प्यार पर वार होते हैं तो फिर इस सारे देश को क्या तालिबानी कहा जाना वाजिब होगा? अगर ये साथी इतिहास पढ़े होते तो अफगानिस्तान और तालिबान से राजस्थान, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रिश्तों को जरूर समझ जाते। समझा पाते। पर जिस कौम को अपना इतिहास मालूम न हो, उनके कथन से समाज में फैलते जहर का एहसास न हो वो जो मरजी हो बोल भी सकते हैं, दिखा भी सकते हैं। किसी गांव वाले से लगातार ये पूछना कि वो बालिग है तो उसने गोत्र में लव मैरिज क्यों नहीं की? गोत्र से बड़ा कानून है। कानून से हक मिला है। यानि गोत्र जाए चूल्हे में, लव मैरिज हो। अगर आज गोत्र की सीमा टूटी है, कल गांव की टूटेगी, परसों घर की। मीडिया ये कौन सा पाठ पढ़ा और सिखा रहा है? ये हक का दुरुपयोग नहीं तो और क्या है? यह हद का अतिक्रमण ही तो है। सवाल यह भी उठता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया की नजर में तरक्की के क्या मापदंड हैं? सड़कों पर समलैंगिक जोड़ों की भरमार, बहन को छोड़ किसी भी लड़की से प्यार, सारी शर्मो हया तार-तार को अगर हम समाज व देश की तरक्की का परिचायक मानबैठे हैं तो फिर इस सवाल पर अब मंथन का समय आ गया है कि देश किस राह पर चलेगा, क्या ऐसी ही तरक्की हमें चाहिए, जहां लाज न हो? कड़वा सच यही है कि टीवी अपनी अपसंस्कृति को देश के हर इंसान में तलाशने और फैलाने में जुटा है। जहां ये नजर नहीं आती, उसे जो चाहे नाम दे दो। मीडिया को इस बात के जवाब तलाशने ही होंगे कि आखिर लव मैरिज ज्यादा विफल क्यों होती हैं? पुरातन शादी की व्यवस्था की सफलता अगर 90 फीसदी से ऊपर है तो लव मैरिज 50 फीसदी से नीचे क्यों है? स क्यों की तह में जाओ, सबको समझाओ, फिर प्यार के बिगुल बजाओ। हमेशा की तरह हरियाणा के मसले पर भी मीडिया ने नासमझी का ही परिचय दिया है।

टीआरपी के लिए फिल्मी परदे के हीरो दिखाने की बजाय अगर मीडिया असली हीरो ढूंढे, पैदा करे तो इस समाज की भी टीआरपी बढ़ेगी, उसकी भी साख बढ़ेगी. आदर्श चेहरों से खाली इस साधु-संतों की धरती पर फिर बहार की फसल उगेगी। हक और हद की दोस्ती मजबूत होगी। न प्यार पर वार होंगे, ना हम शर्मसारहोंगे। मीडिया ये कर सकता है। अगर नहीं तो फिर आग में घी के रोल का फटा ढोल उसकी पोल खोल रहा है। आवाज अगर नहीं सुनाई दे रही है तो यह उनकी बदकिस्मती।

लेखक देशपाल सिंह पंवार वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों दैनिक हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक हैं। इनसे संपर्क करने के लिए आप dpspanwar@yahoo.com या 09303508100 का सहारा ले सकते हैं।


....तो सिर्फ जाट ही बदनाम क्यों हैं?


जगमोहन फुटेला

मैंने बुजुर्गों को बचपन ही से शादी ब्याह के वक्त गोत्र, उसमें भी उपजाति, परिवार के मूल स्थान और रीति रिवाज से लेकर वधु की चूड़ियों के रंग तक का अता पता करते देखा है. ये तय करने के लिए कि शादी मिलते जुलते खानदान के साथ तो हो लेकिन गलती से भी अपनी ही उपजाति के लड़के या लड़की से न हो जाए. खासकर पंजाबियों में ये मान कर चला गया है कि खुराना, कक्कड़, मक्कड़, सलूजा, सुखीजा, कपूर या चावला लड़का और लड़की कभी कोई पुरानी जान पहचान न हो तो भी आपस में भाई-बहन होते हैं.

