डॉ. धीरेन्द्र पाठक
वर्तमान परिवेश में पत्रकारिता का लक्ष्य समझने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि पत्रकारिता क्या है? उसका लक्ष्य क्या है? पत्रकारिता का अंग्रेजी शाब्दिक अर्थ जर्नलिज्म (journalism) होता है, जो जर्नल शब्द से बनता है, जिसका मतलब दैनिक होता है। इससे स्पष्ट है कि दिन-प्रतिदिन की घटनाओं को सूचना के रूप में संकलित कर उसे पाठक के समक्ष संप्रेषित करने की कला एवं विज्ञान पत्रकारिता है अर्थात् विभिन्न स्त्रोतों से समाचारों एवं छायाचित्रों का संकलन, पाठकों की रूचियों के अनुसार समाचारों का संपादन, ज्वलंत मुद्दों पर संपादकीय विचार एवं आलेख से पाठकों का दिशा-दर्शन, पत्र का कलेवर नयनाभिराम बनाना, समय पर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करना पत्रकारिता है। पाठकों की रूचियां एवं दिशा-दर्शन में ही लक्ष्य का भाव पूरा निहित है। रूचियों का तात्पर्य थोपना नहीं है जैसा कि वर्तमान में लक्ष्य बनता जा रहा है, क्योंकि पत्रकारिता समाज का दर्पण है।
पत्रकारिता एक सेवा है जो जनमत के अंदर राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना जागृत करती है, जनमुख को वाणी प्रदान करती है। पत्रकारिता स्वतंत्रता, मानवीय संवेदनाएं, समानता एवं बन्धुत्व का भाव पैदा करने वाली एक प्रभावशाली विधा है। स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना की भूमि तैयार करने वाली पत्रकारिता आजादी के 60 वर्षों के बाद आर्थिक उदारीकरण, भूमण्डलीकरण के नाम पर नई सूचना प्रौद्योगिकी के सोपानों पर चढ़कर नए विश्व गांव का निर्माण कर रही है। वर्तमान में पत्रकारिता का अर्थ महज समाचार पत्र ही नहीं है। अब रेडियो, दूरदर्शन, केबल उपग्रहीय सभी माध्यम शामिल हो गए हैं और जर्नलिज्म मास मीडिया में बदल चुका है।
सूचना समाज को संचालित करती है। जैसी सूचनाएं संप्रेषित की जाएंगी, वैसा ही समाज निर्मित होगा। पश्चिमी उपनिवेशवाद साम्राज्यवादी संस्कृति ग्लोबल विलेज के नाम पर जो हमारे शयनकक्ष में परोसी जा रही है, उससे भारतीय मूल्य एवं परंपराओं का ह्रास हो रहा है। मनुष्य अमानवीय एवं संवेदनशून्य बन रहा है। यह संस्कृति संदेहवादी, अवसरवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है। इस संबंध में अमेरिका से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक विश्व विवेक के प्रधान संपादक डॉ. भूदेव शर्मा लिखते हैं कि पश्चिम के देशों में अच्छी सुख सुविधाएं और सभ्यता है मगर संस्कृति के नाम पर यहां है, स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा का सूत्र, संदेहवादी दृष्टिकोण, असहजता, असरलता का वातावरण, मोल-तोल के मूल्य और स्वाभाविक निष्ठुरता। यह स्थिति भारत की ही नहीं, बल्कि अनेक पूर्वी देशों से आए अप्रवासियों के जीवन का अभिशाप बन गया है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण माध्यमों द्वारा संप्रेषित धारावाहिकों, समाचारों और उसके विश्लेषणों में परिलक्षित हो रहा है। ब्राम्हणों, गुर्जरों के आरक्षण की मांग, अभिषेक-एश्वर्या की शादी, दाऊद, लादेन जैसे खूंखार आतंकवादियों, सरगनाओं का चेहरा, बाहुबली सांसद शहाबुद्दीन, विधायक मुख्तार अंसारी के कारनामों की कहानी या फिर छात्र नेता से डान बने बबलू श्रीवास्तव की पुस्तक की विश्लेषणात्मक सूचना जैसे चोरी, हत्या, दंगे-फसाद, चरित्र-हनन के चित्रों एवं दृश्यों से आपकी समाचारिक मीडिया भरी पड़ी है। यदि हम धारावाहिकों की चर्चा करें तो अधिकतर धारावाहिक राजसी ठाट-बाट परिवरों से जुड़े लोगों की कहानियों पर आधारित है। जहां शान-शौकत है, महंगी गाडियां, मोबाइल है, अच्छा खाना-पीना है लेकिन नहीं है तो आत्मीयता, बन्धुत्व, सहयोग एवं भारतीय मूल्य तथा परंपराएं। मीडिया वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास, तंत्र-मंत्र एवं रूढ़िवादी परंपराओं को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति में पीछे नहीं है।
प्रिंट मीडिया भी इलेक्ट्रानिक मीडिया का अंधानुकरण कर रही है। मोबाइल पर भूत की कहानी को स्थानीय समाचारपत्रों ने इतना महिमा मंडित किया कि जैसे ऐसा संभव है। लेकिन भविष्यवाणी, सत्तालोलुप राजनीति के समाचारों से प्रिंट मीडिया भी भरा रहता है। इस संबंध में पत्रकार पं. ईश्वरदेव मिश्र ने लिखा है कि मीडिया कि भूमिका आज उचित नहीं है। निहित स्वार्थ पूर्ति के लिए सूचनाओं को विकृत करके आधे-अधुरे रूप में प्रस्तुत कर, तिल को ताड़ और अप्रमाणित को प्रमाणित स्वरूप देकर जनसंचार माध्यम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। जिस प्रकार अभिव्यक्ति की आजादी का हमारे देश में धड़ल्ले से दुरूपयोग हो रहा है, इसी प्कार सूचना के क्षेत्र में दायित्वहीनता देश के लिए अनर्थकारी साबित हो रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया दोनों आदर्शच्युत होकर तथ्य के नाम पर नंगापन, वीभत्स और कुसंस्कार परोस रहे हैं। हम अपराधी और अपराधीकरण की बात तो बहुत करते हैं किन्तु इनकी करतुतों को किसी हीरो की करामातों के रूप में छापते हैं और हम उन्हें सम्मानित नागरिक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। हाल ही में प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक माध्यमों ने अबू सलेम-मोनिका बेदी के प्रंसग, मटुकनाथ से अपनी शिष्या की प्रेम कहानी जैसे ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किए, जिसने जनमानस के मन में सकारात्मक या नकारात्मक छवि निर्मित कर उन्हें हीरो बना डाला। पत्रकारिता का लक्ष्य इंसानियत की भावना पैदा करना, मानवता का संदेश देना, लोक संस्कृति और परंपराओं की पहचान बनाए रखना और भाषा के अस्तित्व को बचाएं रखना। यद्यपि भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां एकता में अनेकता है। अर्थात विभिन्न धर्म, जाति, भाषा के नागरिक एक साथ, एक छत के नीचे रहते हैं। अभी हाल में असम में बिहारियों की हत्या, बिहार में पूर्वोत्तर नागरिकों पर प्रहार, मुंबई में बिहारियों एवं अन्य राज्यों के नागरिकों को जिस तरह मीडिया परोस रही है जैसे उनके लिए यह एक उत्पाद है। इन सभी सूचनाओं में महज जातिगत, क्षेत्रवाद, धर्मवाद के विद्वेष की भावना को जागृत किया जा रहा है। इस तरह के संदेश किसी भी विकासशील राष्ट्र की प्रगति में सदैव घातक रहते हैं। वैमनस्यता की बयार को गति देते हैं, एकता को ध्वस्त कर देते हैं, अवसरवाद एवं कटुता की जड़ को मजबूत करते हैं।