पुराने ज़माने में संपर्क और सुविधाओं से वंचित समाज में मामा या मौसी के बेटे बेटी के साथ तो शादी जायज़ थी. किसी हद तक आज भी है. लेकिन चाचा या अपनी उपजाति के किसी, कहीं के भी लड़के लड़की की शादी पे पाबंदी थी. आज भी है. एक फर्क के साथ ये पाबंदी मुस्लिम समाज में भी थी. आज भी है. मुसलमानों में दूध के रिश्ते की शादी नाजायज़ है. यानी चाचा के लड़के या लड़की से तो शादी हो सकती है. लेकिन मामा या मौसी के बच्चे से शादी कतई नहीं हो सकती. इस्लाम में ऐसी शादियों को शरीअत के खिलाफ माना गया है. इस तरह की पाबंदियां आप समाज के हर तबके में पायेंगे. मैं भारत की बात कर रहा हूँ. जहां जाट भी रहते हैं. शादी के मामले में कुछ पाबंदियों की परंपरा अपने पूर्वजों से उन्हें भी मिली है शिष्टाचार के तमाम संस्कारों के साथ. और वे लागू भी रही हैं अब से महज़ कुछ महीने पहले तक. स्वभाव से दबंग होने के बावजूद जाट कभी उग्र नहीं हुए. इसलिए कि इसकी नौबत ही नहीं आई.

अब आई है तो वे आपे से बाहर हुए हैं, हिंसक भी. और आप गौर करें इस हिंसा के पीछे भी परिवार की भूमिका कुछ कम, खाप की ज्यादा है. खाप भीड़ होती है. पर लोकतंत्र में भीड़ की भी एक भाषा होती है. अहमियत भी. हिंसा गलत है. कोई भी दलील किसी हत्या को जायज़ नहीं ठहरा सकती. कानून अपना काम करेगा. उसने किया. यहाँ टकराव दिखा. जो खापों को परंपरा में मिले वो संस्कार कानून की किताब में दर्ज नहीं थे. मनोज, बबली की गयी जान और कोई आधा दर्जन लोगों को फांसी के ऐलान के बाद ही सही समाज के संस्कारों और संविधान का सही मेल हो पाए तो ये बड़े पुण्य का काम होगा. मैं मीडिया में अपने मित्रों से उम्मीद करूँगा कि वे खापों को तालिबान बताने की बजाय एक बार अपने भी गिरेबान में झाँक कर देखें. जब खुद उनके परिवारों में फर्स्ट कजिन के साथ शादी नहीं हो सकती तो फिर इसका विरोध करने के लिए जाट ही बदनाम क्यों हैं? कुछ चिंतन मनन अपने अंतःकरण में जाटों और उनकी खापों को भी करना पड़ेगा. पंजाबियों और मुसलमानों ने तो शादी के लिए ददिहाल और ननिहाल में से एक रास्ता बंद किया है. खापों पे इलज़ाम है कि उनने इन दो के अलावा तीसरे और चौथे रास्ते पे भी नाका सा लगा रखा है.

ये ज़रूरी है देश की संसद खापों की हिन्दू मैरिज एक्ट में संशोधन की मांग पर विचार करे. शादी के लिए छत्तीसगढ़ और झारखण्ड से कुछ नज़दीक रास्ते जाटों की नई पीढी को भी दिखने चाहिए. वर्ना बेमेल शादियाँ होंगी. फतवे, खतरे होंगे. अदालतों में फ़रियाद होगी तो सुरक्षा मुहय्या कराने के आदेश भी दिए ही जायेंगे. खापों और पुलिस के बीच टकराव हमेशा रहेगा. इससे मुश्किलें बढेंगी. मतभेद मनभेद में बदले तो सरकार के लिए भी गोली डंडा चलाना दुश्वार हो जाएगा. हम सब अस्थायी असहमति के स्थायी अशांति में बदलने का इंतज़ार क्यों करें? ....मान के चलिए कि चौटाला और नवीन जिन्दलों के बाद "भाई-बहनों" की शादियों के खिलाफ तो जाटों के साथ कल दूसरी बिरादरियां भी होंगी