राष्ट्रीयता की ध्वजावाहिका, स्वदेश प्रेम, मानव कल्याण एवं बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय की दृष्टिकोण को लेकर जन्मी पत्रकारिता आज कैसे दिग्भ्रमित हो गई। इस संबंध में भारतीय पत्रकारिता के लगभग सवा दो सौ वर्ष के इतिहास के सभी पक्षों का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि देश के प्रथम समाचारपत्र हिक्की गजट को संपादक ने अपने पत्र में राजनीतिक समाचारों को छापा वह भी नकरात्मक। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह था कि अन्याय के खिलाफ निर्भीकता और निष्पक्षता से लिखा, असत्य के आगे नहीं झुके, भले ही उन्हें यातनाएं सहनी पड़ी और उन्हें सब कुछ न्यौछावर करना पड़ा।
उसके बाद लगभग आजादी तक ब्रिटिश सरकार के चाटुकार पत्रों को छोड़कर भारतीयों द्वारा संपादित एवं प्रकाशित दैनिक भारत मित्र, राजस्थान समाचार, कलकत्ता समाचार, विश्वमित्र इत्यादि व्यावसायिक पत्रों का दृष्टिकोण पाठकोन्मुख था। सभी राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत थे, मालिकों की स्वार्थसाधना की वस्तु न थी और संपादकों को लेखन की पूरी स्वतंत्रता थी। तभी तो यह संभव हो सका। सत्य के उद्गाता, स्वतंत्रता के अनुष्ठाता, कर्तव्यपथ के अनवरत पथिक संपादकों की लेखनी ने हमें गुलामी से उभारा। चुनौती, प्रताड़ना और जेल यातना से जूझते हुए पत्रकारों एवं संपादकों ने पत्रकारिता को नई दिशा दी। पत्र संचालक अपने पत्र के संपादक को महत्व देते थे। संपादकाचार्य पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने लिखा है कि भारतमित्र व्यावसायिक होते हुए भी किसी स्वार्थसाधन हेतु नहीं निकलता था। फिर भी यह पहला हिन्दी समाचार पत्र था जिसमें संचालक मण्डल होता था। सन 1913 में भारत मित्र लिमिटेड कंपनी द्वारा चलाया जाता था। इस कंपनी में नामी-गिरामी उद्योगपति, व्यवसायी शामिल थे। स्वतंत्रता के कुछ वर्ष पूर्व ही पत्रकारिता ने व्यावसायिकता का रूप धारण करना शुरू कर दिया था और सनसनीखेज, अश्लीलता, आरोप-प्रत्यारोप के समाचारों का प्रकाशन शुरू हो गया था। इसके पीछे मूल कारण थे द्वितीय विश्वयुध्द बाद बढ़ती महंगाई, अखबारी कागजों के दामों में उछाल प्रतिस्पर्धा और विज्ञापन पाने की होड़ थी। पं. कमलापति त्रिपाठी ने लिखा है कि 1944 के आस-पास के दौर में हिन्दी पत्रकारिता से आदर्शवाद कम होने लगा था। कारण यह था कि अखबार छापना एक महंगा काल हो गया। विज्ञापन मिलने से फायदा हो सकता था, विज्ञापन उसी अखबार को मिलते थे जिसकी पाठक संख्या अधिक होती थी। पाठक संख्या बढ़ाने का आसान तरीका यही दिखता था कि पाठकों के मनोरंजन, सनसनी तथा जीवन की क्षुद्र लालसाओं को उत्तेजना प्रदान करने वाली बातों से पत्र के स्तंभ भरे जाएं। यहीं पाठकों को लालच व तरह-तरह के आकर्षण देकर फुसलाया भी जाने लगा। जनता का पथ प्रदर्शन करना राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों की गुत्थी सुलझाना तो पीछे ही छूट गया। इसके स्थान पर बिल्कुल उसके विपरीत कुचाल से वे ही पत्र जनता को पतन तथा भ्रष्टाचार की ओर ले जाने लगे। अदालत में मुकदमेबाजी, व्यभिचार के मामले, प्रेम लीलाएं किसी की बेटी-बहू का किसी के साथ भाग जाना, दुस्साहसपूर्ण डकैती, जासूसी वगैरह के मामलों तथा निराधार बातों को भी मिर्च-मसाला लगाकर छापना शुरू हो गया। पाठकों को भी ऐसे ही अखबार भाने लगे।
स्वाधीनता के बाद संवैधानिक तौर पर समाचार पत्रों को अनुच्छेद 19 (6) के अंतर्गत वृत्ति, उपजीविका एवं व्यापार का दर्जा दिया गया और प्रेस पर औद्योगिक संबंध, कर्मचारियों के वेतन, ग्रेच्युटी आदि की अदायगी से उन्मुक्ति नहीं दी गई एवं अन्य व्यापारिक संस्थानों की तरह कर भी लगाए गए। तकनीकी विकास, गुणात्मक, संख्यात्मक वृध्दि, गलाकाट स्पर्धा में प्रसार बनाए रखना एवं उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए धनार्जन करना पत्र स्वामियों का ध्येय बनता चला गया। जिससे पत्र की संपादकीय दृष्टि क्षीण होती गई और वित्तीय स्थिति सुदृढ़ हुई। इलेक्ट्रानिक माध्यमों में रेडियो का विस्तार हुआ। विविध भारती आया एफएम चैनल शुरू हुआ। दोनों ही विज्ञापन से होने वाले आय के मुख्य साधन है। 1959 में दूरदर्शन का श्रीगणेश हुआ और 1976 में विज्ञापन का प्रसारण आरंभ हुआ। 1982 में जन-जन तक पहुंचाने में दूरदर्शन का विस्तार किया गया। 1991 में उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण की पृष्ठभूमि तैयार की गई और उपग्रही चैनल रंग-बिरंगी तस्वीरों के साथ उपभोक्तावादी अपसंस्कृति हमारे देश में प्रवेश किया, क्योंकि इसके पूर्व दूरदर्शन द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रमों में देश की सच्ची तस्वीरों को ही प्राथमिकता दी जाती थी। 1995 में इंटरनेट रूपी सूचनाओं का एक संजाल आया और फिर मिशन की पत्रकारिता जो प्रोफेशन बन गई थी उसे कामर्शियल बना दिया गया।
प्रोफेशनल और कामर्शियल में क्या अंतर है यह समझना आवश्यक है। व्यावसायिकता एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा है जो व्यापार के निर्धारित नैतिक मूल्यों एवं मापदंड के सहारे व्यापारी धनार्जन करता है, लेकिन कामर्शियल अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा है जहां कम से कम लागत, समय एवं घटिया सेवाएं देकर एवं मीठी-मीठी बातें करके ग्राहकों के मत्थे माल को मढ़ दिया जाता है। ग्राहक को लूटने में कोई संकोच या शर्म नहीं महसूस करता है बल्कि अपनी व्यापारिक बुध्दि पर खुश होता है। डॉ. अर्जुन तिवारी ने लिखा है कि मिशन (स्वतंत्रता हेतु समर्पित सेवा), एम्बीशन (राष्ट्र निर्माण की आकांक्षा) के पश्चात हिन्दी पत्रकारिता प्रोफेशन (व्यवसाय) कमीशन (अंशलाभ) तथा सेंसेक्स (तहलका) तक पहुंच चुकी है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के अंतर्गत पत्रकारिता को अभिव्यक्ति एवं वाक स्वतंत्रता प्रदान की गई। जिसका तात्पर्य राष्ट्र के शोषित वर्ग की पीड़ाओं के प्रतिबिम्ब को शासक वर्ग के समक्ष प्रस्तुत करना और शासक की नीतियों का सच्चा विश्लेषण कर जनमत को वाणी प्रदान करना है। जिससे राष्ट्र खुशहाल हो एवं विकास हो सके। सचमुच यह स्वतंत्रता पाठकों और संपादकों की है न कि मालिकों की। संपादक निडरता, निष्पक्षता से राष्ट्र की सच्ची तस्वीर पाठकों के समक्ष उपस्थित करे और जनमत कार्यपालिका एवं विधायिका के संबंध में अपना निर्णय ले सके। स्वामी ने पूंजी लगाई है तो धनार्जन उसका उद्देश्य है लेकिन पत्र के कर्तव्य एवं लक्ष्य पर हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। आज के युग में अब उलटा ही हो रहा है कि बैनेट एण्ड कोलमैन समूह के टाइम्स आफ इंडिया पत्र के प्रबंध निदेशक समीर जैन ने संपादक नाम की संख्या पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। उनकी मान्यता है कि अखबार की पृष्ठ संख्या, रूप साा और उसकी कीमत ही अधिक कारगर महत्व रखती है, संपादकीय सामग्री अधिक नहीं।