ऑनर किलिंग का कलंक

देर आयद,दुरुस्त आयद! ऑनर किलिंग के नाम पर प्रेमी और विवाहित जोड़ों की क्रूर हत्याओं को रोकने के लिए दोहरे स्तर पर पहल हुई है।पहली सरकारी स्तर पर,जिसमें केंद्र सरकार देश में कथित तौर पर बढ़ते ऑनर किलिंग को रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में संशोधन करने की तैयारी में है। इस मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रस्ताव को कानून मंत्रालय ने हरी झंडी दे दी है।
गृह मंत्रालय ने परिवार, जाति, धर्म और क्षेत्र के सम्मान के नाम पर होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए कानून मंत्रालय से सुझाव मांगे थे। एक अधिकारी के मुताबिक, इस तरह के जघन्य अपराध ज्यादातर प्रेम विवाह के मामलों में परिवार या पंचायतों के राजी न होने की स्थिति में सामने आते हैं और यह प्रवृत्ति देश के अलग अलग हिस्सों में लगातार बढ़ी है। दोनों मंत्रालय मिलकर आईपीसी में संशोधन का प्रारूप तय करेंगे। सूत्रों के मुताबिक, आगामी बजट सत्र में इस दिशा में ठोस कवायद सामने आ सकती है।दूसरी सामाजिक स्तर पर,जिसमें फेडरेशन ऑफ जाट इंस्टीट्यूशन भी ऑनर किलिंग की समस्या पर राष्ट्रीय स्तर पर समाधान चाहता है।करीब दर्जन भर संगठनों की ये पैतृक संस्था उसी हरियाणा से ताल्लुक रखती है जो ऑनर किलिंग के लिए सबसे ज्यादा बदनाम रहा है।उत्तर प्रदेश जाट महासभा के अध्यक्ष मेजर जनरल(सेवानिवृत) आर एस कोहली भी सरकार आईपीसी में संशोधन के फैसले का स्वागत करते हैं ।वो भी चाहते हैं कि कानूनी तौर पर कुछ ऐसी पहल हो ताकि इस समस्या का समाधान हो सके।
सरकार और समाज ही वो दो सिरे हैं,जो इस सामाजिक-आपराधिक कलंक के लिये सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं।सरकार के पास इस अपराध से निपटने के लिये कोई प्रत्यक्ष कानून नहीं है,और समाज आज भी महिला को जाति सूचक शर्म की वस्तु समझने की अंधी सोच से बाहर नहीं निकल पा रहा है।
ज्यादातर मामलों में हत्या का ये आदेश गांव की जाति पंचायत सुनाती है,जिसे खाप के नाम से जाना जाता है,खाप गांवोंमें चलने वाली समानांतर अदालत होती है,जो खुद को सारे सामाजिक क्रिया-कलापों का ठेकेदार समझती है।
ऑनर
किलिंग के इन मामलों का बुनियादी कारण औरत होती है,जिसे समुदाय की मर्यादा से जोड़कर देखा जाता है,इसलिए पुरुष प्रधान समाज में उसे खुद अपने फैसले लेने का अधिकार भी नहीं होता।खाप अपने समुदाय की स्त्रियों पर पहरा रखती है और समाज के लड़के से उसके प्रेम को अपमान मानकर उनकी हत्या के फरमान जारी कर देती है।
इन
पंचायतों पर धन और बल वालों का हाथ होता है,इसलिए अक्सर इनका फैसला भी कमज़ोर लोगों के खिलाफ ही होता है,जिसे मानना अनिवार्य होता है। गांव की चुनी हुई पंचायतें इन जाति पंचायतों के सामने गूंगी होती हैं,और प्रशासन अपंग बना रहता है।धर्म,संस्कृति और स्त्रियों के भविष्य निर्धारित करने वाले खाप के स्वयंभू पंच प्रेमी जोड़ों को निर्वस्त्र कर गांव में घुमाने,फांसी चढ़ा देने या जला कर मार देने की सज़ा सुनाते रहे हैं।
मार्च
2007 में उत्तर प्रदेश के आगरा में उन्नीस वर्षीया गुड़िया और इक्कीस वर्षीय महेश को तो दोहरी सज़ा मिली,उनकी हत्या के बाद शव को टुकड़े-टुकड़े करके जला दिया गया।इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ऐसा करके संदेश दिया गया कि अगर कोई और प्रेम करने या शादी करने की हिमाकत करे तो उसका यही हश्र होगा।हरियाणा के जींद ज़िले में,जाति पंचायत के आदेश के बाद वेदपाल मोर को उसकी नवविवाहिता पत्नी के परिजनों और गांव वालों ने डेढ़ दर्ज़न पुलिस वालों की मौज़ूदगी में ना सिर्फ बेरहमी से मार डाला बल्कि,प्रेम विवाह करने वालों को सबक सिखाने के लिये शव को सड़क पर रख उसकी नुमाइश भी की।इस घटना के 24 घंटे बाद ही झज्जर ज़िले के धारणा गांव की जाति पंचायत ने रविंद्र और शिल्पा को मौत के घाट उतारने का हुक्म जारी किया था,जो अपने परिवार सहित गांव छोड़ कर भागने पर मज़बूर हुआ,और आज भी घर वापिस नहीं लौट सका है।
ऑनर
किलिंग के लिये हरियाणा के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश सबसे ज़्यादा बदनाम रहा है,एक आंकड़े के अनुसार वर्ष 2005 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अकेले मुज़फ्फरनगर ज़िले में ही ऑनर किलिंग के नाम पर पंद्रह निर्दोष प्रेमी जोड़ों को मौत के घाट उतार दिया गया।मुज़फ्फरनगर ही वो जगह है,जहां 1990 के शुरुआती दशक में ऑनर किलिंग का पहला मामला प्रकाश में आया था ।तब से अब तक,अनुमान के मुताबिक देश के इन दो छोटे हिस्सों में ही अब तक सैकड़ों मासूम युवाओं को समाज की इस सनक का शिकार होना पड़ा है।
लेकिन
,ऑनर किलिंग की ये संकीर्णता हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है।कमोबेश पूरा देश कभी न कभी इस महामारी के दर्द से छटपटाता रहा है।2009 के जुलाई माह में जम्मू-कश्मीर के अखनूर में शहाना नाम की युवती को पहले ज़हर दिया गया और बाद में गला घोंट कर उसकी हत्या कर दी गयी,तो तामिलनाडु में मदुरै की एक एनजीओ ने पिछले साल आसपास के पांच ज़िलों में ही ऑनर किलिंग के कई मामले दर्ज़ किये हैं।ऑनर किलिंग के इन मामलों में गांव समुदाय की सहभागिता तो रहती है,लेकिन अपने बेटे-बोटियों की क्रूर हत्याएं उनका परिवार ही करता है।
सवाल
ये है,कि दशकों से जारी इस कलंक पर लगाम क्यों नहीं लग पा रही है ? इसका जवाब शायद उन सामाजिक कुरीतियों की जड़ में छिपा है,जिन्हें धर्म,जाति और समुदायों का अधिकार समझा जाता है,और जिन्हें राजनीतिक कारणों से कुरेदने की हिम्मत सरकारें नहीं कर पातीं।मासूम बेटे-बेटियों को सज़ा-ए-मौत सुनाने वाली इन जाति पंचातयों पर प्रतिबंध लगाने से सरकारें हिचकती रही हैं,और पुलिस इन गैरकानूनी सार्वजनिक अदालतों के फैसलों पर अपनी सीमित परिभाषाओं के तहत परिणामविहीन कार्रवाई करता रहा है।
हैरत
की बात नहीं,कि मई 2004 में दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बी सी पटेल और न्यायाधीश बी डी अहमद ने उत्तर प्रदेश के ग़ाजियाबाद की एक पंचायत में सुनायी गयी हत्या की ऐसी ही एक सज़ा पर सख्त हैरानी जतायी थी,और जानना चाहा था कि प्रशासन और सरकार कहां रहते हैं? इस साल जुलाई में खुद संसद में ऑनर किलिंग के मुद्दे पर खूब हंगामा हुआ,लेकिन तब नतीज़ा ढ़ाक के तीन पात ही रहा था। न तो सरकार ने इसके ख़िलाफ किसी सामाजिक अभियान की ज़रुरत समझी ,न कानून बनाने की बात की गयी।
बहरहाल
,देर से ही सही सरकार चेती है। समाज जागा है। सरकार की तरफ से कानून बनाने की बात की गयी है,और समाज इस अंधी सोच और झूठी मर्यादा के ख़िलाफ खड़े होने के संकेत दे रहा है।
प्रतिभा

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