अखबार निकालने के लिए उनकी नजर में किसी खास किस्म की ट्रेनिंग या पेशागत प्रतिबध्दता की जरूरत भी नहीं है। प्रबंधकीय क्षमता वाला कोई भी व्यक्ति बेहतर संपादक की भूमिका भी बखूबी निभा सकता है। निश्चित तौर पर यह भयावह स्थिति है, मीडिया द्वारा एक विचारहीन समाज का निर्माण किया जा रहा है। न्यायमूर्ति पीवी सांवत का कहना है कि शासन संपादकों का नहीं प्रबंधकों का है। वर्षों से घोषित पत्रकारिता के मूल्य आज औंधे मुंह गिर रही है। इसका शिकार समाज हो रहा है और दांव पर उसका भविष्य है।
किसी भी लोकतांत्रिक समाज की व्यवस्था संचालन में मीडिया की शक्तिशाली भूमिका होती है। सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में पत्र-पत्रिकाएं जनता की पथ प्रदर्शक, शुभचिंतक एवं निस्वार्थी की भूमिका निर्वहन करती है। उनकी वास्तविक प्रकृति एवं गतिविधियां सामाजिक एवं राजनैतिक भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण एवं असमानता के विरूध्द होती है। प्रसिध्द विद्वान वेण्डले फिलिप ने लिखा है कि आज का समाचार पत्र एक बारगी जनवर्ग का माता-पिता, स्कूल-कालेज, शिक्षक, थियेटर, आदर्श, परामर्शदाता और साथी हो गया है।
किसी भी राष्ट्र का मूल आधार शिक्षा, स्वास्थ्य एवं गरीबी है। यदि राष्ट्र को खुशहाल रखना हो तो गरीबी खत्म हो, सभी साक्षर हों एवं सभी स्वस्थ हों। भारत गांवों का देश है और आज भी लगभग 64 प्रतिशत आबादी गांवों रहती है। उनके जीविकोपार्जन का साधन कृषि है। यह एक सत्य है कि आज भी हमारे देश में 35 प्रतिशत निरक्षर हैं। इसका दूसरा पहलू स्त्री-पुरूष साक्षरता दर में 29 प्रतिशत का है और शहरी ग्रामीण साक्षरता दर में 27 प्रतिशत का अंतर है। यह असमानता सर्वाधिक बिहार, झारखंड, राजस्थान जैसे हिन्दी भाषी राज्यों में देखी जा सकती है। स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाए तो प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा की मृत्यु दर भी लगभग 6 प्रतिशत है जिसमें सर्वाधिक ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। उसके पीछे कारण है 80 प्रतिशत प्रसव अप्रशिक्षित कर्मी से घर पर कराया जाना, बाल विवाह, समय से पूर्व गर्भाधान एवं शिशु प्रसव के वक्त उपस्थित गंदा वातावरण। वर्तमान में 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। जिसमें सर्वाधिक ग्रामीण क्षेत्रों के हैं।
वर्तमान में मीडिया अधिक प्रसार एवं विज्ञापन प्राप्त करने की होड़ में इस कदर फंस चुका है कि भारत का असली चेहरा कहां है, वह भूल चुका है। उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देकर विज्ञापनदाताओं को प्रत्यक्ष सहयोग प्रदान करना उसका ध्येय हो गया है। इससे क्या देश आने वाले दशक में विकसित राष्ट्रों में शामिल हो जाएगा? इस पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है।
भारत की आत्मा गांवों, झोपड़ बस्तियों में बसती है। मीडिया का दायित्व है कि उनकी उपेक्षा न करके समाज की मुख्य धारा में इन्हें भी जोड़ें। पश्चिमी सभ्यता के उपनिवेशवादी अप-संस्कृति के भंवरजाल में उलझी मीडिया को इससे निकलना होगा और राष्ट्र की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करनी होगी। नहीं तो आने वाला कल इसी मीडिया से प्रश्न करेगा कि यह किसका राष्ट्र है? गांधी जी का या फिर उन अंग्रेजों का जिन्होंने हमें गुलाम बना रखा था। मीडिया को अपना लक्ष्य बदलना होगा तभी हम गांधी की परिकल्पना खुशहाल राष्ट्र को साकार कर राम राज्य स्थापित कर सकते हैं।
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